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आपने ‘लूजर कहीं का’ पढ़ी है?

लूजर कहीं का– मैंने पढ़ा है इस उपन्यास को। बिहार से दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस आना, सपनों में खो जाना, सपने का टूटना। भाषा से लेकर कहानी तक सबमें ताजगी। कम से कम हम जैसे डीयू वालों के लिए तो मस्ट रीड है, सो भी मस्त टाइप- प्रभात रंजन 

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लूजर कहीं का– यह नाम बता देता है कि यह उपन्यास हिन्दी की परंपरा से जरा हटकर होगा। है भी। असल में हिन्दी में दो तरह का साहित्य लिखा जाता है। एक जिसे लेखक लिखते हैं, लेखक पढ़ते हैं और किसी महान लेखक के नाम पर स्थापित सम्मान पा लेते हैं(खुद मुझे भी प्रेमचंद के नाम पर स्थापित एक जनवादी पुरस्कार प्राप्त हो चुका है)। इतिहास में दर्ज होने की तरफ बढ़ने लगते हैं। दूसरे तरह का साहित्य वह होता है जो पाठकों के लिए लिखा जाता है, और उसका पहला उद्देश्य होता है पाठकों को बांधकर रखना, उसका मनोरंजन करना। हिन्दी में ऐसे साहित्य को एक जमाने तक सस्ता साहित्य  कहा जाता रहा। यानी कीमत का कम होना उसकी पहली शर्त होती है। अगर पंकज दुबे के उपन्यास लूजर कहीं का की कीमत महज 125 रुपये न होती तो मैं इस उलझन में पड़ जाता कि इस उपन्यास को किस श्रेणी में रखूँ। वैसे ये श्रेणियाँ बनाता कौन है? 

हालांकि जिसे सस्ता साहित्य कहा जाता है उसके बारे में जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा की बात मुझे हमेशा याद आती है। ओमप्रकाश शर्मा दिल्ली के बिड़ला मिल में नौकरी करते थे,ट्रेड यूनियन के नेता थे। दिन में नौकरी, नेतागिरी, रात में उपन्यास लेखन। उनका कहना था कि दिन भर फैक्ट्रियों में खटने वाले मजदूर के मनोरंजन के लिए भी साहित्य लिखा जाना चाहिए। वे जासूसी उपन्यास लिखते थे और एक जमाने तक बेहद लोकप्रिय रहे। वे अपने लेखन को भी मजदूरों के लिए संघर्ष का ही हिस्सा मानते थे। बहरहाल, मैं उनकी शान में चाहे जो भी कह जाऊँ, लेकिन 60-70 के दशक में कम कीमत वाले उपन्यास लिखने वाले इस उपन्यासकार को हम गंभीर साहित्य वाले किसी गिनती में ही नहीं रखते। ऐसे न जाने कितने लेखक हुए जिन्होने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि उनका नाम इतिहासों में दर्ज हो जाए। वे पाठकों के लिए लिखते रहे, दाद की तरह उनकी जेब से थोड़ा बहुत माल लेते रहे। न उनकी जेब पर अधिक बोझ न माइंड पर। वैसे मुझे हमेशा यह खटकती रही कि पाठकों के लिए लिखने को गुनाह क्यों माना जाता है? अधिक से अधिक पाठकों तक हिन्दी में किताबें पहुंचे,उनमें पढ़ने का चाव पैदा हो तो ऐसा नहीं है कि वह एक दिन गंभीर साहित्य का पारायण नहीं करेगा। करेगा।

मुझे लगता है हिन्दी पट्टी में ऐसी किताबों की बहुत जरूरत है। कारण है। हिन्दी पट्टी में साक्षरता तेजी से बढ़ रही है। नए पढे लिखों में पढ़ने का चाव अधिक होता है। हिन्दी के अखबार वालों ने इस बात को समझा और केंद्र को छोडकर परिधि की तरफ खिसक गए। हिन्दी में अभी भी केंद्र में रहने की होड़ है। एक हजार प्रति बिकने वाली किताब को तो बेस्टसेलर कहा जाने लगता है, 10 हजार बिकने वाली किताबों की कोई चर्चा ही नहीं होती।

आदत बड़ी खराब हो गई है। विषय पर जब भी आता हूँ विषयांतर हो जाता है। लूजर कहीं का उपन्यास पढ़ते हुए पहली बार नहीं, कई बार ऐसा लगा अरे यह तो मैं भी लिख सकता था। उपन्यास शुरुआत में ही अपनी तरफ आकर्षित करता है 
नब्बे का दशक था। पूरा देश ग्लोबलाइज़ेशन के भूत से वैसे ही डील कर रहा था जैसे कोई टीनेजर अपनी नई-नई जवानी से करता है। चारों तरफ एमबीए, एफसीए, और रोजगार के नए नए रास्ते दिखने लगे थे।

लेकिन तमाम बदलाव से दूर देश के दिल में एक हैप्पी आइलैंड था। हिन्दी हार्टलैंड या काऊबेल्ट वाले इन बीमारू राज्यों में हालात बिलकुल अलग थे। वहाँ से लड़कों को ग्लोबलाइज़ेशन से कोई मतलब नहीं था। उन काऊबेल्ट बॉयज को कभी भी काऊ बॉयज नहीं बनना था।

उनके लिए जिंदगी में करने लायक सिर्फ तीन नौकरियाँ थी- डीएम, सीएम या फिर पीएम।

उपन्यास का यह आरंभ ही मुझे नोस्टेल्जिया में ले गया।

दिल्ली विश्वविद्यालय में बीमारू राज्य से आने वाले हम जैसे लड़के सीएम, पीएम तो नहीं लेकिन डीएम बनने के सपने के साथ ही आते थे। इस सपने के साथ डीयू के नॉर्थ कैंपस की कहानी, मुखर्जी नगर, हडसन लाइन, एक अदद प्रेमिका कि चाहत बेगुसराय से मुखर्जी नगर पहुंचे पांडे अनिल कुमार से पैक्स बने कथा नायक के साथ हम भी चलने लगते हैं। सचमुच यह उपन्यास इतनी बारीकी से हमारे छात्र जीवन की सैर कराता है कि अपना भूला हुआ जीवन याद हो आता है। नॉर्थ कैंपस का माहौल,सपने, टूटते ख्वाब, अलग तरह की छात्र राजनीति। अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि लेखक ने उस दौर के डीयू के यथार्थ का विश्वसनीय अंकन किया है। इसकी भाषा की ताजगी प्रभावित करती है। सच में पंकज दुबे बधाई के पात्र हैं कि उन्होने एक ऐसा उपन्यास लिखा जो हम जैसे लूजर्स की सफल कथा कहता है। 200 पृष्ठों का यह उपन्यास गुदगुदाता है, अपने साथ अतीत यात्रा पर ले जाता है, उदास कर जाता है। पैक्स की यह खोने पाने की कहानी लेखक ने बिना लोड लिए लिखी है।

उपन्यास अंग्रेजी-हिन्दी में एक साथ प्रकाशित हुई है, लेकिन भाषा अनुवाद की नहीं लगती। लेखक लगता है दोनों भाषाओं में समान महारत रखते हैं। इतना तो कह ही सकता हूँ कि उपन्यास पढ़कर आप बोर नहीं होंगे, और ऐसा भी नहीं है कि आप ठहरकर सोचने को विवश नहीं होंगे। लूजर कहीं का हमारे आपके जैसे लोगों की ही कहानी है।

हिन्दी में ऐसे उपन्यासों का स्वागत होना चाहिए जो बड़ी तादाद में पाठकों को जोड़ते हुए कुछ मानीखेज बातें करें। फिलहाल मैं तो स्वागत कर ही सकता हूँ।

लिखने के रौ में बताना ही भूल गया कि उपन्यास पेंगुइन बुक्स से प्रकाशित हुआ है।

 
      

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13 comments

  1. 'लूजर कहीं का' के बारे में मैं इतना ही कहना चाहती हूँ कि यह पुस्तक भरपूर मनोरंजन करती है, शुरू से अंत तक पाठक को बांधे हुए रखती है और अंत में एक गूढ़ सन्देश देती है कि उपन्यास का नायक 'पांडे अनिल कुमार सिन्हा'पैक्स बनकर अंत में एक लूजर ही साबित होता है| पैक्स के मर जाने पर वह सफल होता है और फिर वह अपने नाम के साथ कोई सझौता नहीं करना चाहता है| पंकज दुबे बधाई को बधाई|

  2. 'लूजर कहीं का' के बारे में मैं इतना ही कहना चाहती हूँ कि यह पुस्तक भरपूर मनोरंजन करती है, शुरू से अंत तक पाठक को बांधे हुए रखती है और अंत में एक गूढ़ सन्देश देती है कि उपन्यास का नायक 'पांडे अनिल कुमार सिन्हा'पैक्स बनकर अंत में एक लूजर ही साबित होता है| पैक्स के मर जाने पर वह सफल होता है और फिर वह अपने नाम के साथ कोई सझौता नहीं करना चाहता है| पंकज दुबे बधाई को बधाई|

  3. लूजर कहीं का-pustak prakashan ka aankhon dekha haal bahut hi saras bhasha me prastut kiya hai aapne .badhai
    http://bhartiynari.blogspot.com

  4. shukriya prabhat ji ……….pustak mele se lakar padhungi 🙂

  5. shukriya prabhat ji ……..pustak mele se lakar padhungi 🙂

  6. oh, sorry, likha to hai ant main

  7. prakashak kaun hai bhai?

  8. सही और क्या खूब लिखा आपने! यह सस्ता साहित्य न होता तो मेरे जैसा वाणिज्य का छात्र गंभीर साहित्य तक कैसे पहुँच पाता!!! इस पुस्तक को तो पढ़ना ही पड़ेगा।

  9. English ke kai best sellers isi shreni ka lekhan hai kintu vahan soch ke daayre Itne sankuchit nahi

  10. साहित्य लोकप्रिय न हुआ तो किस काम का …. हिन्दी में ऐसे उपन्यासों की सचमुच कमी है जो युवाओं को पढ़ने को प्रेरित करे. पाठकों की अभिरुचि धीरे-धीरे ही आगे बढ़ती है

  11. स्वागत है पंकज जी जैसे लोकप्रिय साहित्य लिखने वाले रचनाकारों का …

  12. पढ़ना पड़ेगा !

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