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क्या हिंदी में बेस्टसेलर हैं ही नहीं?

हिन्दी में बेस्टसेलर को लेकर ‘हिन्दी युग्म’ की तरफ से पुस्तक मेले में 20 फरवरी को परिचर्चा का आयोजन किया गया था। उसमें लेखिका अनु सिंह चौधरी भी वक्ता थी। आज उन्होने परिचर्चा के दौरान बहस में आए मुखी बिन्दुओं की चर्चा करते हुए लोकप्रिय-बेस्टसेलर को लेकर एक सुचिंतित लेख लिखा है- जानकी पुल
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अपने विचार रखने से पहले स्पष्टीकरण/डिस्क्लेमर डाल देना अपनी ही बात को कमज़ोर करना होता है। बावजूद इसके मैं ये ख़तरा उठाना चाहती हूं। 
मेरी तरफ से पहला डिस्क्लेमर ये है कि मैं न हिंदी प्रकाशन जगत की विशेषज्ञ हूं, बेस्टसेलरलेखक। बल्कि किसी भी पारंपरिक मापदंड के लिहाज़ से तो मैं राईटरहूं ही नहीं। लेकिन मेरी ये पोस्ट पढ़ने का वक़्त निकालने और ज़ेहमत उठाने वाले हर एक पाठक की तरह किताबें मेरी कमज़ोरी हैं, और हिंदी में लिखना-पढ़ना जुनून। 
इसी जुनून ने लिखने-पढ़ने और बाद में छापनेवालों की जमात में से कुछ ख़ास दोस्त निकालकर दे दिए। इनसे निस्बत इतनी ही है कि हिंदी पठन और लेखन को लेकर इनकी चिंताएं भी मेरे जैसी ही हैं, या शायद मुझसे बहुत बड़ी। यही वजह थी कि हिंदी युग्म के कर्ता-धर्ता और दोस्त शैलेश भारतवासी ने विश्व पुस्तक मेले में हिंदी में पॉपुलर लेखन: क्यों नहीं होते हिंदी में बेस्टसेलर्सविषय पर परिचर्चा में मंच संभालने की ज़िम्मेदारी उठाने को कहा, तो मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया, बावजूद इसके कि इस विषय पर बहुत मूल सवाल पूछने के अलावा मेरे पास अपनी तरफ से विचार प्रकट करने के लिए कुछ भी नहीं था। 
बहरहाल, मंच पर युवा प्रकाशकों की टोली, एक युवा लेखक और दर्शकों की भीड़ में बैठे कई सारे युवा पाठकों की भीड़ ने मुझे हिम्मत दी। और कुछ नहीं तो हम सुधी पाठक तो हैं ही!
पॉपुलर लेखन, और उसके साथ जुड़ा बेस्टसेलर का तमगा – ये वो बड़ा मुद्दा है जो पचास मिनट की परिचर्चा के दायरे से कहीं बाहर, कहीं बड़ा है। जब हम किसी चर्चा के लिए एक साथ, एक मंच पर इकट्ठा होते हैं तो ये कतई ज़रूरी नहीं कि हम सब सहमतियों में ही बात करें। हमारे अपने अनुभव, अपने पूर्वाग्रह और अपनी विश्लेषण शक्ति होती है जिसके आधार पर एक चर्चा को आगे बढ़ाया जाता है। इस मंच पर भी चार अलग-अलग स्वर थे, और इसलिए ये परिचर्चा मेरे और मेरे साथ-साथ वहां मौजूद श्रोताओं के सवालों के जवाब देने, उनकी समझ को बेहतर बनाने के लिए अत्यंत आवश्यक थी। मंच पर मेरे साथ हार्पर हिंदी की वरिष्ठ संपादक मीनाक्षी ठाकुर, वाणी प्रकाशन की अदिति माहेश्वरी, लेखक प्रचंड प्रवीर और हिंदी युग्म के शैलेश भारतवासी थे। सबके तजुर्बे अलग, सबके काम करने के तरीके अलग। लेकिन सबका उद्देश्य एक – नई पीढ़ी के बीच हिंदी लेखन को वो गौरव और जगह दिलाई जाए जिसकी वो हक़दार है। 
बेस्टसेलर क्या है, और बेस्टसेलर किसे होना चाहिए, इस बात पर हम सबमें मतभेद हो सकता है। होना भी चाहिए। 
बेस्टसेलर हमारे लिए महज़ एक आंकड़ा या परिमाणात्मक निकाय नहीं है। बेस्टसेलर एक आम पाठक ही नहीं, प्रकाशक के लिए भी वो गुणात्मक अनुप्रयोग है जिसे छापते हुए और बाद में अपने डिस्प्ले का हिस्सा बनाते हुए वो गर्व महसूस करता हो। उस लिहाज़ से हर प्रकाशक अपने बेस्टसेलर ख़ुद तय करता है, और इसका निर्धारण किताबों की बिक्री के आधार पर कम, उनकी लोकप्रियता के आधार पर ज़्यादा होता है। अगर मुझसे मेरी राय पूछी जाए तो मेरे हिसाब से जिन किताबों की लोकप्रियता की उम्र दस-पांच संस्करणों से आगे बढ़कर अगली पीढ़ियों तक जाती है, वही किताबें बेस्टसेलर कहलाई जानी चाहिए। लेकिन ये मेरी राय है। बेस्टसेलर की परिभाषाएं भी अलग-अलग हैं। इस बात पर ज़रूर सहमति बने शायद कि जो किताब बड़ी संख्या में पाठकों को खुद से जोड़ सके, वो किताब बेस्टसेलर है। 
फिर क्या हिंदी में बेस्टसेलर हैं ही नहीं?  
अदिति माहेश्वरी ने अपनी प्रकाशन संस्था की मिसाल देते हुए कहा कि हमारे दादाजी के ज़माने में गोदानबेस्टसेलर था तो पिता के ज़माने में पीली छतरी वाली लड़की। हमारे ज़माने के बेस्टसेलर की तलाश हम अभी कर रहे हैं। 
मैं अदिति की बात से पूरी तरह इत्तिफ़ाक रखती हूं। बेस्टसेलर तो वो है जो हमारे बाद अगली पीढ़ी भी पढ़े। इस लिहाज़ से तलाश तो अभी चल ही रही है। अपने कैटालॉग में हिंदी जगत के तमाम बड़े नामों के होते हुए भी, तीस से अधिक भाषाओं में अपने ही एक लेखक के अनूदित होने का गर्व बांटते हुए भी एक प्रकाशन संस्था की प्रतिनिधि अगर ये कहती हैं कि बेस्टसेलर की तलाश है अभी, तो इसे उनके भीतर कुछ और बड़ा करने का जज्बा मानना चाहिए। तलाश हमेशा सकारात्मक होती है। जितना है, हम उससे संतुष्ट हो गए तो इसका ख़ामियाज़ा अगली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा। 
हालांकि कई पीढ़ियों तक पहुंचने वाली लोकप्रियता किताब या लेखक को बेस्टसेलरकी श्रेणी में डालती है तो इस लिहाज़ से हिंदी में सुरेन्द्र मोहन पाठक से बड़ा नाम कहां होगा? बावजूद इसके सुरेन्द्र मोहन पाठक का नया टाईटल कोलाबा कॉन्सपिरेसीछापने वाली हार्पर हिंदी की मीनाक्षी ठाकुर ने चर्चा के दौरान ये स्वीकार भी किया कि शुद्ध रूप से साहित्यिक और अच्छी किताबें छपती रहें, इसलिए ज़रूरी है कि एक प्रकाशन संस्था को सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसा पॉपुलर लेखक मिले। 
हिंदी ही क्यों, पॉपुलर लेखन पढ़ने-लिखने की संस्कृति को बचाए रखने के लिए हर भाषा की ज़रूरत है। 
वैसे बेस्टसेलर आख़िर चाहिए किसे? लेखक को? प्रकाशक को? या पाठक को
इस सवाल का भी मिला-जुला जवाब आया मंच से, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ये तीनों एक ही त्रिकोण के तीन कोने हैं – एक-दूसरे पर निर्भर।
मैं समझ नहीं पाती कि बेस्टसेलर एक लेखक की ज़रूरत कैसे नहीं है? हिंदी में लेखकों का एक बड़ा तबका लेखन के अलावा जीविकोपार्जन के लिए कुछ न कुछ और कर रहा है। (योर्स ट्रूली समेत) जो हिंदी में लिख सकता था, वो लिखता तो है लेकिन विज्ञापनों के लिए जिंगल्स लिखता है, टीवी चैनलों में स्क्रिप्ट लिखता है, फिल्में लिखता है, प्रोमो लिखता है। हिंदी में लिखने वाला इस सच्चाई से अच्छी तरह वाक़िफ़ है कि यदि लिखकर गुज़ारा करना है तो किताबें लिखकर या साहित्य रचकर गुज़ारा मुमकिन नहीं है। 
ये हिंदी बनाम अंग्रेज़ी की चर्चा नहीं है, लेकिन एक रेफरेंस प्वाइंट के रूप में चेतन या अमीश जैसे लेखकों को रखा जाए तो उनकी पृष्ठभूमि हिंदी में लिखने वाले से बिल्कुल अलग है। अंग्रेज़ी में बेस्टसेलर बनाने में प्रकाशन संस्था से ज़्यादा बड़ी और सक्रिय भूमिका लेखक निभाता है। मार्केटिंग स्ट्रैटजी से लेकर हर किताब की दुकान तक पहुंचने में, अपनी किताब के प्रचार के लिए नए तरीके ईजाद करने में प्रकाशक से ज़्यादा लेखक दिलचस्पी लेता है। हम हिंदीवाले अपने बारे में बात करने से कतराते हैं। जो लोग इसकी हिम्मत करते भी हैं उन्हें तमाम तरह के विशेषणों से सम्मानित कर दिया जाता है। हम ये नहीं समझते कि हमारे बीच से, हमारी भाषा में लिखने वाला कोई एक अगर अपनी रचनाशीलता के ज़रिए एक नया कीर्तिमान स्थापित करता है तो वो हमारी भाषा, हमारे साहित्य के हित में है। इसलिए एक बेस्टसेलर उस भाषा में लिख रहे सभी लेखकों का किसी न किसी रूप में हित करता है।   
एक और बड़ी समस्या जो मुझे दिखाई देती है, वो ये है कि हिंदी में लिखने की हिम्मत करने वाले भी पाठकों के लिए कम, आलोचकों के लिए ज़्यादा लिख रहे होते हैं। आठवीं के बाद हिंदी की जगह फ्रेंच या जर्मन या कोई और थर्ड लैंग्वेज लेने वाली इस नई पीढ़ी को हिंदी पढ़ने में दिलचस्पी कैसे होगी अगर उनकी भाषा में उनके लिए कोई लिखेगा ही नहीं। उनका अटेंशन स्पैनवैसे भी फेसबुक स्टेटस या फिर एक ट्विट जितना ही त्वरित और संक्षिप्त होता है। नई पीढ़ी के लिए उनके पसंद की रचनाएं कौन लिख रहा है? हिंदी के हैरी पॉटर, जेरॉनिमो स्टिलटन, मेलुहा कहां हैं? फिर पाठकों को बेस्टसेलर कैसे नहीं चाहिए? एक मैं ही जब लिख रही होती हूं तो मेरे ज़ेहन में मेरी मां, मेरे पापा या मेरे बच्चे पाठक को तौर पर कितनी बार आते हैं? मैं किसके लिए लिख रही होती हूं? मैं शायद उन्हीं चंद सौ लोगों के लिए लिख रही होती हूं जो ख़ुद किसी न किसी रूप में लिख रहे होते हैं। लिखने वाले भी वही। पढ़ने वाले भी वही। लिखते हुए हम अपने पाठकों के बारे में कहां सोच रहे होते हैं
हिंदी की जो बड़ी चिंताएं हैं, उनसे किसी को असहमति नहीं है। डिस्ट्रिब्यूशन एक बड़े और पुराने प्रकाशन के लिए उतना ही दूभर है जितना एक नए प्रकाशक के लिए। अगर पढ़ने की आदत छूटने लगी है तो उसका ख़ामियाज़ा हॉल नंबर अठारह में मौजूद सभी हिंदी के प्रकाशक समान रूप से उठाएंगे। हिंदी की किताबें अगर आसानी से उपलब्ध होने लगेंगी तो इसका फायदा किसी न किसी रूप में सभी को होगा। इसलिए ऐसी शाश्वत समस्याओं से निजात पाने के तरीके भी आपस में ढूंढ निकालने होंगे। कुछ ईनोवेटिव और आउट-ऑफ-द-बॉक्स तरीके। जब प्रकाशकों और लेखकों की नई पीढ़ी एक साथ इस बारे में बात कर रही होती है तो एक उम्मीद जगती है। लेकिन उस उम्मीद को बचाए रखना हम सबकी ज़िम्मेदारी है और उसके लिए निजी स्वार्थ या फौरी तौर पर होने वाले फायदे से बड़ा सोचना होगा।     
मंच पर से उतरने के बाद बीस साल के एक लड़के ने एक वाकया सुनाया। पान की दुकान पर बैठा एक पनवारी अपने ग्राहक के लिए पान लगाते हुए बता रहा था कि उसने अभी-अभी बाणभट्ट की आत्मकथापढ़ी और लेखन से अभिभूत है। पान खरीदने वाले ग्राहक ने सड़क के दूसरी तरफ इशारा करते हुए दिखाया कि जो सामने से सड़क पार कर रहे हैं, वही हैं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, बाणभट्ट की आत्मकथा के लेखक। पानवाले ने जल्दी से एक और पान लगाया और दौड़ता हुआ सड़क पार कर आचार्य जी को अपनी ओर से पान खिला आया। लिखनेवाले से बढ़कर पढ़नेवाला! 
लेकिन साठ-सत्तर साल के बाद हम पुराने दिनों को स्यापा नहीं पीट सकते। अतीत गौरवशाली था, और साहित्य भी। साहित्य अपने सुनहरे दिन देख चुका है, और मुमकिन है कि उस किस्म के उत्कृष्ट लेखन का दौर भी ख़त्म हो गया हो, जो क्लासिक्स तैयार करे। लेकिन ये कतई नहीं भूला जाना चाहिए कि आज क्या लिखा जा रहा है, कैसे पढ़ा जा रहा है, इसी आधार पर कल के भविष्य का निर्धारण होगा। इसलिए हिंदी पढ़ने-लिखने को फ़ैशन के तौर पर नहीं, एक गंभीर आदत और ज़रूरत के तौर पर बचाए रखना होगा। ये ज़िम्मेदारी सिर्फ लेखक, सिर्फ प्रकाशक या सिर्फ पाठक की नहीं हो सकती, ठीक उसी तरह जिस तरह एक किताब सिर्फ लेखक या प्रकाशक की नहीं होती। उससे जुड़ने का, उसे नकारने का, उससे प्यार करने का पाठकों का हक़ ज़्यादा बड़ा हो जाता है। 

 
      

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7 comments

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ब्लॉग-बुलेटिन: एक रेट्रोस्पेक्टिव मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !

  2. सहमत हूँ आपके आकलन से अनु !

    साहित्य लेखन से जीविका नहीं चलती क्यूँकि आम पाठकों के लिए साहित्य उनकी ज़िंदगी से जुड़ा नहीं रह गया। इसलिए वो इस पर पैसा खर्च कर दिमाग को खपाना नहीं चाहते।

    जब तक हिंदी भाषा का महत्त्व हमारी पढ़ाई एवम् रोज़गार के अवसरों तक नहीं बढ़ेगा युवक युवतियों से इस भाषा में रुचि लेने और पठन पाठन की अपेक्षा करना बेमानी है।

  3. अनुजी से पूरी तरह सहमत हूँ। पाठक ही वो संजीवनी है जो किसी कृति को जिलाए रखते हैं।कितनी भी जोड़ तोड़ कर लें जो पाठक को पसंद हो वही बिकेगा। अच्छी रचनाएँ पुस्तकालयों मे नहीं, पाठको की स्मृति मंजूषा मे रहती हैं। हिन्दी मे प्रेमचंद के बाद शिवानी और अब मालती जोशी खूब बिक रही हैं। ये मैं नहीं कह रही हूँ रेल्वे स्टेशन पर बुक स्टॉल चलाने वाले जैन भाई मुझे बताते हैं।आज भी घर परिवार और सामाजिक परिवेश से जुड़ी यथार्थ और आदर्श के मेल से रची कहानियाँ ही पाठकों को पसंद आती हैं। छद्म प्रगतिशीलता मंच पर ही अच्छी लगती होगी,सचमुच जीवन मे नहीं। किसी भी विज्ञापन और प्रोपगंडे से बेस्टसेलर बनना नामुमकिन है।पारिवारिक कहानियों पर मुंह बिचकाने वाले अपने परिवारों मे वैसा ही जीवन जीते हैं। प्रेमचंद आज भी हिन्दी के बेस्टसेलर हैं।जैन भाई ने एक बात और बताई कि जीवन शैली से जुड़ी किताबें भी खूब बिक रही हैं।

  4. बहुत ही अच्छा और सटीक आलेख लिखा है | लेखक, प्रकाशक और पाठक तीनों को ही कदम उठाने होंगे |

  5. बहुत सच और सटीक ……

  6. धन्यवाद! इस लेख से कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां ही नहीं मिली बल्कि विचारों को कुछ और आयाम भी मिले ,,और यह हिदायत भी सही लगी .. जैसा आज कल होते हुए दीखता है .. —> ' इसलिए हिंदी पढ़ने-लिखने को फ़ैशन के तौर पर नहीं, एक गंभीर आदत और ज़रूरत के तौर पर बचाए रखना होगा।' ..

  7. 100 % सहमत । सटीक आकलन ।

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