आरएन दास को मूवी मैन ऑफ बिहार के नाम से जाना जाता है। उनसे बातचीत करके यह लेख तैयार किया है सैयद एस. तौहीद ने- जानकी पुल।
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मूवी मैन आफ बिहार के नाम से मकबूल हुए आरएन दास से मिलना सिनेमा की संस्था से मिलना है। श्री दास मानते हैं कि लोकप्रिय सिनेमा सामान्य तौर पर सीमित अवदान लेकर चलता है। किंतु सिनेमा का यह चलन हर किस्म के फिल्मों पर लागू नहीं किया जा सकता। सिनेमा पर जब भी बात निकलती है,तो सभी तरह की फिल्मों का जिक्र होना लाजमी रहता है। शिक्षा व बदलाव के मकसद को लेकर चलने वाली फिल्में भी बन रही हैं। इस किस्म के सिनेमा को जानना ,जागरूक समाज को समझना है। दरअसल दुनिया भर में ऐसी फिल्मों का होना समाज को बेहतर कल की उम्मीद देता है। फिल्म बनाने में हिकमत से काम लेना चाहिए। बढिया होगा सिनेमा के तलबगार इसे जिंदगी के करीब लेकर जाएं। सिनेमा के विद्यार्थियों को महान फिल्मकारों के काम से रू-ब-रु किए जाने पर वो जोर देते हैं। इस कोशिश से तकरीबन हरेक विद्यार्थी मे एक सकारात्मक व्यक्तित्व का विकास होता नजर आएगा। सामान्यत: कला में एक नि्यामक प्रभाव होता है। पढाई में मिली सीख को जिंदगी में लाने की कुछ हिदायत सिनेमा ज्यादातर दे सके तो बेहतर होता है । वो आगे कहते हैं कि युवकों में रूटीन तालीम को लेकर फिक्रमंद करने वाली उदासीनता नजर आती है । इस मसले पर सिनेमा एक सकारात्मक विकल्प हो सकता है। फिल्मों के जरिए तालीम का चलन बदलकर नयी उम्र को नजरिया दिया जा सकता है । सकारात्मक सिनेमा समाज की रहनुमाई कर सकता है। लेकिन ना जाने क्यूं ज्यादातर फिल्में दवा की जगह सिर्फ नुस्खा होकर रह गई हैं।
सिनेमा के प्रति गंभीर रूप से समर्पित आरएन दास बिहार की मकबूल शख्सियतों में से एक हैं। भारतीय प्रशानिक सेवा से जुडे आर एन दास की पहली पोस्टिंग सहरसा में हुई, फिर वहां से रोहतास चले आए । सहरसा में सिनेमा की तहजीब नहीं थी, उस समय सिनेमा के नाम पर केवल एक ही सिनेमा हाल था। वो बताते हैं कि सहरसा में ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘परदेसी’ देखने का अवसर अब भी याद आता है । उस समय वहां के सिनेमाघर बेहद ख्स्ताहाल थे। महिलाएं सामान्यत: किसी के साथ ही फिल्म देखने जाया करती थीं। सहरसा से झारखंड तबादला होने कारण इस शहर के सिनेमा से नाता जाता रहा। उस समय के झारखंड में सिने मनोरंजन के लिए बहुत सीमित जगहें थी। फिल्म देखने वास्ते रांची या टाटानगर जाना पडता था । में सिनेमा के लिए पर्याप्त सुविधाएं थीं। सिनेमा के मामले में यह शहर उन्हें पटना से बेहतर लगा।
साठ के दशक में पटना आगमन हुआ…जहां उस समय अशोक,एलिफिस्टन, वीणा, रूपक और पर्ल सरीखे सिनेमाघर थे। श्री दास बताते हैं कि अशोक-एलिफिस्टन-वीणा सबसे बेहतर हालत में थे। पर्ल में मार्निंग शो की फिल्में दिखाई जाती थीं। अशोक में ज्यादातर पोपुलर फिल्में दिखने को मिल जाती थी। लेकिन फिर भी पूरे परिवार के घूमने लायक बहुत ही कम जगह हुआ करती थी । विक्टोरिया डी सीका की ‘बायसायकिल थीफ’ देखने का मौका उन्हें भी नसीब हुआ था । श्री दास बताते हैं कि सीका की फिल्म पटना में करीब पचीस हफ्ते तक चलती रही। पटना के पूर्व कलेक्टर बताते हैं कि सत्तर के दशक में कुछ लोग मरणासन्न ‘पटना सिने सोसाइटी’ में फिर से जान डालने के उत्साहवर्धक प्रस्ताव साथ उनके पास आए। खुदा का करम देखिए कि उस समय बिहार में एक 16 एम एम प्रोजेक्टर कहीं पडा था । जिसे सिने सोसाइटी को फिल्मों के प्रचार-प्रसार के लिए दिया गया, इस पहल का हिस्सा होना दास सर के लिए बहुत सुखद रहा । कहना लाजिमी होगा कि विजय मुले द्वारा शुरू हुई संस्था को एक बार फिर से पटरी पर लाने में इनका बडा रोल था । इस तहरीक में सिनेमा के प्रति जागरुक लोगों का साथ भी मिला। फिल्मों के प्रचार-प्रसार में आ रही अडचनों को पहचान कर दूर करने की पहल हुई। सबसे पहले ‘पटना सिने सोसाईटी’ को ‘सिने सोसाईटी फेडेरेशन’ में रजिस्टर करवाया गया। अब राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार की सदस्यता भी प्राप्त हो गई। बिहार सरकार की मदद से एक-दो और प्रोजेक्टर खरीदे गए। दास सर ने अपने दखल को महज सरकारी ड्युटी तक नहीं रखा,बल्कि जिंदगी की बडी तलब की तरह करते रहे। ताज्जुब नहीं कि वो ड्युटी से अधिक सिनेमा की दीवानगी के लिए मशहूर हुए।
वो सिनेमा को लेकर अपने जुनून को किसी जादुई असर से अधिक तहजीब से निरंतर जुडे रहने का फल मानते हैं । इस ताल्लुक में उन्होंने फिल्मों पर आधारित किताब व लेखों को शौक लाने की एक वजह मानी। फिल्मों से कुछ इस तरह का नाता बना कि आज उनके पास बिहार की सबसे बडी सिनेमा लाईब्रेरी है। श्री दास के मुताबिक यहां फिल्म मीडिया पर चार हजार से ज्यादा किताबें जमा हैं। बिहार सिने विरासत में इन किताबों का महत्त्व बताने की जरूरत नहीं। लंबे समय तक सिने सोसायटी के निदेशक रहने वाले श्री दास ने आधा से ज्यादा किताबें सोसायटी को दे रखी हैं। बची हुई उनके भुवनेश्वर वाले घर में मिल जाएंगी। सिनेमा की एक संस्था की तरह मकबूल हुए आरएन दास को फिल्मों पर बोलने के लिए देशभर से बुलावा आता रहता है। सिनेमा के तलबगारों के बीच फिल्मों का इश्क बनाने में उनकी कोशिशों का दिलचस्प रोल रहा है। वो इस बात से थोडे दुखी जरूर हैं कि ज्यादातर युवा सिर्फ तात्कालिक फायदों के लिए इस ओर आ रहे हैं। इसी वजह से फेस्टीवल जैसी चीजों के समय तक ही भीड देखने को मिलती है। युवाओं के इस नजरिए से सिनेमा के जरूरी रुझान को नुकसान हुआ है। सिने सोसायटी पटना का काम देखते हुए बेहतरीन फिल्में दिखाने की जिम्मा लिया। कुछेक जगहों पर एक अरसे तक फिल्में दिखाने का काम हुआ। लेकिन इधर चार–पांच बरस से देखने वालों के रुझान में कमी की वजह से सोसायटी का काम रुका पडा है। श्री दास ने कहा कि ज्यादातर लोग अब घर पर ही फिल्मों का मजा लेना पसंद करने लगे हैं। इन हालात में फिल्में दिखाने का कोई खास मकसद नहीं रहा। अब सिनेमा से ताल्लुक रखने वाले बाकी चीजों पर मेहनत शुरु हुई। हाल ही में सोसायटी द्वारा आयोजित भोजपुरी फिल्म महोत्सव को कामयाब बनाने में दास सर के प्रयासों को नहीं भूला जा सकता।
अमितव कुमार की एक हालिया किताब में आरएन दास का जिक्र न होना थोडा निराश करता है। श्री आर एन दास का रोचक व्यक्तित्व पटना को खास पहचान दे रहा है । भूतपूर्व प्रशासनिक अधिकारी श्री दास ने विजय मुले द्वारा शुरु की गई फिल्म सोसायटी को नया जीवन देने में यादगार काम किया था। श्री कुमार की किताब को देखकर आप अचरज में होंगे कि श्री दास यहां होने चाहिए थे। अपने अथक कोशिशों की वजह से ही पटना इन्हें इज्जत से ‘मुवी मैन आफ बिहार’ संबोधित करता है। श्री दास को यदि फिल्म की चलती-फिरती विकीपीडिया कहा जाए तो शायद गलत न होगा । सिनेमा के ऊपर किसी शख्स से बात करना हो तो आरएन दास से मिल आएं। बिहार में विषय पर इनसे अधिक जानकारी शायद दूसरे के पास नहीं। सत्तर दशक में पटना के कलेक्टर होने दौरान खस्ताहाल सोसाईटी को फिर से पटरी पर लाने की जरूरी तहरीक चला कर सबको नए मुस्तकबिल की उम्मीद दी। कहा जा सकता है कि आरएन दास के बिना इस हल्के में सिनेमा तहजीब का वो स्वरूप नहीं होता जो आज बचा हुआ है।
श्री दास ने हालिया में सिनेमा पर एक किताब लिखी है । पुस्तक को ‘फिल्म अध्य्यन’ के विषय पर सरल अंदाज में जानकारी देने वाली पहल कहना सही होगा। यह किताब सिनेमा के सामान्य पाठकों को ध्यान में रखकर लिखी गई है । पुस्तक महानता का कोई दावा नहीं करती, यहां पर विषय को सहज नजरिए से प्रस्तुत किया गया है। इसका मकसद सामग्री से पाठक को असहज करना नहीं। श्री दास की किताब बिहार के दर्शकों को सिनेमा पढना-लिखना सिखाने की एक नयी पहल है । स्वयं लेखक के शब्दों में ‘किताब रिसर्च वर्क से ज्यादा नोटबुक है। वो कहते हैं ‘हरेक व्यक्ति में एक आलोचक का वास होता है। किसी विषय पर अपने विचार रख कर वो ‘आलोचना’ में रूचि दिखाता है। केवल पढा-लिखा आदमी ही नहीं, बल्कि समाज का हरेक तबका फिल्मों का एक अच्छा आलोचक हो सकता है। किसी फिल्म को देखने बाद,अक्सर उस पर अपना वर्डिक्ट देता है’ । श्री दास की किताब सिनेमा में रुझान रखने वाले लोगों की एक ईमानदार रहनुमाई कही जा सकती है।
*श्री आरएन दास के साथ मेरी बातचीत पर आधारित*
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सुंदर आलेख !
सुंदर आलेख !