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नुक्कड़ नाटकों की ‘अंतर्ध्वनि’


 दिल्ली विश्वविद्यालय में हुई नुक्कड़ नाटकों की प्रतियोगिता के बहाने नुक्कड़ नाटकों पर अच्छा लेख लिखा है युवा रंग-आलोचक अमितेश कुमार ने- जानकी पुल 
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तीन दिन के मैराथन नुक्कड़ प्रदर्शनी को देखने के बाद जब हम इस निष्कर्ष पर पहूंचने ही वाले थे कि नुक्कड़ नाटकों में कुछ नया नहीं है, नाट्य दल अपनी उर्जा को चमत्कार और क्लिशे से बाहर नहीं निकाल पा रहे हैं, नारेबाजी और उपदेश में नाटको का कथ्य और फार्म दोनों सिमट आया है तभी अंत में एक ऐसी प्रस्तुति हुई जिसने हमें इस निराशा से उबार लिया. विवेकानंद कालेज की इस प्रस्तुति ने नुक्कड़ नाटकों के व्याकरण में व्यापक तोड़ फोड़ की थी, हम चकित थे और प्रसन्न भी. नुक्कड़ नाटक को नई दिशा देने का रास्ता ऐसे प्रयासों से ही हो सकता है.  
 
दिल्ली विश्वविद्यालय के सालाना जलसेअंतर्ध्वनिके अंतर्गत नुक्कड़ नाटकों की प्रतियोगिता का भी आयोजन होता है. जलसे के तीन दिनों में लगभग चालीस प्रस्तुतिया हुईं. यह संख्या इस तथ्य की गवाही थी कि दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेजों में रंगमंच और विशेषकर नुक्कड़ नाटकों को लेकर कितनी संभावनाएं और दिलचस्पी है। इन चालीस नाटकों के जरिये करीब छः सौ अभिनेता/रंगकर्मियों ने अपना प्रदर्शन किया। नाटकों में एक केंद्रीय तत्व था कि कैंपस लाइफ़ की चमक दमक  के बावजुद ये छात्र और नाट्य दल भूले नहीं थे कि नुक्कड़ नाटक एक राजनीतिक कला है और समकालीन राजनीति को अभिव्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम है. लेकिन इस सबके बावजूद यह एक वैकल्पिक मनोरंजन भी है क्योंकि इसके जरिये समाज के उन वर्गों तक पहूंचा  जा सकता है जिस तक प्रोसेनियम रंगमंच की पहूंच नहीं है. एक साथ इतने बड़े पैमाने पर इतने नुक्कड़ नाटकों को मैंने देखा नहीं था. अब जब देख चुका हूं तो इसके जरिये नुक्कड़ नाटकों पर कुछ बात साझा करना चाहता हूं.
 
इन तीन दिनों में सामाजिक सरोकार से जुड़े हुए समसामयिक प्रश्नों को नाटकों ने अपने तरीकों से संबोधित किया, सामाजिक विसंगतियों पर अपने तरीके से सोचा और प्रदर्शित किया. इन विषयों में सबसे अधिक आवृति नारी संबंधी विषयों की थी जिसको विभिन्न कोणों से संबोधित किया गया. नारियों पर होने वाली घटनाओं ने पूरे समाज को उद्वेलित किया है, कैंपस की इन प्रस्तुतियों का इस विषय को आधार बनाना स्वाभाविक  है. लेकिन  इन प्रस्तुतियों में एक ऊबाऊ दोहराव था. एक जैसी बात लगभग हर प्रस्तुति में कही जा रही थी. यहां तक की नाट्य सरंचनाएं और बिंब भी अधिकांश नाटकों में दोहराए गए. स्त्री विषयों पर आधारित प्रस्तुतियों में अलग हटके प्रस्तुति विवेकानंद कालेज और जीसस एंड मेरी की थी. जीसस एंड मेरी की प्रस्तुति नेरेपकी घटनाओं को एक सांस्कृतिक प्रक्रिया में बदल जाने की बात को दिखाया. प्रस्तुति में अभिनेताओं ने रेप संस्कृति और उसके प्रति समाज के मर्दवादी रवैये को पैने व्यंग्यों से आड़े हाथो लिया. प्रस्तुति एक विरोधाभासी बिंब रचती है. प्रस्तुति में रेप का उत्सव की तरह वर्णन किया जा रहा है और इससे एक विडंबनात्मक छवि उभर रही है. नाटक में समसामयिक गीतों की पैरोडी और शारीरिक सरंचनाओं का बेहतर प्रयोग है और प्रस्तुति स्त्री को अपनी सुरक्षा स्वंय करने के लिये प्रेरित करती है. बलात्कार की  संस्कृति में बदलते जाने की विद्रुपता को एक कलात्मकता तरीके से उद्घाटित किया जा रहा था, सामाजिक व्यवहारों को उजागर करने का यह तरीका  ब्रेख्त के नाटकों की याद दिला रहा था. लेकिन यह प्रस्तुति भी एक स्थल पर जा कर नुक्कड़ नाटकों के क्लिशे में फंस गई. नारेबाजी और उपदेश का भाव प्रस्तुति पर हावी हो गया.. विवेकानंद कालेज की प्रस्तुति डार्क सर्कलअलग तेवर और रंगमंचीय व्याकरण को बदलने वाली प्रस्तुति थी. नाटक के आख्यान में कोई रैखिकता नहीं थी और न ही नाटक सीधे सीधे कुछ कहता था, शिक्षा या उपेदश भी नहीं था. प्रस्तुति में कुछ छवियों के जरिये स्त्री के जीवन की यथार्थ स्थितियों को संप्रेषण किया जा रहा था जिसे अभिनेता शब्दों और शारीरिक भंगिमाओं के जरिये रच रहे थे.  यह छवियां स्त्री के जीवन की विडंबना को गहरे अर्थों में व्यंजित कर रही थी और भीतर तक उद्वेलित कर रही थी. प्रस्तुति विकसित होते हुए ऊंचाई पर पहूंचती है. जिसमें प्रयुक्त होने वाली सामग्रियां, बिंब सभी कुछ नुक्कड़ नाटकों के परिचित व्याकरण के अनुरूप नहीं थे. न इसमें गोल घेरे की कोई रचना था और ना ही अभिनेताओं के शारीतिक उछ्लकूद था. सबसे आशचर्यजनक बात यह थी कि नुक्कड़ नाटकों की अतिरेकी क्रियाओं की जगह अभिनेता अपनी आवाज और चेहेरे से संवेगी अभिनय कर रहे थे जिसे मंचीय नाटकों के उपयुक्त मना जाता है. इस नाटक ने अपनी उर्जा का सहारा दर्शकों को चमत्कृत करने के लिये नहीं किया था, गति की जगह ठहराव इसकी विशेषता थी, इन्हीं विशेषताओं के कारण यह प्रतियोगिता की उपविजेता टीम रही.
 

सामयिक राजनीतिक घटनाक्रम को भी प्रस्तुतियों ने अपना विषय बनाया था. इनमें प्रतियोगिता की विजेता टीम दयाल सिंह कालेज(सांध्य), श्री गुरू तेगबहादूर खालसा कालेज और क्लस्टर इनोवेशन सेंटर की प्रस्तुति उल्लेखनीय थी. दयाल सिंह कालेज (सांध्य) की प्रस्तुति ने जहां जनता की आपस की खींचतान और राजनीतिक प्रक्रियाओं के प्रति आम जनता की शिथिलता को अपना निशाना बनाया. वहीं खालसा कालेज की प्रस्तुतिवी द पीपलने यह सेंदेश दिया की जनता अगर चाहे तो सब कुछ कर सकती है, राजनीतिक प्रक्रियाओं को बदलने और प्रभावित करने की शक्ति उसके पास है लेकिन वह अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छूड़ाता है, अपने को अराजनीतिक कहता है लेकिन वह हर क्षण हर पल राजनीति से घिरा है. इस प्रस्तुति में थोड़ी परिपक्वता थी और इसकी भाषा में ऐसी सामग्रियों का इस्तेमाल था जो नुक्कड़ नाटक में नहीं की जाती. इन सामग्रियों में जैसे एक गेट सरीखा सरंचना थी जिससे मंच स्थल को ही विभिन्न स्पेसों में बांट लिया जाता था. संगीत सरंचना भी अच्छी थी. दयाल सिंह की प्रस्तुति ने बताया नुक्कड़ नाटक के क्लिशे फार्म और तरकीबों का यदि समझदारी से इस्तेमाल किया जाये तो उसमें बहुत संभावनाएं हैं. अभिनेताओं ने अपनी शरीर और उर्जा का इस्तेमाल एक बेहतर नाटक को रचने में किया, इस नाटक में मनोरंजन का भी ध्यान रखा गया था. कल्सटर इनोवेशन सेंटर की टीम ने नुक्कड़ नाटक की सरंचना में एक कहानी  को प्रस्तुत किया. हरिशंकर परसाई के व्यंग्यभेड़ और भेड़ियेपर आधारित इस प्रस्तुति में यह बताया गया कि लोकतंत्र में शक्तिवान स्थितियों को हमेशा अपने अनुकूल ढाल लेता है और सत्ता में बने रह कर वंचितों का शोषण करता. व्यंग्य का भेड़िया और जंगल वर्तमा सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ ग्रहण कर लेता है लेकिन प्रस्तुति ऐसा मुखर होकर नहीं कहती यह संदेश को  अपने में गुंथे हुए है, नारेबाजी का तत्व भी इसमें नहीं है. इनके अलावे श्रीराम सेंटर आफ कामर्स, रामानुजन कालेज, गुरू नानकदेव  खालसा कालेज, कालिंदी कालेज इत्यादि की प्रस्तुतियां उल्लेखनीय रहीं. वैसी प्रस्तुतियों की संख्या अधिक थी जो देखने के बाद याद नहीं रहती.  
 
नुक्कड़ नाटकों का मुख्य साधन शरीर के मूलभूत उपकरण है जिनसे वह दृश्य भाषा रचता है. इन नाटकों को देख कर पता लगता है कि कुछ दल शरीर की सामूहिकता का प्रयोग कर बेहतर दृश्य रच रहे हैं तो कुछ ने कलाबाजियों को ही दृश्यरचना समझ लिया है. कलाबाजी की धारणा का असर यह है कि अधिकांश कालेज में अभिनेताओं ने जो सरंचनाएं बनाई वह एक जैसी थी.  जोर जोर से बोलना और दर्शको को संबोधित करते रहना नुक्कड़ नाटकों के लिये अनिवार्य है लेकिन इन अनिवार्यताओं की कलात्मक अभिव्यक्ति कैसे हो इसके बारे में ये नाट्य दल चिंतित नहीं है. जड़ता की स्थिति यह है कि नाट्य स्थल पर दर्शकों के इकठ्ठा होने के बावजूद नाट्य दलआओ आओ नाटक देखोचिल्ला चिल्ला कर अपनी उर्जा और समय गंवा रहे थे. नाट्य दल की उद्घोषणा हो गई है फिर भी वे अपने कालेज और दल की उद्घोषणा कर रहे थे, ऐसा लग रहा था कि उनका शिल्प इस रूढ़ि में जकड़ चुका है जिससे वे अनजान हैं. वैसे एक अच्छी बात यह रही कि कुछ दलों ने संगीत का अच्छा प्रयोग किया.
 
इन प्रस्तुतियों को देख कर ऐसा लगा कि अब यह सिद्ध मान लिया गया है नुक्कड़ नाटकों का ध्येय सिर्फ़ जागरूकता फैलाना है. राजनीतिक और पार्टी से जूड़े नाट्य दलों ने एजिट प्रोप नाटकों को ही नुक्कड़ नाटक तक सीमित कर दिया है. इसका दूसरा विस्तार सरकारी और गैर सरकारी संगठनों ने किया है जिन्होंन्बे अपने कार्यक्रमों के बारे में जनता को अवगत कराने के लिये इस शैली का उपयोग किया. सरकारी व गैर सरकारी संगठन या राजनीतिक समूहों के दल ऐसे एजेंडा वाले नुक्कड़ नाटक करे तो यह बात समझी जा सकती है लेकिन महाविद्यालयों के नुक्कड़ नाट्य दलों को किसी एजेंडे के तहत काम नहीं करना चाहिये, हां जागरूकता फ़ैलाने का काम आवश्यक है. लेकिन ऐसा करते हुए भी उन्हें नहीं भूलना चाहिये कि कोई भी उपदेश मनोरंजन की शक्ल में हो तभी बेहतर सम्प्रेषित हो सकता है, कोरा उपदेश एक बच्चा भी ग्रहण नहीं करना चाहता. इसके अलावा यह भी ध्यान रखना चाहिये कि नुक्कड़ नाटक वंचित जनता के वैकल्पिक और स्वस्थ मनोरंजन का साधन बन सकता है. कालेजों के दल अपनी उर्जा का इस्तेमाल इस तबके को मनोरंजन प्रदान करने में कर सकते हैं. किसी भी स्वस्थ समाज के निर्माण के लिये स्वस्थ मनोरंजन की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है. लेकिन इन  तीन दिनों की प्रस्तुति से यह लगा कि कालेज के नाट्य दल भी किसी गैर सरकारी संगठन की तरह तय फार्मूले और विषय पर नाटक बना रहे हैं, संवेदनशील सामाजिक विषय उनके लिये एक मौका है जिस पर वह अपना नाट्य उत्पाद रच रहे हैं ऐसा तब है जब इन दलों पर कोई व्यावसायिक दबाव नहीं है और रचनात्मकता की असीम संभावनांए इनके पास है
 
कालेजों के इन नुक्कड़ नाटकों में अधिकांश में कहानी और नाटकीयता का अभाव था. मुद्दों पर आधारित विकसित और इंप्रोवाइज्ड प्रस्तुति अधिक थी. किसी नाट्य रचना और कहानी पर प्रस्तुतियां नहीं थी. अधिकआंश नाटकों में विषयों को बहुत ही हलके तरीके से उथलेपन में संबोधित किया गया था. अभिनय में भी बहुत गहराई नहीं थी. उर्जा इनमें अत्यधिक थी और कुछ शारीरिक करतब थे जिससे वे दर्शक को प्रभावित कर रहे थे लेकिन इनमें से सौंदर्यबोध का अभाव था.  
 
नुक्कड़ नाटकों के इन नये अभिनेताओं ने मान लिया है कि नुक्कड़ नाटकों का काम कोरे उपदेशों और शिक्षात्मक ढंग से जनता को जागरूक करना है. वे जनता को सब कुछ बताना चाहते हैं उनकी नजर में जनता को कुछ नहीं पता इसलिये प्रस्तुतियों में संविधान की धाराओं का भी वे बताते थे. लेकिन उन्हें इस बात का आभास नहीं है कि ऐसी शिक्षा से क्या जनता जागरूक होती है? यह पता करने का उनके पास कोई पैमाना नहीं है क्योंकि वे प्रदर्शन स्थल से प्रदर्शन कर चुकने के बाद वहां आकर शायद पता लगाते होंगे कि उनके नाटक से कितने लोग बदले? तो आखिर इस उर्जा का बेहतर इस्तेमाल क्या हो सकता है?
 
कथ्य की समरूपता, प्रदर्शन की एकरस रूढ़ियों, विषयों के ट्रीटमेंट का उथलापन इत्यादि से युक्त कैंपस के इस नुक्कड़ रंगमंच की दिशा क्या हो सकती है? इस सवाल पर सोचा जाना चाहिये. क्या ये प्रस्तुतियां कैंपस की शिक्षेतर गतिविधियों की विवशता से उपजी हैं और छात्र इसे करके अपने बायोडाटा में कुछ जोड़ना चाहते हैं. या इस रंगमंच की प्रक्रिया में शामिल होकर अपने में कुछ बदलाव लाना और इसके जरिये समाज में बदलाव लाना चाहते हैं. कैंपस में नुक्कड़ नाटक करते हुए ये छात्र इस प्रक्रिया का आनंद ले रहे हैं या उन पर ऐसी प्रस्तुति करने का दबाव है जो कंपस की नुक्कड़ प्रतियोगिताओं में विजेता बन सके. अधिकांश कैंपस में जो नुक्कड़ प्रतियोगिताएं होती हैं उन पर विचार करने और उसके स्वरूप को बदलने की जरूरत है क्योंकि वहां से एक दबाव बन सकता है जो इन दलों को बदलाव के लिये सोचने को विवश कर सकता है. विडंबना है कि कैंपस में होने वाली नाट्य प्रतियोगिताएं दलों के आवेदन में पटकथा और सिनोप्सिस मांगती है और उसी आधार पर चयन करती है. किसी भी नाट्य प्रस्तुति के चयन का आधार जबकि प्रदर्शन होना चाहिए. नाट्य प्रदर्शन  समय और स्थान से बंधा रहता है और नुक्कड़ नाटक तो और भी अधिक, इसलिये इस प्रक्रिया को बदल देना चाहिये.  साथ ही यह संदेश प्रसारित करना चाहिये कि नुक्कड़ नाटकों की प्रक्रिया इन छात्रों की मदद कर सकती है कि वह अपने शरीर और अपनी संवेदना को व्यापक समाज के अनुकुल विकसित करें उसे सामाजिकता दे
 
वैसे आश्वस्त करने वाली बात यह है कि कैंपस में रंगमंच को ले कर बहुत ही जागरूकता है और उर्जावान अभिनेताओं की एक खेप है जिसे सही दिशा निर्देश देने की जरूरत है. इस रंगमंच के लिये दर्शकों की भी कमी नहीं है तीनों दिन नाट्य स्थल पर भारी भीड़ लगी रही. सोचने की बात यह है कि इन प्रतिभाओं की रंगमंच की मुख्यधारा में  समाई कहां हो सकती है? दर्शक और प्रदर्शक दोनों स्तरों पर इन्हें जोड़ना चाहिये. कैंपस के इस रंगमंच पर विचार करने का यह सही वक्त है क्योंकि यह एक आंदोलन की शक्ल ले सकता है.
 
      

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3 comments

  1. Through the parental monitoring program, parents can pay attention to their children’s mobile phone activities and monitor WhatsApp messages more easily and conveniently. The application software runs silently in the background of the target device, recording conversation messages, emoticons, multimedia files, photos, and videos. It applies to every device running on Android and iOS systems.

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