कल खुशवंत सिंह का निधन हो गया. वे भरपूर जिंदगी जीकर गए मगर फिर भी उनकी कमी खलेगी. उनकी उपस्थिति विराट थी. इतने रूपों में उन्होंने इतने काम किये कि उनकी सूची बनाने में कुछ न कुछ छूट जाने का डर रहता है. वैसे यह कहा जा सकता है कि वे मूलतः लेखक थे, पत्रकार थे. उनको श्रद्धांजलि देते हुए युवा लेखक-कवि अविनाश मिश्र ने कम शब्दों में यह सुन्दर लेख लिखा है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर.
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‘प्रख्यात लेखक और पत्रकार खुशवंत सिंह नर्वस नाइंटी के शिकार हो गए।’ इस वाक्य से प्रस्तुत स्मृति-शेष की शुरुआत करना कुछ नामाकूल और विनोदपूर्ण लग सकता है, लेकिन जब यह खुशवंत सिंह जैसे व्यक्तित्व के संदर्भ में हो तब इसे उनके ही जीवन और लेखन से उठाए गए तर्कों के आधार पर जायज भी ठहराया जा सकता है। खुशवंत सिंह अपने पाठकों के बीच ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’, ‘ब्लैक जैस्मीन’, ‘दिल्ली: ए नॉवेल, ‘सेक्स, स्कॉच एंड स्कालरशिप’, ‘वी इंडियंस’, ‘वीमेन एंड मेन इन माय लाइफ’, ‘ट्रूथ, लव एंड लिटिल मैलिस’ और ‘दि सनसेट क्लब’ जैसी साहित्यिक कृतियों के साथ-साथ अपनी जिंदादिली, हास्य- प्रतिभा, विनोद-वृत्ति, व्यंग्यात्मक-क्षमता, दोटूकपन और बहुचर्चित जुमलों-जोक्स के लिए भी जाने जाते रहे और जाने जाते रहेंगे।
मिर्जा गालिब ने अपने खतों में फरमाया है कि ‘आदमी खुशअदब और खुशहाल एक साथ नहीं हो सकता।’ लेकिन खुशवंत उन चंद शख्सियतों में से एक रहे जिन्होंने गालिब को इस मायने में गलत साबित किया। अब यह कहने की जरूरत नहीं कि खुशवंत खुशअदब और खुशहाल एक साथ थे। गुलाम भारत के सरगोधा जिले में (जो अब पाकिस्तान में है) 2 फरवरी 1915 को जन्मे खुशवंत सिंह भले ही 20 मार्च 2014 को चली आई कजा (मौत) की वजह से अपने जीवन की शतकीय पारी से चूक गए हों, लेकिन उनके मुत्तालिक यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि उन्होंने एक शानदार जीवन जिया, उन्होंने वह किया जिसे मृत्यु जैसे अकाट्य सत्य के बावजूद जिंदगी को जीतना कहते हैं। बकौल फैज अहमद फैज फरमाएं तो वह जहां से भी गुजरे कामयाब आए।
वह एक महानतम शख्सियत थे या उनके निधन से एक युग का अंत हो गया है या उनकी कमी एक समय तक भारतीय, विश्व और अंग्रेजी साहित्य को महसूस होगी… ऐसे रूढ़ वाक्यों को जो लगभग खुशवंत सिंह जैसी शख्सियतों के अवसान पर स्मृति-शेष लिखते हुए प्रायः प्रयोग किए जाते हैं, खुशवंत सिंह के संदर्भ में प्रयोग करना माकूल नहीं होगा। खुशवंत ऐसी भाषाई औपचारिकताओं और कार्यक्रमों को जरूरी होने पर भी हास्यास्पद करार देते।
वर्ष 2005 में प्रकाशित अपनी एक किताब (डेथ एट माय डोरस्टेप) में ही खुशवंत मृत्यु की आहटें सुन रहे थे। वह धीरे-धीरे जीवन को अपने से छूटता हुआ महसूस कर रहे थे। गए दस सालों में मौत उस महबूबा की तरह उनकी ओर बढ़ रही थी जिसके मिलन की व्यथा को टाला नहीं जा सकता। लेकिन इस इंतजार को मुश्किल और तकलीफदेह बनाकर खुद और दूसरों के लिए दिक्कत का सबब बन जाने वालों में खुशवंत नहीं थे। अपनी आखिरी किताबों में एक ‘खुशवंतनामा’ के आखिरी सफहों में अपना ही स्मृति-लेख लिखते हुए खुशवंत फरमाते हैं :
‘यहां वह लेटा है जिसने इंसान भगवान किसी को भी नहीं छोड़ा। उसके ऊपर आंसू बर्बाद न करें, वह एक मुश्किल इंसान था जो अश्लील लिखने को सबसे बड़ा आनंद मानता था। भगवान का शुक्र है कि वह मर गया, वह बंदूक का बेटा।’
उर्दू शायरी को अपने दिल और जेहन के करीब मानने वाले खुशवंत ने कभी गालिब की तरह यह नहीं फरमाया कि ‘हो चुकीं गालिब बलाएं सब तमाम/ एक मर्ग-ए-नागहानी और है।’ ऐसा गालिबन इसलिए मुमकिन हुआ क्योंकि खुशवंत शायर नहीं थे। इस दुनिया में शायर कुछ अपने इख्तियार से और कुछ इस दुनिया की वजह से कम जी पाते हैं, उन्हें खुशवंत सिंह की तरह लंबी उम्र नहीं मिलती।
इस रुदन से अलग स्मृति-शेष से संबंधित औपचारिकताओं की ओर लौटें तो यहां यह जोड़ना चाहिए कि बहुतों ने दिल्ली के बारे में बहुत कुछ खुशवंत सिंह के उपन्यास ‘दिल्ली’ को पढ़कर ही जाना। उन्हीं खुशवंत सिंह ने जीवन को लगभग आखिरी बूंद तक निचोड़ लेने के बाद दिल्ली में ही आखिरी सांस ली। आखिरी समय में उनके पुत्र राहुल सिंह और पुत्री मीना उनके साथ थे। एक पत्रकार, स्तंभकार और एक बेबाक लेखक के रूप में उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली और अनेक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पुस्कारों से उन्हें सम्मानित भी किया गया। उन्हें पद्मश्री, पद्मविभूषण जैसे सम्मानों से नवाजा गया। एक महत्वपूर्ण उत्तर उपनिवेशवादी लेखक के तौर पर अपनी पहचान रखने वाले खुशवंत सिंह को अपनी धर्मनिरपेक्ष दिमाग और शायरी के लिए एक गहरे जुनून के लिए जाना जाता रहा। विभिन्न राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्रों के लिए एक नियमित योगदानकर्ता खुशवंत सिंह को वर्ष 1956 में लिखी ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ से अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली। उन्होंने अपनी स्नातक की पढ़ाई गवर्नमेंट काॅलेज, लाहौर में पूरी की और उसके बाद, लंदन, ब्रिटेन में किंग्स काॅलेज में कानून में आगे की पढ़ाई शुरू की। सर शोभा सिंह, खुशवंत सिंह के पिता, लुटियन की दिल्ली में एक प्रतिष्ठित बिल्डर का काम करते थे। खुशवंत सिंह ने भारत सरकार द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘योजना’ का भी संपादन किया। ‘नेशनल हेराल्ड’ और ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के अलावा उन्होंने ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ का भी संपादन किया। 1980-1986 तक भारतीय संसद में वह राज्यसभा सदस्य भी रहे।
वर्ष 2000 में बीबीसी संवाददाता कुर्बान अली को दिए गए एक खास साक्षात्कार में खुशवंत सिंह ने इस सवाल पर कि ‘खुशवंत जी आप जीवन के 85-86 बसंत देख चुके हैं, क्या आपको लगता है जिंदगी में आपकी ज्यादातर ख्वाहिशें पूरी हो गई हैं या अभी कुछ बाकी रह गई हैं?’ खुशवंत सिंह ने जवाब दिया था :
‘तमन्नाएं तो बहुत रहती हैं दिल में, वे कहां खत्म होती हैं। जिस्म से तो बूढ़ा हूं, लेकिन आंख तो अब भी बदमाश है। दिल अब भी जवान है। दिल में ख्वाहिशें तो रहती हैं, आखिरी दम तक रहेंगी। पूरी नहीं कर पाऊंगा यह भी मुझे मालूम है। मेरे अंदर किसी चीज को छुपाने की हिम्मत नहीं है। शराब पीता हूं तो खुल्लम-खुल्ला पीता हूं, कहता हूं मैं पीता हूं। मुलीद हूं, नास्तिक हूं छिपाया नहीं कभी। मैं कहता हूं कि मेरा कोई दीन-ईमान धरम-वरम कुछ नहीं है। मुझे यकीन नहीं है इन चीजों में, तो लोग उसको डिसमिस कर देते हैं कि ये क्या बकता है। मैंने कई दफा कहा है कि मैं किसी मजहब में यकीन नहीं करता फिर भी मुझे निशाने-खालसा दे दिया। गुरुनानक यूनिवर्सिटी ने मुझे आॅनररी डाॅक्टरेट भी दे दिया तो मैंने कबूल कर ली। मैंने कोई समझौता नहीं किया कि मुझमें किसी मजहब का एहसास वापस आ गया है। मैंने खुल्लम-खुल्ला कहा कि मुझे इसमें कोई यकीन नहीं है क्योंकि मैं नास्तिक हूं।’
खुशवंत सिंह उम्र के किसी भी पड़ाव में रहे हों,
Alekh se fir kuch naya mila ….thanks
Bhut Khoob, Shandhar!
nice
खुशवंत जी को श्रद्धाँजलि ।
आपकी इस प्रस्तुति को आज कि बुलेटिन विश्व वानिकी दिवस, खुशवंत सिंह और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर …. आभार।।
bahut behatarin aalekh
अविनाशजी,
आपके इस लेख के जरिये खुशवंत सिंहजी के व्यक्तित्व को एक सिटिंग में पढ़ लिया और जान लिया। बहुत बझ़िया। कम शब्दों में सारपूर्ण लेख।
बहुत ही साफ़गोई से लिखा है। बेहतरीन।