Home / ब्लॉग / किस्सा पन्ना बाई और जगत ‘भ्रमर’ का!

किस्सा पन्ना बाई और जगत ‘भ्रमर’ का!

‘पाखी’ में मेरी एक कहानी आई है। मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान की गुमनाम गायिका पन्ना बाई से जुड़े किस्सों को लेकर। पिछले आठ साल से मैं चतुर्भुज स्थान की गायिकाओं, उस्तादों से जुड़े किस्सों के संकलन एक काम में लगा हुआ हूँ। यह किस्सा उस शृंखला की पहली कड़ी है। आप भी पढ़िये और राय दीजिये- प्रभात रंजन। 
=========================

गुमनाम कवि बदनाम गायिका
बाबू लक्ष्मेश्वर सिंह के बारे में जग-विख्यात था- बड़े कंजूस हैं.

थे नहीं थे पता नहीं, लेकिन बात फ़ैल गई थी. मिथिला राज के परिवार में इतना कंजूस कोई नहीं हुआ, मिथिला राज की जमींदारी में 8 गाँव के 81 जजमानों के पारिवारिक नाई की भूमिका निभाने वाले केवल ठाकुर ने कहा था. 81 जजमानों के परिवार में किसी का जनेऊ हो, बेटे के विवाह में मौर हिलाना हो, बेटी की शादी में धनबट्टी करनी हो केवल ठाकुर के परिवार के नाई को ही जिम्मेदारी निभानी पड़ती थी. सबकी मांग होती केवल ठाकुर खुद आयें तो सिल्क का सुनहरा कुरता और गोल्ड मोहर की असली पियरी धोती. बेचारे इस गाँव उस गाँव- पूरे जीवन कभी किसी सवारी का इस्तेमाल नहीं किया. पैदल ही चलते थे.

विजयादशमी के दिन मिथिला राज बरसों पुरानी परंपरा का निर्वहन करने. विजयादशमी के दिन हजामत बनाने पर बाबू लोग अच्छा ईनाम देते थे. वह दिन ईनाम-इकराम के नाम ही होता था बाबू लोगों के लिए. उस दिन उन्होंने खुद बाबू लक्ष्मेश्वर सिंह की हजामत बनाई थी. मिला क्या- दो रुपये. अब इसके लिए वे इतनी सुबह ढाई कोस पैदल चलकर तो नहीं ही गए थे. बस उस दिन एक बाद से जब भी कहीं से उनको ईनाम-इकराम कम मिलता बस वे उसकी तुलना बाबू लक्ष्मेश्वर सिंह की कंजूसी से कर देते.

केवल ठाकुर ने जैसे बाबू लक्ष्मेश्वर सिंह को कंजूसी के उदहारण में बदल दिया. जिसका कभी उनसे कोई वास्ता भी नहीं पड़ा था वे भी लक्ष्मेश्वर सिंह का नाम आते ही कहते- वही जो बड़ा कंजूस है.
केवल की इस आदत से सब घबड़ाते थे, लेकिन केवल ठाकुर को नेवता पेहानी में भेजना उनकी मजबूरी भी रहती थी. केवल ठाकुर जब पियरी धोती-कलफदार कुर्ता के ऊपर गाँधी टोपी झाड़कर पैर में बाटा का जलसा जूता चरमराते हुए किसी बाबूसाहब के दरवाजे पर पहुँचते थे तो वहां लोगों को यह समझने में थोडा वक्त लग जाता था कि वे और कोई नहीं फलां गोतिया के खानदानी नाई हैं, कोई नेता-समाजसेवी नहीं. जमींदारों-बाबू साहबों की जमीन-जायदाद की उतराई के दौर में वे उनकी बची-खुची इज्जत की तरह थे. जो ऐसे मौकों पर झूठी शान को बनाए रखने के काम आ जाते.  

लेकिन कब किसकी इज्जत उतार दें. बनमनखी गाँव के चौधरी जी की बेटी की शादी चंपारण के अरेराज में तय हुई थी. तिलक-फलदान में गए. धनबट्टी के लिए रुक गए. सब कुछ ठीक रहा. धान भी बंट गया, खान-पान भी बढ़िया रहा. लेकिन लड़के वालों ने गोल्डमोहर धोती न दी. बस, गाँव आकर चौधराइन से बोले- पुरखे कोई बुड़बक थोड़े थे जो पछिमाहा से बियाह नहीं करने की बात करते थे. एकदम मोटा चाल है. कहाँ मिथिला का महीन खान-पान कहाँ चंपारण के पछिमाहा. चौधराइन ने जल्दी से उनको गोल्डमोहर की धोती देकर चुप कराने की कोशिश की. लेकिन केवल ठाकुर के पेट में कोई बात पची हो जो यह पचती.

बाबू लक्ष्मेश्वर सिंह बड़े कंजूस थे- यह वाक्य बाबू साहब के नाम के साथ ऐसे चिपक गया था कि अपने जीवन में उन्होंने जो कुछ भी किया उसक साथ यह वाक्य चिपक गया.

मशहूर है पन्ना बाई को उन्होंने सोने का कमरबंद दिया. हल्ला हो गया कि पन्ना के गाये गीत ‘जियरा जरत है मन तरसत है/ चढल सावन घर आ जा पिया’ सुनकर कमरबंद का ईनाम दे दिया.  लेकिन कंजूसी वाला दाग तब भी नहीं धुला. कहने वाले कहते कि आखिर बाबू साहब ने अपनी कंजूसी दिखा ही दी. ईनाम भी दिया तो नाप-तौल के. पन्ना की कमर सबसे पतली है इसीलिए कमरबंद दिया.

ऐसे ही किस्से-कहानियों ने पन्ना को जीते-जी मिथक में बदल दिया था. बदनाम मोहल्ले की गुमनाम गायिका सैकड़ों जमींदारों-नवाबों की इज्जत का पैमाना बन गई.

‘इतना वक्त भी नहीं हुआ लेकिन लगता है जैसे अरसा गुजर गया’, एक जमाने की याद की तरह बच गए उस्ताद गौहर खान के किस्सों में एक किस्सा पन्ना का है. पन्ना जो मुगन्निया थी. यानि सिर्फ गाना गाने वाली. शुक्ल रोड के चौराहे से निकलने वाले चार रास्तों की सात गलियों में एक गली उसकी थी. हवेली उसके कोने पर शान से खड़ी थी. अब भी है. वक्त के धूल की दोशाला ओढ़े.
क्या शान थी. हवेली के दरवाजे पर हाथी आकर बैठे, उड़न्ता घोड़े आकर ठहरे, चमकती-दमकती शम्फनी आकर रुकी, उस जमाने में जब आसपास मिलाकर 50 से अधिक मोटरकारें नहीं थी, मौरिस से लेकर हिन्दुस्तानगाड़ियों के मॉडल वहां दिख जाते थे. तब की बात है जब गाड़ियों के आने-जाने से गाँव-शहर वाले जान जाते थे कि कौन कहाँ से आ रहा है, कौन कहाँ जा रहा है.

सीतामढ़ी के सिनेमा हॉल वाले सेठ की गाड़ी नौ बजे के आसपास शहर के मेन रोड में घुसती और वहां रहने वाले, दूकान का शटर उठा रहे, सारे यह समझ जाते सेठ जी गाना सुनकर लौट रहे हैं- पन्ना बाई का. वही मुज़फ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान वाली. सब जानते थे. रात में आठ बजे के आसपास गाड़ी शहर से बाहर की तरफ निकलती और सब समझ जाते एम्बेसेडर है सिनेमा हॉल वाले सेठ की. शहर में तब गाड़ियाँ थी ही कितनी. आँख-नाक कान-गला विशेषज्ञ की गाड़ी इतवार के दिन सुबह-सुबह निकलती. सुबह-सुबह वे जनकपुर पहुंचकर माँ जानकी के मंदिर में पूजा करते थे. घूम-फिरकर शाम को वापसी.

हर गाड़ी का अपना-अपना रुटीन बंधा हुआ था. पन्ना बाई के यहाँ आने वाली गाड़ियों का रूटीन भी बंधा हुआ था- आने का और जाने का.

मिर्जापुर, लखनऊ, बनारस- कहीं ईनाम मिला और कहीं कीमत भी नहीं! न नाम न पहचान. बनारस में विद्याधरी बाई ने सुझाव दिया कि उसकी आवाज में एक तरह का सोंधापन है जिसकी वजह से गंगा इस पार के गुणग्राहक उसकी आवाज को ख़ास पसंद नहीं करने वाले. इधर के बाबू लोग या तो शोख चंचल आवाज के धुनी हैं या एकदम खनकती आवाज, खुले गले से गाई गई. यह आवाज गंगा पार की बोलियों के अधिक करीब है. इधर के लोग ठुमरी, दादरा, चैती-कजरी वाले हैं, उधर ग़ज़ल की सौगात लेकर जाओ. बज्जिका, मैथिली बोलने वालों को तुम्हारी आवाज का सोंधापन खूब भायेगा.

पन्ना ने उसकी सलाह को सर-माथे लिया।

उन दिनों गंगा पार का मतलब होता था चतुर्भुज स्थान मुजफ्फरपुर। आने जाने के लिए यातायात के साधन के रूप में जैसे जैसे पानी के जहाज की जगह रेल लेता गया गंगा किनारे बसे शहरों-कस्बों का रंग उन शहरों पर भी चढ़ने लगा को बड़े-बड़े रेलवे स्टेशन बने। बाजार बना, शहर बना, जगर-मगर बढ़ा। आसपास के जमींदारों ने यहाँ अपने लिए डेरे बनवाने शुरू किये। घर यानी अपने गाँव का मकान और डेरा शहर में जहाँ आये सौदा-सुलुफ किया, रमन-चमन किया, सिनेमा देखा, होटल में खाया और दो-चार दिन में लौट गए। चतुर्भुज स्थान उनका ठिकाना था। शास्त्रीय संगीत की शुद्धता का ज़माना बीत रहा था।

वह ज़माना जब वहां के रसिकों की दाद पाने के लिए देश के बड़े बड़े गायक, अलग-अलग वाद्य यंत्रों के बजाने वाले उस्ताद यहाँ आते, रसिकों की दाद-इमदाद पाते और खुद को बड़भागी मानते। चतुर्भुज स्थान मंदिर के संगीत उत्सवों में तब किसने भाग नहीं लिया? जिसने नहीं लिया वह मन मसोसता, उनकी गौरव गाथा में एक पन्ना कम रह गया हो जैसे। राग-रागिनियों की रात-रात भर चलने वाली महफ़िलें कम होती जा रही थी। जहाँ कई बार इस बात को लेकर मारपीट से लेकर गोलीबाजी तक की नौबत आ जाती थी कि गलत जगह पर दाद देकर संगीत के आनंद में खलल क्यों डाला।

अब तो गीत-ग़ज़ल का दौर शुरू हो रहा था. टी सीरिज के जय माता दी मार्का 15 रुपये के कैसेट और संतोष के टेप रिकॉर्डरों ने अस्सी के दशक में गजलों को जैसे जन जन तक पहुंचा दिया. गुलाम अली, जगजीत सिंह, मेहदी हसन, पंकज उधास, अनूप जलोटा की आवाज में टी सीरिज द्वारा घर घर लोकप्रिय बनाए जाने से बहुत पहले मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान में पन्ना के गाये गजलों की धूम मच रही थी. वे दाग, मोमिन, जज्बी, खुमार की लिखी किताबी ग़ज़लें नहीं थी. पन्ना की आवाज ने उस जमाने में एक लगभग गुमनाम स्थानीय शायर जगत ‘भ्रमर’ के गीतों-गजलों को सभा-सोसाइटियों की जान बना दिया. अब तो न जगत ‘भ्रमर’ है, न पन्ना की आवाज है. होने को तो अब ग़ज़ल भी नहीं रहा.

कुछ भी नहीं रहा अब वैसा. पन्ना के जाने के बाद क्या बचा? चतुर्भुज स्थान में जो बचे रह गए उनको अक्सर इस सवाल से गुजरना पड़ता था.

सब कुछ बदल रहा था. शम्फनी, टायर गाड़ी, हाथी से चलकर आने वाले जमींदारों की जगह मोटर से आने वाले ले रहे थे. पहले कई कई दिनों में चलकर बाबू साहब लोग आते थे अब तो दो-चार घंटे में चलकर आते. आनंद उठाते और सुबह मोटर गाड़ी से फुर्र…

पन्ना मुजफ्फरपुर पहुंची. चन्द्रकला बाई के पास. विद्याधरी की पुरानी संगी. वहीँ उसने पहली बार जगत ‘भ्रमर’ के गजलों को आवाज दी-

‘तुम चाह करो, हम चाह करें/
क्यों रार करें क्यों आह भरें
जब इश्क है बेचैनी का सबब
क्यों मिल जाएँ आराम धरें
तुम मिल जाओ तुम खो जाओ
क्यों सोचें जी हलकान करें
ऐ राजाजी तुम राज करो
हम परबत दरिया धाम करें
तुम चाह करो हम चाह करें…

जगत ‘भ्रमर’ का नाम यहाँ आया तो इससे ध्यान आया कि उसकी कहानी का कोई कहनहार नहीं रहा. न तो उनकी गजलों, गीतों की कोई किताब ही साया हुई कि चतुर्भुज स्थान के बाहर के शौकीनों तक उनकी ग़ज़लें पहुँचती, उनकी धूम मचती. कहा जाता है कि आजादी के बाद के दो दहाई दशकों तक चतुर्भुज स्थान के इस गुमनाम शायर के गजलों की धूम थी. नेपाल के सीमावर्ती शहर पुपरी रोड का जगत शाही कब जगत ‘भ्रमर’ हो गया इसके बारे में ठीक ठीक बताने वाला अब शायद ही कोई बचा हो, बल्कि उनके बारे में तो उनके गोतिया-दयाद भी कुछ खास नहीं बता पाते अब. क्या पता वे वहां के थे भी या नहीं.

‘जिसका वंश नहीं चलता उसका अंस नहीं रहता’- गौहर मियां ने उनके बारे में कहते कहते इतना और कह दिया था. कहते हैं स्कूल के दिनों से एक शायर की संगत में उठने बैठने वाले जगत शाही कच्ची उम्र से ही छंद-बंद कहने लगे थे. दूर की कौड़ी के रूप में एक प्रमाण किसी सहृदय ने दिया. बात उन दिनों की है जब राष्ट्रकवि के रूप में प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर सीतामढ़ी में सब-रजिस्ट्रार बनकर आये थे. उन दिनों जिले में इंटर पास बाबू लोगों ने एक साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था सी बना रखगी थी, कभी-कभार जिसकी संध्या गोष्ठी हो जाया करती थी. कुछ छंद-बंद सुनने-सुनाने का दौर चलता, खान-पान…

जानता हूँ सबसे पहले आपको इस बात का खटका लगेगा कि इंटर पास ही क्यों? तो साहब इसके पीछे बड़ा सीधा सा कारण था कि आसपास कहीं भी इंटर से अधिक पढ़ाई की कोई सुविधा नहीं थी. सबसे ऊंची शिक्षा तब सीतामढ़ी में इंटर की ही मानी जाती थी. सो भी गिने चुने ही थे. तो उन लोगों की संस्था का नाम था ‘सुलेखक संघ’. उसकी अन्य गतिविधियों के बारे में तो ख़ास कुछ पता नहीं लेकिन सीतामढ़ी के ‘सनातन धर्म पुस्तकालय’ में आज भी एक पुस्तक मौजूद है- रामधारी सिंह दिनकर अभिनन्दन ग्रन्थ, जिसके प्रकाशक के रूप में सुलेखक संघ का नाम दर्ज है.

सुलेखक संघ के इस अभिनन्दन ग्रन्थ का जगत शाही से क्या सम्बन्ध? अरे, उसी सम्बन्ध के कारण तो यह सारा प्रकरण आया है यहाँ. अभिनन्दन ग्रन्थ के मुखपृष्ठ पर एक कविता उद्धृत है. पिछले साल जब वहां गया था मैं खुद अपने मोबाइल के कैमरे में उसके मुखपृष्ठ की तस्वीर को कैद कर लाया था. उसी तस्वीर को देखकर उससे यह कविता यहाँ लिख रहा हूँ-

कविवर बनकर दिनकर आया
एक रजिस्ट्रार की सूरत में/
श्रीकान्ति शान्ति मस्ती मुस्की का
पंचामृत ले मूरत में…

कवि के रूप में नाम दर्ज है- जगत. गौहर खान का तो यह कहना था कि जगत ‘भ्रमर’ ने आरम्भ में जगत के नाम से हिंदी में कवितायेँ भी लिखी थी, जो कुछ पत्र-पत्रिकाओं में छपी भी. दिनकर अभिनन्दन ग्रन्थ भी उनमें से एक थी. खैर, इस बात की मैंने न किसी से ताकीद की न ही कोई उनके बारे में कुछ बता सकता था शायद. हिंदी-उर्दू दो भाषाओं में समान रूप से लिखने वाले जगत ‘भ्रमर’ के बारे में केवल इतना ही पता चल पाया कि वे खाते-पीते खुशहाल किसान परिवार के थे. लेकिन न घर में बंध कर रहे न अपना घर बसाया. क्या किया क्या नहीं… कुछ पता नहीं चलता… बहरहाल, उनके होने का एकमात्र लिखित प्रमाण यही है- दिनकर अभिनंदन ग्रंथ।

‘बुलाकीपुर के जमींदार सिरमौर सिंह की तरह अगर अपने पैसे से अपने कलम प्रकाशन से किताबें छापी होती तो सिरमौर ‘तृषित’ की तरह हिंदी साहित्य के इतिहास में ‘गीतों के मखमली बयार’ के रूप में अमर हो गए होते- . लेकिन नहीं.. जो लिखा भी वह अपने नाम से कहाँ लिखा- भ्रमर…’ गौहर खान के पास किस्से ही किस्से हैं, क्या सच है क्या झूठ- क्या पता!

‘सच-झूठ होता क्या है? अपना-अपना नजरिया है’- मुझे अपना वह दोस्त याद आ गया रजनीश, ओशो बुलाते थे हम उसे. पता नहीं कॉलेज के बाद कहाँ गया? ‘सच असल में जानते हो, कुछ होता नहीं है. जो हमें अच्छा लगता है उसे हम सच मान लेते हैं. एक समय ऐसा आता है जब वह सबसे बड़ा सच एक बहुत बड़े झूठ में बदल जाता है. सच

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम

आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …

7 comments

  1. सूचनात्मक , तथ्यात्मक जानकारी .

  2. घर बाहर परिवार में सुनी बातो और चर्चाओं की भी अपनी स्मृतिया होती है .बहुत रोचक और गंभीरता से आपने उस समय को जीवंत किया है ,कल्पनाशीलता के साथ .पुस्तक का इंतजार रहेगा .

  3. पन्ना और भ्रमर की कथा बहुत रोचक है..इस कथा के बहाने आपने उस समय को जीवंत कर दिया है.अपने जीवन काल में मिथक बन जानेवाले चरित्र अब कहां है /.न इश्क में रही गर्मियां . न हुश्न में रही वो शोखियां /न गजनवी में वो तड़्फ रही न वो खम है जुल्फ ए एजाज में ..। यह बाजार समय है. लेकिन हमें वो दिन जरूर याद आयेगे..जब लोग के पास जूनून था .एक दूसरे पर मर मिटने का जज्बा था..किताब आये तो पूरी दास्तान पढने को मिले.

  4. ये किस्सागोई शिवप्रसाद मिश्र रुद्र की "एही ठैयां झुलनी हेरानी हो रामा" याद दिलाती है! अतीत के पीले पड़े, भूले बिसरे पन्नों से निकले चतुर्भुज स्थान के वैभव, पन्ना बाई की प्रसिद्धि और उसमें जगत 'भ्रमर' का योगदान, इस सब पर विस्तार से पढ़कर अच्छा लगा! समझ सकती हूँ कि यह शोध कितना श्रमसाध्य रहा होगा, हालांकि इसके नतीजों को लेकर आश्वस्ति का भाव भी जागता है! मैं कब से इस किताब की प्रतीक्षा में हूँ, पहली कड़ी ने उत्कंठा को बढ़ा दिया है! प्रभात जी के संकलन 'बोलेरो क्लास' में एक कहानी 'दूसरा जीवन' से ही चतुर्भुज स्थान और शास्त्रीय गायिकाओं का जो चित्र खिंचा था, उसके रंग और भी पक्के हो गए, अब प्रतीक्षा है उस तस्वीर के पूरी होने की , मेरी अनंत शुभकामनायें ………..

  5. बहुत अच्छी कहानी नहीं , किस्सा ।खट्टे आंवले के मीठे स्वाद सी ।

  6. बहुत बहुत पसंद आया पहला हिस्सा.

  7. प्रभात जी की इस महत्वपूर्ण पुस्तक के कुछ विस्तृत अंश पहले भी पढ़े है. अब इस शानदार पुस्तक का इंतजार है, जिसमे एक बार फिर वे गलियां जीवित हो गयी हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *