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शैलेश मटियानी का पहला इंटरव्यू

हिंदी में बेहतरीन प्रतिभाओं की उपेक्षा कितनी होती है शैलेश मटियानी इसके उदहारण हैं. 24 अप्रैल को उनकी पुण्यतिथि थी. इस अवसर पर 1993 के दीवाली विशेषांक में प्रकाशित उनका यह साक्षात्कार जिसे लिया जावेद इकबाल ने था. इस बातचीत में वे यह कहते हैं कि 42 वर्षों के लेखन के बावजूद उनकी एक भी भेंटवार्ता प्रकाशित नहीं हुई. इसे ढूंढने और हमारे-आपके लिए प्रस्तुत करने का बीहड़ काम किया है युवा शोधार्थी राकेश मिश्र ने- जानकी पुल. 
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‘सवाल सिर्फ आप ही नहीं करेंगें, सवाल मैं भी करूंगा’. हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार शैलेश मटियानी से भेंटवार्ता के लिए जाने पर उनसे पहला संवाद यही हुआ. अपने ठोस तर्कों के साथ अक्सर मुद्दों पर असहमति के पर्याय शैलेश मटियानी भेंटवार्ता की परम्परागत शैली से भी सहमत नहीं थे.मगर, बहुत ज़ल्द अंतंरंग बन जाना उनकी खासियत है. इसीसे काम लेकर तकल्लुफ की अदृश्य दीवार मिटाते हुए उन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व को आकार देते अनुभव सुनाये. यादों की रहगुज़र में बार-बार जाते रहें और अक्सर तल्ख़ यादों और संस्मरणों के साथ लौटकर उन्हें स्वर देते रहे. रचनाओं का विवरण पूछने पर वह इनकी संख्या बताने के लिए याददाश्त को कुरेदने लगे. उनकी बेटी ने याद दिलाया की उन्होंने सत्रह-अठारह उपन्यास लिखे हैं. कहानियों की संख्या लगभग 200 है. लेख और कालमों की संख्या भी अच्छी खासी है. यह बताते हुए उनके चेहरे पर एक लम्हे के लिए नज़रअंदाज़ किये जाने का दर्द कोंधा की 42 वर्षों के लेखन के बावजूद अब तक उनकी एक भी भेंटवार्ता प्रकाशित नहीं हुई. मगर दूसरे ही लम्हे स्वाभिमान का रंग छा गया—‘दरअसल सब पहले से तय होता गया. अपनी शर्तों पर लेखन किया. साफगोई और बेबाकी से ज़रा भी परहेज नहीं किया और इसका खामियाजा भुगतने के लिए तैयार रहा’.
 
जिन्होंने शैलेश मटियानी को यह खामियाजा भुगतवाया उनमें हिन्दी साहित्य की ‘आदरणीय’ और बुजुर्ग हस्तियां भी शामिल हैं. बातचीत बार-बार करवट बदलकर इस मुद्दे पर लौटती रही और हर बार श्री मटियानी अपनी ‘साहितिय्क मुठभेड़ों’ से जुड़ा कोई लहू-लुहान संस्मरण सुनाते रहे. शैलेश मटियानी से लम्बी बातचीत के प्रमुख अंश पेश हैं—
 
प्र. लगातार मशीनी होती जा रही जिंदिगी और फुर्सत के समय के घटते जाने के तर्क के सहारे उपन्यास विधा पर खतरा बताया जा रहा है. आप ऐसा कोई खतरा महसूस करते हैं?
उ. उपन्यास की संभावनावों या भविष्य के प्रति जो आशंका प्रकट की जा रही है, मान लीजिये पाठकों के स्तर पर इसे सच भी मान लिया जाये, लेकिन इसे उपन्यासकारों के स्तर पर सच कैसे माना जाए? वैसे भी साहित्य की संभावनाए इकतरफा नहीं हुया करती. भविष्य में यह भी बिलकुल समभ्व है की उपन्यास एसे लिखे जाये जो इस आशंका को निर्मूल साबित कर दें. लिखने वालों के पास पढने वालों पर अटूट विश्वास के अलावा और कोई रास्ता नहीं हैं. इसलिए मैं नहीं समझता की इस आशंका से लेखक के लिए कोई ख़ास फर्क पड़ सकता है.
 
प्र.आजकल उपभोक्तावाद को बहुत बढ़ावा दिया रहा है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का इसमें खूब इस्तमाल किया जा रहा है. उपभोक्तावाद को थोपने की इस कोशिश के बारे में आपके क्या विचार हैं?
उ.वस्तुओं के बारे में एक बात तो साफ तैर पर समझ लेना चाहिए की उन्हें कभी भी निर्णायक तैर पर आदमी से उपर नहीं लाया जा सकता, क्योंकि वस्तुए बहरहाल आदमी के बाद की है. वस्तुओं को आदमी से ऊपर लाने की कोशिश आदमी के विरुद्ध षड्यंत्र करना है. आदमी ही नहीं, बल्कि वस्तुओं के विरुद्ध भी, क्योंकि आदमी से उपर आते ही वस्तु की सुन्दरता नष्ट हो जाती है. पूंजीवाद के विरुद्ध मार्क्सवाद के असफल होने का एक बुनियादी कारण यह भी है की एक तरह के वस्तुवाद का निराकरण दूसरी तरह के वस्तुवाद से नहीं किया जा सकता. मैं इस बात को काफी पहले लिख चुका हूँ कि मार्क्सवाद अपने वस्तुवाद में पूंजीवाद के बाद की चीज है. मार्क्स का भैतिक संसाधनों का सिध्धांत कुल मिलाकर वस्तुवाद के पक्ष में ही जाता है. मार्क्स का यह कहना की मनुष्य की चेतना उसकी सामाजिक स्थितियों का निर्धारण नहीं करती बल्कि सामाजिक स्थितियां मनुष्य की चेतना का निर्धारण करती है, मूलतः वस्तुवाद का ही तर्क है. और यह तर्क हमेशा उन लोगों के पक्ष में ही जाएगा जो वस्तु को आदमी के विरुद्ध इस्तमाल करना चाहते है. इसमें कोई शक नहीं की उपभोक्तावाद ने मनुष्य की नैतिक सत्ता का विध्वंश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन आदमी आखिर आदिम है. वह अपने विरुद्ध होने वाले षड्यंत्त्रों को तोड़ने का संघर्ष तो हमेशा करता आया है. इतिहास भी इस बात का गवाह है. इसलिए उपभोक्तावाद से डरकर उसको मनुष्य की नियति मान लेना ज़रूरी नहीं.
 
प्र.इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रसंग में साहित्य और कला की विधावों का स्वरूप बदलने का अंदेशा जाहिर किया जा रहा है. कुछ लोग इसकी वकालत भी कर रहे हैं. आप इस बदलाव के पक्ष में हैं या विरोध में?
उ. यांत्रिकता आदमी का विकल्प नहीं हो सकती. इसलिए यह मान लेने का कोई कारण कम-से-कम मैं नहीं देखता की साहित्य या अन्य कला माध्यमों को अपरिहार्य रूप से इलेक्ट्रॉनिक  मीडिया के अनुरूप होना पड़ेगा. बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा की अगर इस मीडिया को  कला माध्यमों की प्रक्रति के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता रहा तो इससे खुद मीडिया की गुणवता नष्ट हो जाएगी. कला माध्यमों को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अनुरूप होना ही पड़ेगा और एसा नहीं होने पर इनका भविष्य नष्ट हो जाएगा, यह कुतर्क प्राय: उन लेखकों-कलाकारों के तरफ से प्रस्तुत किया जाता है, जिनमें समाज में लेखक की हैसियत से खडें होने की क्षमता नहीं है और जो इस मीडिया के अनुरूप लिखकर या रचकर सुविधाएँ प्राप्त करने के आदि हो चुके है. उनमें यह विवेक ही नहीं की यह मीडिया कला माधयमों के बुनियादी प्रकृति का निर्धारण नहीं कर सकता. मीडिया के साथ और मीडिया की शर्तों पर खुद की प्रतिभा का विनिमय करने वाले लोगों की बातों का साहित्य के सन्दर्भ में कोई महत्व नहीं हुआ करता. साहित्य रचना का क्षेत्र, आदमी के जीवन का क्षेत्र है, मीडिया का नहीं. इस दृष्टि से देखें की खुद मीडिया के लिए यह बात कसौटी हो सकती है की उसमें मनुष्य को उसकी चेतना समेत प्रस्तुत कर सकने की क्षमता है या नहीं.
 
प्र.आप लम्बे अरसे तक एक लघु पत्रिका विकल्प भी निकालते रहे हैं.साहित्य के क्षेत्र में लघु पत्रिकाओं का मूल्यांकन आप किस तरह करते हैं?
उ.इसमें कोई संदेह नहीं की साहित्य के क्षेत्र में लघु पत्रिकाओं का महत्त्व बहुत बड़ा है और वर्तमान स्थितियों में यह और अधिक ज़रूरी हो गयी है. हिंदी की साहित्यक पत्रकारिता के क्षेत्र में व्यावसायिक घरानों से प्रकाशित होनी वाली सहितिय्क पत्रिकाओं का सिलसिला अब लगभग समाप्त होने को है. एसे में जिसे वातावरण को बनाये रखने की ज़िम्मेदारी कहा जता है, उसका बोझ लघु पत्रिकाओं पर पहले से ज़्यादा आ गया है. हालांकि निहित स्वार्थों के लिए पत्रिका के इस्तमाल का संकट यहाँ भी मोजूद है. साहित्य के मामले में  व्यावसायिक पत्रिकाओं की सीमाएं अब पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी है. साहित्य व्यावसायिक पत्रिकाओं का अपरिहार्य हिस्सा अब कतई नहीं रह गया है.
 
प्र.आज़ादी के बाद हिंदी कहानी में कई आन्दोलन चले. हिंदी कहानी के विकास में इन आन्दोलनों की क्या भूमिका रही?
उ.हिंदी कहानी आन्दोलनों का जहांतक सम्बन्ध है, वह नई कहानी का आन्दोलन हो, या इसकी नकल में सचेतन कहानी, अकहानी, सहज कहानी या समांतर कहानी के आन्दोलन, इन सभी के पीछे नेतृत्त्व-लोलुपता की भूमिका प्रमुख रही. लेकिन स्थिति यह है की नई कहानी क्या है, या की नई कहानी से आशय क्या है—यह न कमलेश्वर या राजेन्द्र यादव बता सकते हैं और ना ही डॉ नामवर सिंह. नई कहानी पर न जाने कितने शोध ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं लेकिन न कोई शोध छात्र नई कहानी का मतलब जनता है, न शोध कराने वाला निर्देशक. स्पष्ट है की नई कहानी का आन्दोलन एक पाखंड के सिवा कुछ नहीं है. पाखंड का मतलब ब्रह्मा भी नहीं बता सकते. नई कहानी के आन्दोलन को चलने का श्रेय डॉ. नामवर सिंह को दिया जाता है. लेकिन वे कौन से आधार होंगे जिनसे किसी कहानी के ‘नई कहानी’ होने या नहीं होने की पहचान तय हो सकेगी. इस बात का कोई उत्तर नामवरजी के पास नहीं है. फिर भी नई कहानी का झूठ इतने बड़े पैमाने पर चला और एक तरह से स्थपित भी हो गया तो इसलिए की जो लोग मैजूदा व्यवस्था को चला रहे हैं, वे इस बात को अच्छी तरह जानते है की अगर झूठ को साहित्य में भी नहीं चलाया गया तो राजनीति में भी ज्यादा लम्बे समय तक नहीं चलाया जा सकता. यही कारण है की यह व्यवस्था झूठ को सच साबित करने में अपनी प्रतिष्ठा खपाने वाले लेखकों को ज्यादा महत्व देती है. जहां तक कहानी के स्वरुप का प्रश्न है, वह आन्दोलनों से आगे नहीं बढ़ता. हर विधा में सिर्फ वे लोग ही कोई परिवर्तनकारी भूमिका निभा पाते हैं जिनमें झूठ के विरोध में बोल सकने की क्षमता है.कहानी का क्षेत्र भी इसी नियम से बंधा है. अगर कहानी में मनुष्य के जीवन की सच्चाईयों को न छुआ जाए तो उसे  आन्दोलन के बूते पर श्रेष्ठ नहीं सिद्ध किया जा सकता. हर आन्दोलन में मुख्यतः दो तरह के लेखक शामिल होते हैं. एक वे जो आन्दोलन को आपने पक्ष में भुनाना चाहते है और दुसरे वे जिनमें बिना सहारा लिए खड़ा हो सकने की क्षमता नहीं होती.
 
प्र.कहा जाता है की सोवियत संघ के टूटने के बाद मार्क्सवाद का अंत हो गया, समता का दर्शन समाप्त हो गया. आप इससे सहमत हैं?
उ. सोवियत संघ में मार्क्सवादके विफल होने का यह आशय बिलकुल नहीं लिया जा सकता की आन्याय, शोषण और उत्पीडन के विरुद्ध मनुष्य का संघर्ष असफल हो गया है. जैसा की मैं पहले ही कह चुका हूँ, षड्यंत्रों के विरुद्ध मनुष्य के संघर्ष का अंत असंभव है. जहां तक मार्क्सवाद की विचारधारा के बराबरी का दर्शन होने का सवाल है, स्वाधीनता के बिना बराबरी असंभव है.  मार्क्सवाद के विफल होने का एकमात्र कारण उसमें स्वाधीनता के अपहरण को सिध्धांत की शक्ल दिया जाना है. दुनिया का कोई भी सिधान्त स्वाधीनता से बड़ा नहीं हो सकता.
 
प्र. नई पीढ़ी के कथाकारों का मूल्यांकन आप इस प्रकार करते हैं और इस पीढ़ी के संकट को किस रूप में देखते हैं?
उ. नई पीढ़ी का संकट और भी ज्यादा गहरा है. इसलिए नहीं की परिस्थितियों का दबाव पहले से ज्यादा बढ़ गया है बल्कि बड़ा संकट यह है की परिस्थितियों के बीच खड़ा रहने की तैयारी कम दिखाई पड़ती है.
 
साभार:-
जनसत्ता [दीपावली विशेषांक,1993], प्रधान संपादक:प्रभाष जोशी, स्थानीय सम्पादक: श्याम सुंदर आचार्य, पेज न. 111-112.
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प्रस्तुति: राकेश कुमार मिश्रा
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14 comments

  1. padhne or sangrah karne yogy aalekh…

  2. tamam logo kaa shukriyaa……besak, bhavishay me ye mujhe nayi taakat degaa…….

  3. मैंने उनकी कुछ आंचलिक कहानियाँ पढीं हैं । किसी लेखक की श्रेष्ठता समझने के लिये उसकी दो-चार रचनाएं भी पर्याप्त होतीं हैं । शैलेश जी की कहानियाँ अद्भुत हैं । लेकिन उनकी कोई कृति मेरी जानकारी में किसी पाठ्यक्रम में नही रही । यह एक महान लेखक के प्रति निश्चित ही अन्याय है । इलैक्ट्रौनिक मीडिया और साहित्य विषयक जो विचार शैलेश जी के हैं ,स्थिति उसके विपरीत है और यह साहित्य का उत्थान तो नही है ।

  4. मैंने शैलेश मटियानिजी की बहुत यादगार कहानियाँ पढ़ीं किन्तु उन्हे हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकायों मे बहुत कम स्थान मिलता था । अधिकांश कहानियाँ बेहतरीन थी।

  5. पठनीय और संग्रहणीय लेख है ।

  6. सुंदर प्रस्तुति ।

  7. The real life examples you provided make the content so more relatable.
    Thanks!

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