‘ग्लोबल गाँव का देवता’ उपन्यास लिखकर चर्चा में आये रणेन्द्र का नया उपन्यास आ रहा है ‘गायब होता देश’, उपन्यास इसी महीने पेंगुइन से प्रकाशित हो रहा है. इस उपन्यास की पहली झलक पेश कर रहे हैं रत्नेश विश्वकसेन– जानकी पुल.
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जिस दौर में हम जी रहे है दरअसल हमारी प्राथमिकताओं के फिसल जाने और हाथ से छूट जाने का दौर है। हमारे चाहने और जीने की बीच का अंतराल लगातार बढ़ रहा है। कथित ‘भारत निर्माण’ के क्रम में भी हमारी बैचेनियाँ खत्म नहीं हो रहीं।
रणेन्द्र इस समय और बदस्तूर जारी बेचैनियों के सूक्ष्म पर्यवेक्षक हैं। अपनी नयी कथा सृष्टि – ‘गायब होता देश’ में वह ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ के रचना संघर्ष और जीवन-संवेदन को विस्तार देते नजर आते हैं।
भू-माफियाओं की गिद्ध दृष्टि में हर संवेदना, संस्कृति, आस्था, जीवनमूल्य भक्ष्य है। जिसे मौका मिलते ही भकोस जाना है। कंक्रीट के जंगल में बदलते खेतों का दर्द और उसपर उदास फसलों का सबब तो किसान ही जान सकता है। राँची की बस्तियाँ गायब होती जा रही हैं, जहाँ बरगद-सेमल के वृक्षों पर जीवन की चहचहाट सुनाई पड़ती थी, वहाँ अब अपार्टमेंट या उसके प्रस्तावित विज्ञापन की पट्टी भीषण जंतु के समान घूर रही है । बस्ती खत्म होने के मतलब संस्कृति का खत्म होना, पूरा जीवन ही खत्म होने जैसा है। लेकिन पूँजी के वैश्विक दौर में भूमाफिया-कारपोरेट और राज्य सरकारों के चरित्र में कोई वस्तुगत फर्क नहीं रह गया है।
विषय वस्तु के तौर पर ‘गायब होता देश’ एक सामयिक और यथार्थपरक उपन्यास है। हिंदी कथा साहित्य में आदिवासी जीवन पर चाहे जो कहा, लिखा और सुना गया है उसमें रणेन्द्र की रचना ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ विशेषकर झारखण्ड के संदर्भ में जितनी समर्थ और मूल्यवान है तो ‘गायब होता देश’ उससे भी कहीं ज्यादा अर्थगर्भी और वास्तविक है।
आदिवासी जीवन और संस्कृति की प्रकृति निकटता, सहजता, उन्मुक्तता का सहज चित्रण तो उपस्थित है ही परंतु उनकी मान्यताएँ विश्वास और रीति-रिवाजों की रचनात्मक पहचान की गई है। असुर और बिरजिया जनजातियों का चित्रण ‘बल गाँव के देवता’ में है तो ‘मुंडा’ जनजाति की प्रस्तुति इस उपन्यास में मिलता है। सोमेश्वर मुण्डा, नीरज पाहन, अनुजा पाहन, सोनमनी दीदी के संघर्ष के बहाने पूरा मुण्डा इतिहास की वर्तमान में आवाजाही लगी रहती है, जो इस उपन्यास को विशिष्ट आयाम प्रदान करता है।
कई बार उपन्यास आपको जादुई सी लगले वाली प्रथाओं और मान्यताओं से मिलवाता है जो बाहर के समाज के लिए अंधविश्वास हो सकता है पर ‘मुंडा’ समाज के लिए जीवन की रोजमर्रा वाले अभ्यास है। लेमुरिया महाद्वीप और मेगालिथ की ऊर्जा-संभावना पाठक को प्राक्-इतिहास काल से भविष्य तक की अपूर्व यात्रा पर ले जाते हैं।
बाजार जब सबको गोरा बनाने के लिए विज्ञापन और उत्पाद की हिंसक और उत्तेजक तैयारी कर रहा है, रणेन्द्र जामुनी रंग, कत्थई रंग, बैंजनी रंग पर भरोसा कर रहे हैं और भरोसा ही नहीं उसमें वह डूबते हैं और डुबाते भी हैं। रंग की ऐसी श्रृंगारिकता अलभ्य है परंतु भारतीय संदर्भ में वही प्राणवान है।
सच कहें तो ‘गायब होता देश’ की रचना प्रक्रिया रणेन्द्र की ऐसी शोधपरकता, मौलिकता, कल्पनाशीलता और रचनाशीलता से पगी है जो कथ्य और शिल्प दोनों को घुलनशील बनाती है। ‘कटहल’ पर कविता नागार्जुन ने लिखी है और निबंध विद्यानिवास मिश्र ने पर कटहल का परिचय जो रणेन्द्र के उपन्यास में प्रस्तुत है वह मनुष्य और कटहल के सहजात संबंधों का प्रगाढ़ बनाता है। ‘ससन’ का अर्थ और उसकी आर्थिक नोचा-खोंसी की तस्वीर हमारे सामने आती है वह भयावह है।
यह उपन्यास झारखण्ड और विशेषकर राँची के आसपास के जीवन की यात्रा है। रणेन्द्र के पहले उपन्यास में भी यात्रा के दृश्य बार-बार हैं और इसमें भी लगता है कि चलते-चलते पाठकों को भी पैर दुखने की अनुभूति स्वतः मिलती है ।
इक्यावन अध्यायों में बँटा यह उपन्यास और सबका नाम एक साथ मिलकर तो आख्यान रचते ही हैं अलग-अलग होकर भी स्वतः स्फूर्त हैं. तथ्यों का ब्योरा है भी तो भाषा ने उसे स्वयं में घुला लिया है। जहाँ संवेदना, प्रेम, मांसलता और मादकता की चर्चा हो रणेन्द्र वहाँ अद्भुत हैं। यह अकारण नहीं कई अध्याय तो गद्य के पीछे छोड़ काव्य की भूमि में उतर गये हैं। विज्ञान की शब्दावलियाँ और तकनीकी प्रयोग से उपन्यास एकाध जगह भारी है, फिर भी उसके निहितार्थ की सदाशयता उसके अर्थ के बीच आई बाधा को हटा देती है। मर्डर मिस्ट्री, प्रेम कथा और संघर्ष आख्यान इन तीनों में किसका पलड़ा भारी है। यह एक पाठ में तय नहीं हो पाता है किन्तु मुण्डाओं की संघर्ष गाथा और प्रेम का बैजनी रंग मन के कैनवास पर छा जाते हैं।
इन उपन्यास में जंगल का हरापन है तो उजड़ती बस्तियों का सन्नाटा भी है। साजिश और अपराध को अंजाम देती मानसिकता है तो उसके समांन्तर संघर्ष करने वाली प्रतिरोधी और मानवीय क्षमता भी। यह अलग बात है कि सुनियोजित लड़ाई के सामने हमारे भाले और तीर कितनी देर ठहरेंगे पर हाँ ! अस्तित्व के संग्राम में हम अब भी अपनी मनुष्यता के साथ हैं। ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ से ‘गायब होता देश’ तक असुर जनजाति से मुंडा जनजाति तक तथा जामुनी रंग से बैंजनी रंग तक की इस यात्रा में रणेन्द्र खुद पात्र से भी नजर आते हैं। हर बड़ी रचनाओं का रचनाकार हमारी परंपरा में पात्र भी है जैसे वाल्मीकि रामायण में, व्यास महाभारत में, चंदबरदाई- पृथ्वीराज रासो में और तुलसीदास- रामचरितमानस में, तो क्या कथाकार रणेन्द्र अपनी रचना में पात्र भी है? अगर हो भी यह उपन्यास और उपन्यासकार के हक में है।
(टिप्पणीकार राँची कॉलेज, राँची में हिन्दी के सहायक प्राध्यापक हैं)
उपन्यास: गायब होता देश
लेखक- रणेन्द्र
पृष्ठ- 334
मूल्य-250
प्रकाशक-पेंगुइन बुक्स इंडिया