वर्धा कोश पर ‘जनसत्ता’ में एक लम्बी बहस चली. कुछ हद तक सार्थक भी रही. वैसे मेरा विचार यह है कि हिंदी के विद्वानों को मिलकर यह प्रयास करना चाहिए कि विशेषज्ञों के माध्यम से हिंदी के कोशों को अद्यतन बनाए जाने का काम हो. भाषा आगे बढती जा रही है कोश पीछे रह गए हैं. फिलहाल आज वर्धा कोश के प्रकरण में विद्वान पत्रकार राजकिशोर ने लिखा है- जानकी पुल.
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एक कोश सौ दीवाने
‘जनसत्ता’ के साहित्य पृष्ठ पर वर्धा हिंदी शब्दकोश को ले कर, जिसे नाहक ही शब्दकोश कहा जा रहा है, क्योंकि सिर्फ कोश (जैसे कालिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय और मुकुंदीलाल श्रीवास्तव का बृहत् हिंदी कोश, फादर कामिल बुल्के का अँगरेजी –हिंदी कोश) कहने से भी वही अर्थ निकलता और ढाई आखर भी बच जाते, कई हफ्तों से जो बहस जारी है, वह अगर थोड़ी भी दिलचस्प होती, तो, मनोरंजन के लिए ही सही, उसे पढ़ना अच्छा लगता। ओम थानवी ने जो शुरुआत की थी, वह बहुत जरूरी थी, क्योंकि जिस हिंदी को हम जानते हैं और जिसमें काम कर रहे हैं, उस पर गिद्ध मँडरा रहे हैं। परंतु उस टिप्पणी के बाद जो लाइन लगी दिखती है, उसमें मौलिकता कम है, अनुसरणवादिता ज्यादा। क्या कोई यह अभियान चला रहा है? बेचारे ओम थानवी संपादक ठहरे, किसी का भी लेख न छापें तो वह कोप भवन में जा गिरता है और वहीं से ढेला फेंकने लगता है, हालाँकि थानवी ऐसी हरकतों से डरनवाले नहीं हैं। हाई स्कूल, क्या मुझे उच्च विद्यालय लिखना चाहिए था?, स्तर के अंकगणित में जो ऐकिक नियम पढ़ाया जाता है, उसकी तर्ज पर कभी-कभी मुझे यह प्रश्न पूछने का मन करता है कि अगर एक डॉक्टर एक रोगी को तीन दिन में मार सकता है, तो सौ डॉक्टरों को उसके प्राण लेने में कितना समय लगेगा। मैं समझता हूँ कि वर्धा हिंदी कोश के बारे में यही सवाल किया जा सकता है। इसलिए नहीं कि रोगी से मुझे बहुत मुहब्बत है, बल्कि इसलिए कि मुझे डॉक्टरों की नीयत पर शक है। इस बात को वही समझ सकते हैं जिनका अनुभव है कि हिंदी के वर्तमान माहौल में शक करना विश्वास करने की बनिस्बत सत्य के ज्यादा निकट है। ऐ ईश्वर, अगर तू कहीं है तो इस स्थिति को फौरन से पेश्तर बदल, क्योंकि अब आदमजाद से उम्मीद करने में मुझे शर्म आती है।
मेरे एक तल्खजबान मित्र कहते हैं कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विशविद्यालय एक ऐसा लतीफा है जिसका आदि तो है, पर अंत दिखाई नहीं देता। अशोक वाजपेयी इस महत्वाकांक्षी प्रतीत होने के शिकार संस्थान के योग्यतम कुलपति थे, पर एक जमाने में ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ का हाहाकार मचानेवाली, तब सत्ताधारी, पार्टी को वह हिंदी पसंद नहीं आई, जिसका इस्तेमाल सांप्रदायिकता विरोध के लिए किया जा सके। वाजपेयी को चेकबुक तो मिल गया, पर एक ऐसे बैंक का, जिसमें विश्वविद्यालय का कोई खाता नहीं था। दूसरे कुलपति गोपीनाथन को संदेह का लाभ दिया जा सकता है, क्योंकि अपने भोलेपन का सब से बड़ा शिकार वह खुद हुए, पर उन पर लाभ का संदेह नहीं है। जब विभूति नारायण राय कुलपति बने तब यह प्रचारित किया गया कि वे विश्वविद्यालय प्रणाली का अंग नहीं रहे हैं। लेकिन यह बात तो अशोक जी के बारे में भी कही जा सकती है, और ऐसा कहने के पीछे उनके प्रति प्रशंसा भाव ही है, क्योंकि अब मुझे यकीन हो गया है कि हिंदी संस्थानों और विभागों को गैर-अकादमिक लोग ही ठीक कर सकते हैं। अभी तक तो फिर भी गनीमत थी, क्योंकि हिंदी को हिंदी से ही रू-ब-रू होना था; अब हिंदी का साबका एक ऐसे विद्वान से पड़ा है जिसका कार्य क्षेत्र हिंदी नहीं है और जिसने अब तक सारा लेखन अँगरेजी में ही किया है। अपने क्षेत्र में उनकी विद्वत्ता और अँगरेजी का उनका ज्ञान असंदिग्ध है, किंतु विश्वविद्यालय के नाम में ‘अंतरराष्ट्रीय हिंदी’ शब्द भी निर्णायक महत्व के हैं। लेकिन कुलपति हो जाने में उनका कोई दोष नहीं है। यह उनकी सज्जनता है कि उन्होंने भारत सरकार के प्रस्ताव को प्रसन्नता के साथ स्वीकार कर लिया। परंतु कपिल सिब्बल को भी क्या दोष दिया जाए, क्योंकि प्रत्येक सरकार यही समझती है कि आईएएस अधिकारी की तरह किसी को भी किसी भी तरह के संस्थान के शीर्ष पद पर बिठाया जा सकता है। जिस तरह कृषि सचिव को आनन-फानन में रक्षा सचिव या गृह सचिव बना दिया जाता है, वैसे ही किसी भौतिकविज्ञानी या नृत्यांगना को सिर्फ हिंदी का प्रचार-प्रसार-विकास के लिए स्थापित एकमात्र विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया जा सकता है। क्या कुलपति का पद सिर्फ प्रशासकीय होता है या इसका कुछ संबंध विश्वविद्यालय की भाषिक अस्मिता से भी है? महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय एक और विश्वविद्यालय नहीं है, एक खास तरह का विश्वविद्यालय है। क्या शांति निकेतन स्थित विश्व भारती का कुलपति ऐसा व्यक्ति हो सकता है, जिसके पास फ्रेंच में अर्थशास्त्र की पीएचडी हो और जिसने अपना तमाम काम इसी विषय पर और इसी भाषा में किया हो?
इसी तरह, वर्धा हिंदी कोश के संपादक रामप्रकाश सक्सेना हिंदी भाषा या हिंदी साहित्य के मर्मज्ञ नहीं हैं, भाषावैज्ञानिक हैं। उनका मानना है कि कोई भाषावैज्ञानिक है तो दुनिया की हर भाषा पर स्वतः उसका अधिकार हो गया। सक्सेना जी ने एक बार मुझे, किंचित गर्व से, बताया था कि उन्होंने गोदान, कामायनी आदि कुछ भी नहीं पढ़ा है। तभी मुझे विश्वास हो गया था कि वे वर्धा हिंदी कोश का अच्छा संपादक सिद्ध होंगे। वर्धा हिंदी कोश के आलोचकों को पता नहीं है कि कितनी मुसलसल बारिश में उन्हें छाता समझ कर पकड़ लिया गया था। ऐसे और भी कई सह- या उप-छाते थे। सक्सेना को संपादक बनाया गया था, पर वे संपादक-जनरल की तरह काम कर रहे थे। लगभग प्रत्येक स्तर पर अराजकता का हाल यह था कि कभी-कभी विभूति जी के ललाट पर पड़नेवाले बलों को गिनना तक मुश्किल हो जाता था।
थानवी जी ने पूछा है कि ऐसी भी जल्दी क्या थी। सच में, कोश निर्माण कोई ऐसा गीत नहीं है जिसे सरपट दौड़ते हुए भी गाया जा सकता है। लेकिन विभूति नारायण राय अपने अनुभव से जानते हैं कि हिंदी नाम की घाटी में पता नहीं कितने ताजमहल बनते-बनते रह गए या शिलान्यास से आगे नहीं बढ़ पाए। इसीलिए वे चाहते थे कि उनका कार्यकाल समाप्त होने के पहले ही यह कोश छप कर बाजार में आ जाए। ऐसा नहीं है कि वे समझ नहीं रहे थे कि छिद्र कहाँ-कहाँ हैं और कहाँ-कहाँ उनका व्यास बढ़ता जा रहा था, लेकिन उन्हें यह एहसास भी था कि जिस दिन वे ड्राइवर की सीट से हटेंगे, यह बस ठिठक जाएगी और अगला सतयुग आने तक ठिठकी रह जाएगी। मैं विभूति नारायण राय की कल्पना एक ऐसे पिता के रूप में करता हूँ, जिसके दिन निकले जा रहे थे, पर जिसकी बेटी के हाथ पीले नहीं हो पा रहे थे। एक विद्वान के साथ उन्होंने छेंका भी कर दिया था, पर वर कुछ ज्यादा ही चतुर निकला – दहेज की एडवांस रकम ले कर भाग खड़ा हुआ।
हिंदी में अंगरेजी शब्दों के बढ़ते हुए फूहड़ प्रचलन पर ओम थानवी ने जो चिंता प्रगट की है, उसका मैं हार्दिक स्वागत करता हूँ। ट्रेन और टॉर्च की तरह, कंप्यूटर, इंटरनेट, जूनियर, सीनियर, ड्राफ्ट, यहाँ तक कि न्यूज भी स्वीकार्य है, पर थानवी ने असह्य शब्दों की जो सूची बनाई है, उन जैसे सभी शब्दों को गिरफ्तार कर सदा के लिए हिंदी से निर्वासित कर देना चाहिए। हिंगलिश मजाक नहीं है, खतरा है। हम एक ऐसा देश बनते जा रहे हैं जिसमें न अंगरेजी सही बोली जाएगी, न हिंदी। हिंदी का क्रियोलीकरण (प्रभु जोशी का प्रिय शब्द) तय है। हमारे देश के एक बड़े तबके के लिए यहाँ हाथी नहीं, एलीफेंट रहते हैं और खाना बनाया नहीं जाता, कुक किया जाता है। लेकिन यह हिंदी के मूल राशिफल में नहीं था, देश के अधकचरे पश्चिमीकरण का विषाक्त फल है। इस फल से यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वह पक जाने के बाद डाल से गिर पड़ेगा; होगा यह कि वह जितना ही पकेगा, उतना ही सड़ेगा और उसकी सँड़ाध उतनी ही दूर-दूर तक फैलती रहेगी।
इसकी एक वजह हिंदी का व्यवहार करनेवालों में राष्ट्रीय स्वतंत्रता के बाद आया आलस्य और अँगरेजी प्रेम भी है। पहले पार्लियामेंट, असेंबली, मैटर, वैल्यू, ऑथेंटिसिटी, इंटेलेक्चुअल, केमिस्ट्री, इनफिरियरटी कॉमप्लेक्स आदि शब्दों का खुशी-खुशी और अच्छा अनुवाद किया जाता था, लेकिन सन पचास के आसपास हिंदी ने इस जरूरी जिम्मेदारी से हँसते-हँसते मुक्ति पा ली और साहित्य तक में मूल अँगरेजी शब्दों का प्रयोग करने लगी। आज किन्हीं दो नवोदित लेखकों को पकड़ लीजिए और उनसे कहिए कि किसी भी विषय पर आधे घंटे तक (सिर्फ) हिंदी में बोलें, वह इस सजा को नहीं झेल सकेगा। ऐसा क्योंकर न होता, जब सिर्फ साहित्य में हिंदी को बचाने का आग्रह हो और जीवन के बाकी सभी पक्ष अंगरेजी के हवाले कर दिए जाएँ। दुनिया के किसी भी स्वस्थ हिस्से में घूम आइए, यही पाएँगे कि कोई भी भाषा सिर्फ अपने साहित्य में नहीं बची हुई है। प्रगति होती है तो सार्वत्रिक होती है, वरना नहीं होती है। फिर, बौद्धिकता और साहित्य तो किसी भी समाज का दिमाग और हृदय (दोनों को अलग-अलग मानते हुए नहीं, बल्कि अपनी बात आसानी से समझाने के लिए एक आधुनिकता-पूर्व मुहावरे से फ्लर्ट करते हुए) होते हैं; इनका मकान नदी के तीर पर हो, पर बाकी शरीर के लिए पहाड़ पर बँगला बनाया जाए, तो यह व्यवस्था किसी भी समाज के लिए आत्महत्या का अचूक नुस्खा है। यह स्वतःनिर्णीत संथारा नहीं है, गुंडे भेज कर अपनी लंबाई दो इंच कम करने का आदेश है।
इस कुछ हत्या और कुछ आत्महत्या की छानबीन न कर वर्धा कोश के दीवानों से, जिनमें से कुछ ने इस कोश ने देखा भी नहीं है, यह निवेदन करना चाहता हूँ कि जो है, इससे अधिक चिंता उसकी करें जो नहीं है। अंगरेजी के कोश या तो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी जैसे संस्थान (पब्लिक) बनाते हैं या फिर कॉलिंस जैसी व्यावसायिक संस्थाएँ (प्राइवेट)। अंग्रेजी में तो एक बैंक ऑफ इंगलिश भी है, जिसमें नए शब्द जोड़े जाते रहते हैं। दोनों ही संस्थाओं में विद्वान लोगों की समितियाँ हैं जो अंगरेजी भाषा में आ रहे परिवर्तनों पर पैनी नजर रखने का काम करती हैं। हिंदी में क्या है? केंद्रीय हिंदी संस्थान जैसे सफेद हाथी, जिनकी खुराक तो अच्छी है, पर जो काम के नाम पर चूहे जितनी हरकत भी नहीं दिखाते। विभूति जी की यह अभिलाषा धरी की धरी रह गई कि वर्धा विश्वविद्यालय में एक स्थायी संकाय हो जो हिंदी भाषा में हो रहे परिवर्तनों को दर्ज करता रहे जिसके आधार पर हर तीन-चार साल में कोश का नया संस्करण निकाला जा सके। अब यह दायित्व वर्तमान कुलपति पर है, जिनके बड़े भाई ने ‘हिंदी की शब्द संपदा’ के नाम से एक गजब का और बेजोड़ काम किया था।
राजकिशोर- truthonly@gmail.com