लेखक काशीनाथ सिंह को सारा हिंदी समाज जानता है. लेकिन उनके यशस्वी पुत्र प्रोफेसर सिद्धार्थ सिंह उनके बारे में क्या सोचते हैं यह पढने को मिला ‘चौपाल’ नामक पत्रिका के प्रवेशांक में. इसकी तरफ ध्यान दिलाया युवा संपादक-आलोचक पल्लव कुमार ने. आइये पढ़ते हैं. पिता की नजर से पुत्र को देखते हैं- प्रभात रंजन
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बचपन से शुरुआत करता हूँ तो याद आता है कि शायद पापा से भी पहले हम दोनों भाईयों की मुलाक़ात उनके मुसुक से हुयी थी| मुसुक यानि भुजाओं की मसल्स ; जिन्हें पंजाबी लोग डोले – शोले भी कहते हैं | पापा को कसरत का खासा शौक था, अपने बचपन में अखाड़े में कुश्ती लड़ने का जिक्र तो उन्होंने खुद ही किया है | लेकिन वे बी.एच.यू. में नौकरी शुरू करने और बाद तक भी दो – दो नम्बरिया ईंट जमीन पर रख कर पहले पुश-अप किया करते थे और फिर दंड बैठक, यह कम लोगों को पता है| सामान्य व्यायाम तो अब भी जारी है, लेकिन पुश-अप और दंड बैठक नहीं | हाँ , दंड बैठक की परम्परा श्री राम जी सिंह, जिन्हें हम “बीच वाले बाबू जी” कहते हैं, आज भी निभा रहे हैं जिसको लेकर बड़ी अम्मा कभी-कभी बिगड़ जाया करती हैं | कई वर्षों पहले की बात है, हम दोनों भाई राम जी बाबू जी के घर गए हुए थे | दरवाजे पर ही बड़ी अम्मा से भेंट हो गयी, अम्मा की आँखें सूजी हुयी थीं | रहा नहीं गया, पूछ बैठे :
“का भईल अम्मा, सुतलु नाही का ठीक से?”
जवाब था – “अरेऽऽ….ई नकलोलवा सुत्ते देई तब नऽऽ……”
“काहें…., का भईल?”
“तीनै बजे भोरे उठ कर रोजै ऊपर छते पर धम्म –धम्म उठक –बैठक करे लगला| एतना हांफी, एतना हांफी कि केहू के सुत्ते ना देई | ओकरे बाद एक कड़ाही चना खाई |”
थोड़ी देर के लिए फिर बड़ी अम्मा रुकीं, हम दोनों कहानी के क्लाईमैक्स का इंतज़ार कर रहे थे | क्लाईमैक्स आया और बहुत रोचक आया. उन्होंने ‘अउर’ को लंबा खींचते हुए बोला:
“अउ…….र ओकरे बाद उ दिनवाऽऽऽ भरऽऽऽ… छेरी |”
हम दोनों हँसते-हंसते लोट-पोट हो गए |
खैर, पापा के मुसुक जबरदस्त थे और उस दौर में उनकी कद-काठी, चौड़ा सीना किसी अखाड़ची मजबूत पहलवान से कम न था | हम दोनों को साहित्य वगैरह से क्या लेना –देना, पापा के मुसुक पर फिदा रहते थे | और उसका दिलोदिमाग पर असर इतना गहरा था कि बस किसी के घर में आने भर की देर है, हम दोनों उसे दोनों तरफ से घेर कर बैठ जाते थे | आदमी कमजोर किस्म का हुआ या फुल शर्ट में हुआ तो हमारे किसी काम का नहीं | यदि हॉफ शर्ट में और कुछ रियाजी शरीर का लग रहा है तो हम एक ही मुलाक़ात में उससे धीरे – धीरे नजदीकियां बढ़ाते थेA और जैसे ही घनिष्ठता सहजता के स्तर पर पहुँच गयी, हम बिना देर किये तत्काल अर्जी लगा देते थे :
“चाचा जी, ज़रा अपना मुसुक दिखाईये ना |”””
कई बार आगंतुक साहित्य सेवक परिवार के सदस्यों की इस मांग पर हक्का-बक्का हो जाता था , लेकिन हमें अपनी प्रतिभा पर पूरा भरोसा रहता था | आने वाला जब तक अपना मुसुक दिखाने को मान न जाए, हम छोड़ते नहीं थे, यहाँ तक कि कई बार तो उसे शर्ट की बांह मोड़ने का तकल्लुफ़ भी नहीं करना पड़ता था, हमीं ये काम कर लिया करते थे |
अब आने वाले ज्यादातर साहित्यकार होते, कहाँ से मुसुक देखने को मिले | पापा के आस-पास तो क्या दूर-दूर तक कोई मुकाबला नहीं | यह बात हम दोनों को असीम तृप्ति देती थी की पापा जैसा मुसुक किसी का नहीं |
यह मुसुक प्रसंग तब का है जब मैं संभवतः कक्षा तीन में पढ़ता था | पापा के व्यक्तित्व का छोटा –छोटा अंश हम सभी पांचों भाई –बहनों में दिखायी देता है , लेकिन दुर्भाग्य से किसी में भरपूर नहीं आ पाया | मुसुक वाला तत्त्व मेरे बड़े भैया मुन्ना में आया और वे पापा की देखा-देखी कक्षा दो-तीन में ही अस्सी पर तुलसी अखाड़े में जाकर कुश्ती लड़ने लगे | चड्ढी में लड़ने के तमाम खतरे थे, इसलिए उन्होंने कई दिनों तक रो-रोकर के अम्मा से हनुमान जी वाला, चटक लाल रंग का लंगोट सिलवाया और फिर तो बी. एच . यू .के मकान में शिफ्ट होने तक नागपंचमी पर होने वाली कुश्ती प्रतियोगिता में जूनियर चैम्पियन बने रहे | जाहिर है, पापा भैया की इस प्रतिभा पर गदगद होते थे और नाक फुला कर मुसकराते थे |
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दूसरी यादगार मुलाक़ात हम दोनों की पापा से तब हुयी जब हम ताजा-ताजा बी. एच . यू .के बिरला हॉस्टल के वार्डेन्स क्वार्टर में आये थे और कक्षा पांच-छह में पढ़ रहे होंगे | हम दोनों खिलवाड़ी थे और पढ़ने-लिखने में विशेष मन नहीं लगता था | हाँ, दीदी लोग सभी पढ़ने में बहुत तेज और गंभीर थीं | पापा ने एक दिन हम दोनों को अपने पास बुलाया और पूछा –
“आप लोग जिंदगी में क्या बनना चाहते हैं?”
‘आप’ सुनते ही हमें लग गया कि मामला गंभीर है, क्योंकि आज भी उनके स्वभाव में है कि यदि वे तुम से ‘आप’ पर आ जाएँ तो या तो वे नाराज हैं या फिर कोई गंभीर बात कहना-सुनना चाह रहे हैं | हम दोनों को जिस प्रश्न का उत्तर बी.ए., एम.ए. तक नहीं मिला, वह पांच-छह में पढ़ने के दौरान क्यूँ कर मिलता | हम सिर झुका, चुप मार कर बैठे रहे | पापा बोलते रहे और तुरंत ‘आप’ से ‘तुम’ पर आ गए :
“तुम लोग ज़िंदगी में जो भी कुछ करना, कोशिश करना कि उसमें सर्वोत्तम रहो | डाकू भी बनना तो मलखान सिंह बनना, खिलाड़ी बनना तो मोहम्मद शाहिद बनना और पान बेचना तो केशव की तरह बनना |”
केशव का नाम सुनते ही मैंने कनखियों से भैया की आँखों में देखा और भैया खिस्स से हँस दिए, पापा बोलते रहे :
“देखो, हम लोग गरीब किसान के बेटे हैं | गाँव में इतनी जमीन-जायदाद तो है नहीं कि तुम लोगों की रोज़ी-रोटी उसके भरोसे चल सके | मेरी आमदनी भी इतनी नहीं है कि तुम लोगों की पढ़ाई के लिए ज्यादा पैसे खर्च कर सकूँ | और जहाँ तक नौकरी की बात है मैंने सिद्धांततः तय किया है कि ‘आप’ लोगों के लिए न तो मैं रिश्वत दूँगा और न ही किसी से पैरवी करूँगा |”
अंतिम शब्दों पर विशेष जोर था जो कि हम पर बम की तरह फूट कर गिरे | नामवर बाबू जी तब तक ‘नामवर सिंह’ बन चुके थे, पापा की भी केन्द्रीय विश्वविद्यालय की नौकरी थी | हम लोगों को यह मुगालता था कि पृष्ठभूमि ठीक-ठाक मजबूत है, नौकरी-चाकरी का क्या सोचना | उम्र भी ज्यादा सोचने-वोचने की नहीं थी | अभी कुछ ही दिनों पहले एक दिन पापा की दी हुयी स्वतंत्रता का फायदा उठाते हुए मुन्ना भैया ने पापा से उनकी तनख्वाह पूछी | पापा ने कुछ जवाब दिया | अपने बचपने में भैया ठठा कर हँसे, फिर मेरी तरफ मुखातिब हुए और कहा:
“गुरु (हमारी बातचीत की शुरुआत आज भी गुरु से ही होती है), इतना तो कोई हमको दे तो हम नौकरी ही न करें |”
मैं गुस्से में भैया से भिड़ गया | भैया अपनी जगह अडिग – “इतनी तनख्वाह पर नौकरी नहीं करूँगा तो नहीं करूँगा |” पापा बिल्कुल शांत, मुस्कराते हुए हुए चले गए | वैसे भी पापा ने हमें जिंदगी में कभी भी मारा नहीं, डांटा भी तो बहुत गंभीर गलतियों पर | उनकी निगाह में यह सिर्फ हमारा अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करना था, लेकिन हमारे इस दुष्प्रयोग ने उन्हें यह एहसास करा दिया था कि हम लोगों के अंदर अहं की पैदाइश हो रही है और उसकी जड़ में नामवर बाबू जी और उनका खुद का कद और नौकरी है |
पापा की उस दिन की सीख हम दोनों भाईयों को आज तक नहीं भूली | सौभाग्य हमारा कि जीवन के किसी भी मोड़ पर उन दोनों लोगों को हममें से किसी भाई – बहन के लिए याचक बनना तो दूर सोचना भी नहीं पड़ा |
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माँ बचपन से एक बात बतातीं हैं कि जब वे पापा से ब्याह कर घर पर आयीं तो पापा ने जो पहली बात उनसे कही थी, वह थी:
“देखिये, मैं किसी भगवान को तो मानता नहीं हूँ | मेरे लिए जो कुछ भी हैं, वे मेरे भैया हैं, उन्हीं को मेरा भगवान समझ लीजिए | ध्यान रखियेगा, कभी उनको कोई कष्ट न हो |”
नामवर बाबू जी का स्वास्थ्य, उनकी खुशियाँ, उनकी चिंताएँ, उनके जीवन के हर उतार-चढ़ाव पापा और राम जी बाबू जी के जीवन का अभिन्न अंग हैं और हम लोगों के तो उनका पूरा व्यक्तित्व ही अतर्कावचर रहा है | यह बात हम सभी भाई-बहन पूरे विश्वास से कह सकते हैं कि नामवर बाबू जी का जो सम्मान हम सभी के दिल में है उसमें उनके बड़ा आदमी होने या महान आलोचक होने की कोई भूमिका नहीं हैं, बल्कि पापा के दिए गए संस्कारों की भूमिका है | नामवर बाबू जी कुछ नहीं होते, कुछ भी नहीं होते तो भी इन संस्कारों के साथ हम उन्हें उतनी ही श्रद्धा देते |
भाईयों के प्रेम का इससे बड़ा उदाहरण इस दुनिया में कोई दूसरा होगा, संभव नहीं लगता | होगा भी तो अब तक की उम्र में मुझे तो दिखाई नहीं पड़ा | अभी कुछ ही दिनों पहले घर में एक रोचक वार्तालाप देखने को मिला | राम जी बाबू जी और पापा गंभीर हो कर चर्चा कर रहे थे:
“का हो काशी, यदि भैया दू – तीन महीना के लिए बनारस आ जातैं त हम दूनों भाई ओनकर गोड़ – हाथ दबा कर सेवा कर देवल जात |”
राम जी बाबू जी की उम्र ८१ वर्ष और खुद का स्वास्थ्य भी कुछ अच्छा नहीं; पापा की उम्र ७६ साल और एक जबरदस्त व्यवस्थित दिनचर्या के आदती; और दोनों वृद्ध बड़ी मासूमियत से आपस में बातें कर रहे हैं कि बड़े भाई के हाथ-पांव दबा कर सेवा करने का मौका मिल जाता तो कितना अच्छा होता | बात सुनने-देखने वाले की आँखों में आंसू छलक जाएँ | आज भी यदि नामवर बाबू जी को छींक भी आने का समाचार दिल्ली से बनारस पहुँच जाता है तो तूफान मच जाता है | राम जी बाबू जी और पापा में मंत्रणा शुरू हो जाती है कि दिल्ली चला जाए क्या? नमवर (नामवर बाबू जी के परम प्रिय मित्र, उन्हें डाँटने का पेटेंट अधिकार रखने वाले, विख्यात वकील नगेन्द्र प्रसाद सिंह उन्हें नमवर कहते हैं) कहने वाले, खुद नब्बे साल के, वकील बाबू जी का फोन भी आने लगता है | तीनों भाई लोग ऊँचा सुनने लगे हैं, हम लोगों का खानदानी गुण है बुढ़ापे में केवल अतिआवश्यक बातों को सुनना | राम जी बाबू जी और पापा में जब तक नामवर बाबू जी पर बात होती है, दोनों एक दूसरे को बराबर सुनते हैं, उसके बाद ‘गूंगा – बहिरा क सनेस’ (अम्मा के शब्दों में) शुरू हो जाता है:
“भैया, देख कर सड़क पर साइकिल चलावल कइली | सड़क खराब हौ |”
“बक मर्दवा नहीं त…..सुबहियें उठ कर एक किलो चना खा ले लीं | नाहीं, नाहीं; नाश्ता का कौनो दिक्कत ना हौ |”
“अच्छा सुना कासी, कल चम्पवा तोहरे हियाँ आये खातिन बोलत रहल |”
“
………………………..यह फक्कड़ मस्ती ही पापा का निर्वाण है, मोक्ष है, कैवल्य है; और इन सबके ऊपर, उनकी प्राण-वायु है | हम सब भाई-बहनों ने ये बात बचपन से ही महसूस कर ली थी, इसीलिए हम कभी उनके और उनकी रचनाओं, उनके और उनके पाठकों के बीच नहीं आये, और न आयेंगे |……………." अद्भुत…मेरा सौभाग्य है कि हिन्दीसाहित्य की मुख्यधारा का व्यक्ति न होते हुए भी मुझे "आदरणीय काशीनाथ सिंह जी" से व्यक्तिगत मान मिलता रहा है………..
पिता पर बेहतरीन कथ्य।
bahut badhiya laga padhkar.
मज़ा आ गया। हर चीज़ घटनाएं और पात्र मानों आंखों के सामने अभिनय कर रहे हों
सहज आख्यानात्मकता लिए एवं आत्मीय सम्बन्धों का रसपूर्ण खुलासा करते प्रसंग ! अभिनन्दन प्रो. सिद्धार्थ सिंह जी !