
गुलज़ार साहब पर युवा लेखक प्रचंड प्रवीर का लिखा यह लेख बहुत पुराना है लेकिन गुलज़ार साहब के जादू की तरह ही इस लेख में कुछ बातें ऐसी हैं जो कभी पुरानी नहीं पड़ेंगी-
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सभी सभ्यताओं में पूजन की दो तरह की परिपाटी होती है। पहली – अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि देते हुये उनकी अर्चना करना, दूसरी – अदृश्य और सर्वशक्तिमान ईश्वर की परिकल्पना कर उनकी आराधना करना। जीवन में मिले सुख और ज्ञान के बदले में पितरों की आराधना, और कृतज्ञता प्रदर्शन सभ्यता का स्वाभाविक व्यवहार बन जाता है। स्वामी विवेकानंद ने अपने एक भाषण में कहा था कि उनके मरने के बाद उनके लाख मना करने के बावजूद भारत के लोग उनकी मूर्तियाँ लगायेंगे और पूजा करने लगेंगे। अब जब यह सच हो गया है, यह वक्तव्य उनकी व्यापक दृष्टि और भारतीय समाज पर निरीक्षात्मक अवलोकन का एक उदाहरण था। मुझे यह कहते जरा भी संकोच नहीं होता कि आने वाले दशकों में गुलजार भारतीय समाज की वैसी ही पूजनीय किवंदती बन जायेंगे। आगत दादा साहब फाल्के पुरस्कार जन मानस में व्याप्त उनके लिये गहरे सम्मान का द्योतक है।
महान अर्जेन्टाईन कथाकार बोर्हेज ने कहा था कि रचनाकर किसी का अनुसरण नही करता बल्कि अपना पूर्वज खुद ढूँढ कर उसकी वैचारिक परम्परा को बढाता है। गुलजार ने बड़ी विनम्रता से अपने से पहले भारतीय साहित्य की महान परंपरा को श्रद्धांजलि देते हुये आगे बढाया। चैतन्य महाप्रभु की कृष्ण पदावली सरीखी – मोरा गोरा रंग लई ले– से फिल्मी दुनिया में दस्तक देने वाले संपूर्ण सिंह कालरा ‘गुलजार‘ ने बार–बार हम लोगों को ग़ालिब, अमीर खुसरो की याद दिलाते रहें – कहीं हम भूल न जाये।
जिस तरह साहिर ने ‘बरसात की रात‘ में ‘न तो कारवां की तलाश है‘ कव्वाली में अमीर खुसरो की ‘बहुत कठिन है डगर पनघट की‘ और शेवान रिज़वी ने ‘एक मुसाफिर एक हसीना‘ के एक गीत में ‘जबान–ए–यार–ए–मन तुर्की, व मन तुर्की नमी दानम‘ का इस्तेमाल किया; उसी तरह गुलज़ार ने ‘जिहाल–ए–मिस्कीं मकुन तगाफुल, दुराय नैना बनाय बतियाँ, किताबे हिज्राँ, न दारम ऐ जाँ, न लेहु काहे लगाय छतियाँ‘ को इस्तेमाल गुलामी फिल्म में
जिहाल–ए–मस्ती मकुन–ब–रन्जिश,
बहाल–ए–हिज्र बेचारा दिल है
सुनाई देती है जिसकी धड़कन
तुम्हारा दिल या हमारा दिल है‘ में किया। देखा जाये, इस तरह का प्रयोग श्रद्धाजंलि का विशिष्ट रूप है। ग़ालिब का ‘जी ढूँढ़ता है, फिर वही फुर्सत के रात–दिन…” उनकी फिल्म मौसम में ‘दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात–दिन“, बाबा बुल्ले शाह का ‘ तेरे इश्क नचाया कर थैया थैया‘ मणिरत्नम की ‘दिल से‘ में “छैयाँ–छैयाँ” की तर्ज पर हमारे सामने आयी है। गुलजार खुद की तुलना गालिब के वफादार नौकर से करते हैं। फिल्मी गीतकारों की समालोचना करते हुये महान गीतकार ‘शैलेन्द्र‘ को अपना गुरु कहने मे जरा भी नहीं हिचकिचाते।
अपने लम्बे कैरियर में गुलज़ार ने अनेक फिल्मों के लिये गीत, पटकथा, कहानी और निर्देशन जैसे कई रूपों में उत्कृष्ट योगदान देते रहे। इसके अलावा अपनी उल्लेखनीय त्रिवेणी, लाजबाव नज़्मों, बेहतरीन ग़जलों से सरहद और भाषा–बोलियों की दीवार तोड़ने के लिये प्रतिबद्ध गुलज़ार की सबसे बड़ी खासियत है– उनकी प्रतिभागिता और उपलब्धता। तकरीबन अस्सी की उमर में भी वह बड़े जोश–खरोश से साहित्यिक कार्यक्रमों मे शरीक होते हैं और अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुये याद दिलाते हैं कि विलक्षणता अभी मरी नहीं हैं। सहजता अभी मरी नहीं हैं। वह शख्स ‘भास्कर बनर्जी‘ की तरह कहता फिरता तो है कि –डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे, ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे,
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब,
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन…” पर असल में वह ही हमारा ‘आनंद‘ हैं, और हम जैसे ‘मुरारीलाल‘ से बड़े दिल खोल कर मिला करता है।
जब गुलजार को 2009 में फिल्म ‘स्लमडॉग मिलियनएअर‘ के गाने ‘जय हो‘ के लिए ऑस्कर पुरस्कार मिला था, तो वो सिर्फ इसलिए ये पुरस्कार लेने नहीं गए क्योंकि वो काला कोट सरीखा औपचारिक सूट पहनने को तैयार नहीं थे। संवाददाता से बातचीत में गुलज़ार ने पुरस्कार पर ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए कहा, “यह बहुत सम्मान की बात है. मुझे ख़ुशी है कि इस बार काले कोट की दिक्कत नहीं रहेगी. जब बुलावा आएगा तो मैं इस सम्मान को लेने दिल्ली ज़रूर जाऊंगा।“
गुलजार अपनी गोष्ठी में हिंग्लिश की शिकायत करते हैं। काला कोट नहीं पहनते हुये हमें अपने मूल्यों को याद दिलाते हैं कि अपनी बोली, अपने पहनावे, अपनी संस्कृति–सभ्यता पर शर्म मत करो, बल्कि उसे पहचानो, उसे अपनाओ। इसलिये नहीं कि इसका कोई आधार नहीं है, बल्कि इसलिये कि यह सभ्यता में वैचारिक विषमता न रहे। हमारा रहन–सहन जो हजारों सालों से परिवर्तित–परिमार्जित होता आता आया है, उससे आँख मूँद कर किसी और की नकल करना कौन सी बुद्धिमानी होगी?
गुलजार की संवाद में, कहानियों में, पात्रों के संवाद में आम लोगों को दुःख दर्द छुपा होता है। जिन्होनें तहजीब का दामन न छोड़ा, जिन्होंने अपनी मर्यादा की रक्षा करते हुये सम्मान और उपलब्धियाँ हासिल की, इसके लिये गुलजार विस्मरणीय हो जाते हैं। आज जब फिल्में संस्कृति का बहुचर्चित और सुलभ माध्यम बन रही है, जिसने कस्बों में होने वाले नाटक, नृत्य–संगीत, गायकी, पुस्तकों और मुशायरों को मुख्यधारा से लगभग बेदखल कर दिया है, ऐसे लोग उम्मीद हैं जो हमें अपनी तहजीब भूलने न दें। इसलिये यह भी होगा कि राष्ट्रवाद के और उग्र होने पर इक्कीसवीं सदी में गुलजार बड़ी श्रद्धा से चर्चित रहेंगे। जिस तरह उन्होनें बड़े कवियों को याद किया, लोग उन्हें याद करते रहेंगे।
निरपेक्ष मूल्याकंन किया जाये तो संवाद लेखन, निर्देशन में गुलजार भारतीय मानकों में भी औसत से बेहतर ठहरते हैं, पर गीतों में वह अपनी अमिट छाप छोड़ चुके हैं। उन्होंने शेक्सपीयर के नाटक पर ‘अंगूर‘, क्रोनिन के उपन्यास पर ‘मौसम‘, बंगाली उपन्यास और हॉलीवुड की फिल्म ‘साउंड ऑफ़ म्यूजिक‘ की तर्ज पर ‘परिचय‘ ,शरत चंद्र चटर्जी के पंडित मोशाय पर ‘खुशबू‘ जैसी फिल्में निर्देशित की। इन फिल्मों के लिये उन्हें कई पुरस्कार भी मिले।
गुलजार का एक बड़ा योगदान प्रतिभाशाली ‘विशाल भारद्वाज‘ को फिल्म उद्योग में लाने का है। अफसोस यह है कि निर्देशन विधा इतनी आसान नहीं। बड़ी समस्या यह है कि इसे प्राय: कुछ और ही समझ लिया जाता है। अधिकतर हिन्दी फिल्में कहानी, पटकथा, अभिनय, स्टार पावर, संगीत और गीत से व्यवसायिक रूप से चल जाती हैं, पर वह हमारी सभ्यता– संस्कृति का गर्व किया जाने लायक अटूट हिस्सा बन पाती हैं या बन पायेंगी, इसमे संदेह है। शेक्सपीयर के ‘ओथेलो‘ पर बनी अॉरसेन वेलेस की फिल्म में सेट, अभिनय, संवाद अदायगी देख लेने के बाद ‘ओथेलो‘ पर ही आधारित विशाल भारद्वाज की बहुचर्चित ‘ओंकारा‘ पर मन खट्टा हो जाता है। लेकिन भारत के महान निर्देशक, जिनकी फिल्में व्यवसायिक दृष्टि से सफल रही – हृषिकेश मुखर्जी, बिमल रॉय और सत्येन बोस जैसे लोगों का सानिध्य गुलजार को मिलता रहा। हिन्दी फिल्मों की श्रेष्ठतम अभिनेत्री ‘मीना कुमारी‘ ने उनकी पहली फिल्म ‘मेरे अपने‘ में प्रमुख भूमिका में थी। मीना कुमारी की गजलों का संकलन भी गुलजार ने किया। दो महान कवि/शायर कैसी बातें करते होंगे, मीर के शेर, ग़ालिब की गजलें, या फिर खुद की कवितायें पर चर्चा – इसका केवल सुंदर अनुमान ही लगाया जा सकता है।
जिन मासूम के लिये उन्होंने “लकड़ी का काठी, काठी पे घोड़ा, घोड़े के दुम पे जो मारा हथौड़ा, दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठा के दौड़ा..” गाना लिखा था, आज वह पीढी बड़ी हो कर उनका लिखा ‘कजरा रे..” और ‘जय हो‘ गा रही है। जिनके लिये उन्होंने “जंगल–जंगल बात चली है, पता चला है, चड्डी पहन के फूल खिला है” लिखा, अब वह ‘छल्ला की लब दा फिरे‘ गा रहे हैं।
गुलजार शतायु हों और आने वाली पीढियाँ भी उनके नये–नये गीत गाती–गुनगनाती रहे। हमारी तरफ से उन्हें ढेरो बधाईयाँ और मूक आभार!
Wahhhhhhhhhhhhh
Wahhhhhhhhhhhhh
Bahut khub kahaa hai. Gulzar sahab unke dilon pe bhi raaz karte hai jo unhe jaante nahi magar unki likhi geeton ko din raat gungunate hain.
'जिन मासूम के लिये उन्होंने "लकड़ी का काठी, काठी पे घोड़ा, घोड़े के दुम पे जो मारा हथौड़ा, दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठा के दौड़ा..” गाना लिखा था, आज वह पीढी बड़ी हो कर उनका लिखा 'कजरा रे..” और 'जय हो' गा रही है। जिनके लिये उन्होंने "जंगल-जंगल बात चली है, पता चला है, चड्डी पहन के फूल खिला है” लिखा, अब वह 'छल्ला की लब दा फिरे' गा रहे हैं' गुलजार ने एक पीढी को व्यस्क होते देखा है। उनकी सबसे बडी विशेषता अनुभवों की विविधता हुआ करती है। सभी का कुछ ना कुछ अनुभव हुआ करता है…किंतु उसे सक्षम रूप से आगे तक ले जाना आसान नहीं होता। ऐसा करने में गुलजार दशकों से सफल रहे हैं। लेखन की हरेक विधा को खुबसुरती से जी कर दिखाया है। मजरुह सुल्तानपुरी व कवि प्रदीप के अलावे गुलजार भी एक लेखक हैं जिन्हें 'फालके अवार्ड' मिलेगा। हम जानते हैं कि उन्होंने 'लेखन' से करियर की शुरूआत की थी। हिन्दी सिनेमा उनके डायलाग्स-गीत-फिल्में सदा याद रखेगा………जिंदगी लंबी नहीं बडी होनी चाहिए'। हार्दिक बधाई।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड की ९५ वीं बरसी – ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
गुलजार जी को बहुत बहुत बधाई .