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सूर्योदय हो रहा है मेरी भौंहों की घाटी बीच

महाराष्ट्र में नेरुर पार के एक तटवर्ती गांव में 1946 में जन्मे श्री प्रभाकार कोलते स्वातन्त्र्योत्तर भारत में आधुनिक अमूर्त-कला की पहली पीढ़ी में रज़ा, गायतोण्डे, रामकुमार प्रभृति के बाद अग्रणी नामों में से एक हैं। जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट, मुम्बई में औपचारिक कला-शिक्षा प्राप्त करने के बाद श्री कोलते ने वहीं जे. जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट में बाईस बरस कला-प्रोफ़ेसर के रूप में पढ़ाया भी। अपने कला जीवन के आरम्भिक निर्माण काल में श्री कोलते शंकर पलसीकर के सम्पर्क में रहे और उन पर पॉल क्ली की कला व दर्शन का प्रभाव रहा। क्रमशः उन्होंने अपनी निजी व स्वायत्त कला-भाषा अर्जित की। प्रकृति के अनुकरण के बजाय प्रकृति की पुनरर्चना श्री कोलते के चित्रों में केन्द्रीय महत्व रखती है और कला, समाज सहित एक वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में समूची सांस्कृतिकी व साभ्यतिक प्रश्न उनके प्रमुख व प्रखर सरोकार रहे हैं।

अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर समादृत भारत व भारतीयेतर प्रमुख कला वीथियों में श्री कोलते की पन्द्रह से अधिक एकल प्रदषर्नियां और पचास से अधिक सामूहिक चित्र प्रदर्शनियाँ आयोजित हो चुकी हैं। महाराष्ट्र व भारत के प्रमुख मराठी व अंग्रेजी समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में श्री कोलते बराबर कला व समाज के प्रश्नों पर वैचारिक आलेख लिखते रहे हैं और कला पर उनकी मराठी व अंग्रेजी भाषाओं में दो किताबें भी प्रकाशित हैं। सम्प्रति श्री कोलते मुम्बई में रहते हुए चित्र-रचना में संलग्न हैं और कलाविषयक प्रश्नों पर देश-विदेश में व्याख्यान व वार्ताएं देने के अलावा कला के विद्यार्थियों पर खास ध्यान देने में रुचि रखते हैं ताकि कलाओं का एक स्वस्थ व रचनात्मक वातावरण निर्मित हो सके।  

कोलते जी का हिन्दी भाषा से गहरा लगाव है और उन्होंने मराठी व अंग्रेज़ी में काफ़ी कविताएं भी लिखी हैं। आज कोलते जी की कुछ अंग्रेज़ी कविताओं के हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत हैं। पीयूष दईया ने श्री कोलते के समग्र कला-चिन्तन से एक संचयिता तैयार की है जो सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर से शीघ्रप्रकाश्य है।
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प्रभाकर कोलते की कविताएं
पीयूष दईया के अनुवाद में
1
काला बादल
ठहरता है मेरे सिर ऊपर
और बरसते हैं
क़िस्से
शाम की बारिशों के।
2
मैं पंखुरी हूं
छितरायी हुई
बेवजह– 
एक तूफ़ान में
       
या मैं एक पत्ती की तरह हूं
हवा में फड़फड़ाती
नहीं जानती लेकिन
कहां जाने को
एक दिन
मसल दी जाऊंगी मैं
ओ! मैं पहले ही नष्ट हूं 
मुझे याद है अपनी आखिरी सांस
3
मेरा दिल तुम्हारी अगवानी करता है
जैसे किनारा समुद्र का पालागन करता है
मेरी आंखें तुम्हें सोखती हैं
जैसे हवा खुशबू लेती है
मैंने सुना है अपने को
जब मैं तुम्हारे लिए गाता हूं
अपनी शिराओं में गहरे
मैं जीता हूं अपनी रूह के बग़ैर
मैं देखता हूं जब तुम्हें एक बादल में
अकेला हूं मैं
तन्हा इतना
काश! नष्ट हो जाऊं मैं
जैसे एक बादल,
तूफ़ान में नष्ट 
4
एक पाखी है वहां
गाता मेरे दिल में
अमरता के गान
       
और मैं सुन सकता हूं
कल्लोलती नदियों से
झरनों से
लेकिन वहां थिरता है
कुंजकुटी में
और ख़ामोशी
मेरे दिल के हर ओर
असंख्य चांद सिजदा करने उतर आते हैं
सुनने मेरे पाखी को
झुकता है बैंगनी आकाश
क्षितिज पर
मेरा बर्फ़ीला दिल थामने
वहां एक पाखी है
अब तक छाया के बग़ैर
मेरे दिल में गाता 
5
मैं एक किसान हूं
लापता है जिसकी आत्मा
न जाने कहां
मैं खोजता हूं इसे
धूप तले
जब एक सूराख़ है वहां
मेरे दिल में
और अंधेरा
भीतर
ओ! पावन जगह के ख़्याल
क्यों न तुम पुनर्जन्म लो
मेरे मन में
और बहो रगो में
कि जाग उठे दिल मेरा
एक निर्जन सूराख
किसी दिन कभी
वहां सूर्य नहीं होगा
चांद न पेड़ न हवाएं
न कोई पृथ्वी
चल सकें जिस पर
तब मैं कहां खोजूंगा
और तुम कैसे पढ़ पाओगे
छायाओं के मर्म
मेरी भेदती भौंहों तले
6
दो शरीरों में बंटी हुई
आत्मा एक
हड्डियों, नसों
और सांस से बनी
विद्यमान है यह
परमपिता से सांस लेती
दीवानी हवा ने मानो चुम्बन लिया हो
भटकती है जो
अपने बग़ैर
7
और अभी भी भटकता
हूं मैं
आकाश में एक पाखी जैसे
क्षत-विक्षत हैं पंख जिसके
ऐन हवा में
बेबस गिरते हुए
बिन जाने कि कहां
लेकिन तब भी
उम्मीद की रोशनी है
वहां
मेरी आंखों में 
8
मैं जी सकता हूं तुम्हारे बिना
समन्दर जीता है अगर लहरों के बिना और
झाग बिना लहरों के
मैं गा सकता हूं तुम्हारे बिना
तारे गाते हैं अगर
चांद बिना और
रात बिना चांद के
मैं भटक सकता हूं तुम्हारे बिना
हवा बहती है अगर
खुशबू के बिना और
 
      

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5 comments

  1. ग़ज़ब! ग़ज़ब!! ग़ज़ब!!!

    कवितायेँ और अनुवाद दोनों!

  2. मैं जी सकता हूं तुम्हारे बिना
    समन्दर जीता है अगर लहरों के बिना और
    झाग बिना लहरों के

    बहुत सुंदर अनुवाद…बधाई स्वीकार करें

  3. Well translated.

  4. सुघड़ और समग्र अनुवाद. संचयिता का बेसब्री से इन्तिज़ार.

  5. Excellent ! Good and lucid translation

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