अभी 9 जून को हिंदी सिनेमा के महान अभिनेता दिलीप कुमार की आत्मकथा ‘The Substance And The Shadow’ रिलीज हुई है. इसमें उनके बचपन, उनके सिनेमाई अनुभवों को लेकर काफी रोचक बातें हैं. प्रस्तुत है उसका एक छोटा-सा अंश- मॉडरेटर.
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मेरे जीवन में देवलाली(मुम्बई के पास एक पहाड़ी जगह) का महत्व एक से अधिक कारणों से है। अव्वल तो यह कि देवलाली में ही मैंने अंग्रेजी भाषा का ज्ञान हासिल किया और मैं उसमें काफी माहिर हो गया। दूसरे, देवलाली में रहने के दौरान ही मैं फुटबॉल में बेहद दिलचस्पी लेने लगा।
आगाजी मुम्बई से सप्ताह में एक बार हमारे पास आते थे। वे मेरे भाई अयूब को प्यार करते थे और उसकी प्रगति को लेकर काफी चिंतित रहते थे। उन्होंने मुझे अंग्रेजी पढ़ते और लिखते हुए देखा और यह ऐसी बात थी जिससे उन्हें दिली तौर पर ख़ुशी हुई। मैंने स्कूल में एक अंग्रेजी कविता पढ़ी थी, मैंने एक दिन वह कविता आगाजी को सुनाई और वे इतने खुश हुए कि उन्होंने अपने सभी अंग्रेजी जानने वाले दोस्तों के सामने मुझे वह कविता सुनाने को कहा। कविता कुछ इस तरह थी:
I have two eyes
And I can see the door
The ceiling, the wall
And the big blue sky
Bent over all
स्कूल की छुट्टियों के दौरान जब हम दादा-दादी के पास पेशावर गए, तो हमारे आने के कारण सामाजिक जलसे होते थे। हर जलसे में मुझे एक ऊँची जगह पर खड़ा कर दिया जाता और कविता सुनाने के लिए मेरा हौसला बढ़ाया जाता। आगाजी को दुनिया से यह बताने में बहुत फख्र होता था कि उनका लड़का अंग्रेजी में बात कर सकता था और इस उपलब्धि पर उनके सभी पठान दोस्त भी उतने ही खुश होते थे। अगर उस जलसे में वहां का कोई अंगरेज अफसर मौजूद रहता था तो माहौल और रोमांचक हो जाता था। हर बार जब मैं सुनाना ख़त्म कर लेता तो मुकर्रर-मुकर्रर की आवाजें आने लगती थी। हर बार मैं जैसे ही फिर से सुनाना शुरू करता तो ‘शाबास युसूफ’, शाबास युसूफ’ का शोर मच उठता था। हर बार मुझे फिर से शुरू करना पड़ता था।
मुकर्रर-मुकर्रर की आवाजें फिर फिर आती और मैं सीधा तनकर खड़ा हो जाता, गहरी साँस लेता और उस कविता को फिर से दोहराने लगता।
सुनाने का यह दौर तब तक चलता रहता था जब जब तक कि मैं थक कर सुनाने की हालत में नहीं रह जाता था। मैं हमेशा इससे बचने के लिए बहाने ढूंढता रहता था। शर्मीला, कम मिलने-जुलने वाला लड़का होने के कारण यह मैं शायद ही कभी चाहता कि लोगों का ध्यान मेरी तरफ जाए। लेकिन मुझे लगता है कि किस्मत ने जिंदगी की वह दिशा निर्धारित करनी शुरू कर दी थी जिस तरफ मुझे जाना था। ऐसे मौकों पर मुझे आगाजी के आदेशों का पालन करना होता था और, वैसे तो खुली जगह में- जहाँ न खिड़की, न दीवार, न छत होती थी- कविता सुनाना बेहद मुश्किल काम होता था, लेकिन मुझे लगता है कि जो तालियाँ सुनने को मिलती थीं और मुकर्रर-मुकर्रर की जो आवाजें आती थी उससे मेरे अंदर सुनाने का जज्बा पैदा होता था। यह कुछ ऐसा था जैसे जब मैं कविता सुनाता था तो मुझे दरवाजे, दीवारें और छत दिखाई देते थे, यह कल्पना की उस दुनिया से मेरा पहला ताल्लुक था जिसमें बरसों बाद भाग्य मुझे ले जाने वाला था।
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अच्छी पोस्ट।
Nice Post
आपकी इस पोस्ट को ब्लॉग बुलेटिन की आज कि ब्लॉग बुलेटिन – मेहदी हसन जी की दूसरी पुण्यतिथि में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर …. आभार।।
दिलीप कुमार ऐसे अभिनेताओं में रहे हैं जो जीते जी किवदंति बन चुके थे। उन्होने अभिनय की जो शैली बिकसित की जो जीवन-यथार्थ और अनुभव के बीच से प्रकट होती है। बहुत से अभिनताओं ने उनके अभिनय की नकल करनी चाही लेकिन वे हास्यास्पद बन गये। वे हमारे बीच है और यह एक तरह का आश्वासन है। उनकी आत्मकथा पढने के बादउनके जीवन के कई पक्ष हमारे सामने आयेगे।