अशोक वाजपेयी मूलतः कवि हैं लेकिन जितना व्यवस्थित गद्य-लेखन उन्होंने किया है उनके किसी समकालीन लेखक ने नहीं किया. वे आलोचना की दूसरी परंपरा के सबसे मजबूत स्तम्भ रहे हैं. उनके आलोचना कर्म पर बहुत अच्छी बातचीत की है सुनील मिश्र ने. एक पढने और सहेजने लायक बातचीत- मॉडरेटर
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1. अशोक जी आपने जब आलोचना लिखनी शुरू की उस समय का साहित्यिक वातावरण (अकादेमिक वातावरण भी) कैसा था? आपकी शुरूआती आलोचना के पूर्वग्रह क्या थे? क्या उस समय जो आलोचना लिखी जा रही थी उससे आप संतुष्ट थे?
उत्तर- आलोचना लिखना बहुत समझ-बूझकर शुरु नहीं हुआ था। उस समय की ज्यादातर आलोचना से संतोष या विचारोत्तेजना नहीं मिलते थे। सागर में,जहाँ उन दिनों मैं रहता और बी.ए. का छात्र था,आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी थे जो हिन्दी आलोचना के शीर्ष पर थे और उनका बड़ा अकादेमिक वर्चस्व भी था। वे नयी कविता के प्रति सहानुभूति नहीं रखते थे। बाद में दिल्ली में एम.ए. करने आने पर पाया कि यहाँ डॉ. नगेन्द्र भी उसी वृत्ति के थे,वाजपेयी जी से कम समझदार और अधिक असहिष्णु। दोनों की ही भाषा मुझे अपनी कुन्दज़हनी में बड़ी ठस और उबाऊ लगती थी। इस परिदृश्य में कुछ करने की आकांक्षा ने जन्म और आकार लेना शुरू किया। बुनियादी पूर्वग्रह यह था कि अपने समय की कविता को बेहतर समझने के लिए नये प्रत्यय, नये मुहावरे, नयी समझ चाहिए।
2.आप कविता लिखते हैं,अपने कई व्याख्यानों, साक्षात्कारों में आपने कहा है कि आप कवि पहले हैं आलोचक उसके बाद। आलोचक आप ‘बैठे-ठाले’बन गए। हिन्दी में व्यवस्थित आलोचकों के अलावा रचनाकार आलोचकों की एक परंपरा रही है, इन दोनों परम्परा के आलोचकों ने एक दूसरे को किस तरह से प्रभावित किया है या इनके अंतर्संबंध क्या हैं? दूसरा प्रश्न यह कि आप इनमें से किसे आलोचना की केन्द्रीय परंपरा मानते हैं?
उत्तर- सच तो यह है कि मैं संयोगवश आलोचक बना, आपद्धर्म की तरह आलोचना लिखी। लेकिन हिन्दी आलोचना में कृतिकार-आलोचकों की लम्बी और विचारोत्तेजक परंपरा है। छायावादी चारों बड़े कवियों ने आलोचना भी लिखी और उनकी कविता को समझने के कई मूल्यवान सूत्र उससे निकले। बाद में, अज्ञेय, मुक्तिबोध, धर्मवीर भारती, कुंवर नारायण, विजयदेव नारायण साही, लक्ष्मीकान्त वर्मा, मलयज, रमेशचन्द्र शाह आदि उसी परम्परा के कुछ उजले और जरूरी नाम है। जितने नये प्रत्यय, नयी अवधारणाएँ आदि इन कृतिकार-आलोचकों ने विकसित कीं उतनी तथाकथित व्यवस्थित आलोचक नहीं कर पाये। आलोचना की भाषा बदलने में कृतिकारों का योगदान अधिक सशक्त रहा है। दोनों धाराओं के बीच संवाद और द्वन्द्व दोनों ही रहे हैं। केन्द्रीयता का रूपक यहाँ लागू नहीं होता। दोनों से ही समझ और संवेदना बढ़ाने में मदद मिलती है। यों सारी आलोचना से हमेशा असन्तोष कृतिकारों में मर्ज की तरह फैला रहता है।
3.आपके आलोचक व्यक्तित्व को किसने (किन लोगों ने) सबसे ज्यादा प्रभावित किया आपको प्रेरणा कहाँ से मिली?
उत्तर- आलोचना लिखने के लिए प्रेरित तो नामवर सिंह ने किया था जो एक वर्ष के लिए सागर में अध्यापक थे, हालाँकि मेरे नहीं। दिल्ली आने पर प्रोत्साहित किया देवी शंकर अवस्थी ने। आरंभिक आलोचना लिखवायी अपनी पत्रिका ‘कृति’ के लिए श्रीकांत वर्मा ने। रघुवीर सहाय, निर्मल वर्मा और अज्ञेय की गंभीर प्रतिक्रियाओं ने भी उत्साहित किया। बाद में मलयज और रमेशचन्द्र शाह की सहचारिता ने भी विचारोत्तेजन किया। साही जी की आलोचना ने प्रभावित किया। टी एस ईलियट के अलावा नयी समीक्षा के आलोचक एलेन टेट, आर पी ब्लेकमर आदि से भी सीखा।
4.’फिलहाल’जब प्रकाशित हुई तो आपके आलोचक के सामने कविता की वे कौन सी चुनौतियाँ सामने थीं जिन्हें आप रेखांकित करना चाहते थे?
उत्तर- पहली चुनौती थी बदली हुई मानवीय स्थिति और बदल रही कविता के संबंध को रेखांकित करते हुए उसके मर्म और अंतर्ध्वनियों को चरितार्थ करने की। दूसरी,आलोचना की भाषा में कुछ आत्मीयता और गरमाहट लाने की। तीसरी,कविता में जिस भाषा का प्रयोग होता है, आलोचना में उसे किसी हद तक लाने या उससे आलोचना की दूरी कम करने की।
5.एक आलोचक होने के नाते आप आलोचक का धर्म क्या मानते हैं? क्या वह निर्णेता है अथवा पैरोकार या अध्येता? आप स्वयं इनमें से अपनी भूमिका किस रूप में निभाते हैं?
उत्तर- आलोचक का बुनियादी काम है साहित्य का और उसके माध्यम से जीवन का साक्षात्कार और रसास्वादन। साहित्य में जो हो रहा है उसे दिखाना और देखना बल्कि पहले स्वयं देखना और फिर दूसरों को उस देखने में हिस्सेदार बनाने की कोशिश करना समझ और संवेदना से और समय के हिसाब से पढ़ना-गुनना। निर्णायक तो वह शायद ही कभी होता है। अपने से यह हताश सी अपेक्षा करता हूँ कि अपने साहित्य और कलाओं के और उनके माध्यम से संभव जीवन के अनुराग को दूसरों तक पहुँचा सकूँ। साहित्य और कलाओं को अपना दूसरा जीवन मानता हूँ और उनके प्रति कृतज्ञ होता हूँ जिन्होंने यह दूसरा जीवन मेरे लिए संभव बनाया।
6.एक ही लेखक जब कविता और आलोचना साथ-साथ लिखता है तो वह अपने दायित्व का निर्वहन कैसे करता है? आप खुद इस दुहरे व्यक्तित्व का निर्वाह कैसे करते हैं?
उत्तर- एक ही लेखक की कविता और आलोचना का संबंध खासा जटिल होता है और वह कई बार बदलता रहता है। कविता के पूर्वग्रह और आलोचना के पूर्वग्रह अलग हो सकते हैं: उनमें संवाद,तनाव और द्वन्द्व भी हो सकते हैं। मुझे यह भ्रम है कि मैं कुल मिलाकर सम्प्रेषणीय कविता लिखता हूँ लेकिन आलोचना में मैंने ऐसी कविता का बचाव किया है जो उतनी संप्रेषणीय नहीं भी कही जा सकती। ऐसे कवियों पर भी लिखा है जिनकी वैचारिक दृष्टि से मैं सहमत नहीं हूँ। कवि के रूप में आप जैसी चाहे वैसी कविता लिखने के लिए स्वतंत्र है पर आलोचना में आपको ऐसी बहुत सारी कविता पर विचार करना पड़ता है जो आपके जैसी या आपकी धारा की कविता नहीं है।
7.क्या आप मानते हैं कि कवि-आलोचकों के साथ आलोचना ने न्याय नहीं किया है, अक्सर आलोचना ऐसे कवियों की आलोचना करते वक्त कविता के साथ उसकी आलोचना को हमेशा ध्यान में रखती है और प्रायः उसकी कविता पर आलोचना के पूर्वग्रहों के चलते उस पर एक तरफा टिप्पणी जड़ देती है।
उत्तर- किसी हद तक इसका मैं शिकार हुआ हूँ: मेरी आलोचना से क्षुब्ध मेरी कविता से भी बेरुखी बरतते रहे हैं। आलोचना-जगत् में,खासकर उसके विशाल अकादेमिक अंग में, कवियों की आलोचना को वैसी मान्यता नहीं मिली है जिसकी कि वह हकदार है। कवि-आलोचक होना जोखिम उठाना है- आलोचना की साफगोई का नतीजा कविता को भुगतना पड़ता है।
8.’फिलहाल’, ‘कविता के नए प्रतिमान’ के बाद का एक सार्थक प्रस्थान है, लेकिन उसके बाद आपकी जो आलोचना पुस्तकें हैं उनसे आलोचना की कोई खास थीम विकसित नहीं होती दिखती जो ‘फिलहाल’ के आगे का प्रस्थान साबित हो सके। जबकि आपसे उम्मीद थी कि आप नई कविता,अकविता के बाद इधर की कविता के ऊपर कोई व्यवस्थित पुस्तक लिखेंगे। यह उम्मीद इसलिए भी कि आपने कई कवियों के ऊपर पहले पहल निबंध लिखे हैं: विनोद कुमार शुक्ल, धूमिल, रघुवीर सहाय, मुक्तिबोध भी। ऐसा अब क्यों नहीं?
उत्तर- यह सही है कि मैंने इधर की कविता पर व्यवस्थित रूप से नहीं लिखा। वैसे तो फिलहाल भी व्यवस्थित ढंग से नहीं लिखी गयी थी और मैंने सोचा नहीं था कि एक पुस्तक बन जायेगी। तब के लिखे हुए अधिकांश को पुस्तक में एकत्र करने का सुझाव नामवर जी ने दिया था। इधर की कविता पर न लिखने का एक कारण तो यह है कि उस पर लिखनेवाले अब बहुत हैं। दूसरे,यह शायद मेरी ही कमजोरी है कि मैं आज की अधिकांश कविता में अभिधा के वर्चस्व के चलते उसमें अर्थ की निहित छबियाँ और छटाएँ, अविवक्षित मानवीय आशय और अंतर्ध्वनियां प्रायः नहीं पाता हूँ जिन्हें स्पष्ट करने के लिए आलोचनात्मक उद्यम की जरूरत हो। तीसरे, इधर मेरा आलोचनात्मक ध्यान शास्त्रीय संगीत और ललित कलाओं की ओर अधिक रहा है और वही लिखता रहा हूँ।
9. आपने आलोचना की भाषा को लेकर ऐतिहासिक कार्य किया है। आपने हिन्दी आलोचना को बहुत-से नए शब्द दिए हैं। ऐसी पारदर्शी,बेबाक, सूक्ष्म, चमकीली भाषा नामवर सिंह के बरक्स आप में ही है। आपने कविता के भाषा के समानान्तर आलोचना की भाषा का निर्माण कैसे किया?
उत्तर- कवि जब गद्य लिखता है तो अगर वह किसी अकादेमिक विवशता में न फँसा हो,उसका गद्य औरों से अलग होगा। जो कुछ हुआ स्वाभाविक ढंग से ही हुआ। इधर कुछ लोग शिकायत करते हैं कि मैं कुछ अधिक संस्कृत निष्ठ हो रहा हूँ। सूक्ष्मता और जटिलता से निपटने के लिए हमें तत्सम का सहारा लेना ही पड़ता है… कम से कम मुझे तो।
10.’फिलहाल’ से गुजरते हुए आचार्य शुक्ल का एक पद याद आता है ‘विरुद्धों का सामंजस्य’। इस पर आपकी टिप्पणी। साथ ही ‘फिलहाल’के निबंधों से लगता है कि आप आलोचक के दो-टूक निर्णय के विरोधी हैं?
उत्तर- शुक्ल जी के इस अद्भुत और स्मरणीय पद का मैंने भी कई बार इस्तेमाल किया है। आलोचना में तो ऐसा सामंजस्य उसकी वस्तुनिष्ठता और रेंज के लिए अनिवार्य है। जो अपने विचार और दृष्टि से अलग और विलोम को विचार में न ले सके वह आलोचक क्या? लेखक वही होता है जो लगातार अपनी दृष्टि विन्यस्त और विकसित करता है पर उस पर सन्देह भी करता रहता है। सचाई हमारी दृष्टि का उत्पाद नहीं होती… वह हमेशा उससे बड़ी होती है।
आम तौर पर आलोचक को निर्णायक की भूमिका नहीं निभाना चाहिये। बाइबिल की प्रसिद्ध उक्ति ‘फैसला मत दो क्योंकि तुम पर भी फैसला दिया जायेगा’ आलोचना पर बखूबी लागू होती है। पर फैसला दिये बिना भी आलोचना को अच्छे और ख़राब में, उत्कृष्ट और मीडियोकर में भेद कर सकना चाहिये।
11.’फिलहाल’जब प्रकाशित हुई, तो उसकी काफी चर्चा हुई थी। तब से लेकर अब तक आपकी दृष्टि में क्या और कितना जुड़ा है?आलोचक के रूप में आप अपनी क्या भूमिका आज मानते हैं?
उत्तर- ‘फिलहाल’ कविता-केन्द्रित पुस्तक है। उसकी बुनियादी अवधारणाओं में क्या जुड़ा-घटा इसका आकलन दूसरे ही कर सकते हैं। अपनी रूचि का भूगोल मैंनें इस बीच, विस्तृत करने की चेष्टा की है, विशेषतः शास्त्रीय, अन्य कलाओं को शामिल करते हुए। राजनीति,समाज, धर्म, मीडिया आदि भी मेरे विचार क्षेत्र में शामिल हुए हैं। अपनी भूमिका को अतिरंजित कर देखना मुझे जरूरी नहीं लगता। अधिक से अधिक मैं दूसरा पक्ष हूँ- वेध्य,शंकालु, प्रश्नवाची और खुला हुआ।
12.मुक्तिबोध आलोचना को ‘सभ्यता समीक्षा’कहते हैं, इससे आप कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर- किसी न किसी स्तर पर आलोचना, अगर वह सच्ची और गहरी है तो सभ्यता-समीक्षा होती है। आलोचना तात्कालिक से मुँह नहीं फेर सकती पर उसे समयातीत की अवहेलना भी नहीं करना चाहिये। अपने आदर्श रूप में आलोचक सभ्यता का प्रवक्ता भी होता हैः वह सभ्यता के आलोक में साहित्य और कलाओं को देखता-समझता है।
13.’बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाये’ज्यादा याद किया जाता है, ‘अकेलापन का वैभव’ की तुलना में, ऐसा क्यों?जबकि दोनों अज्ञेय की कविता पर आपके शुरूआती निबंध हैं और ‘फिलहाल’ में ही संकलित हैं।
उत्तर- उस निबन्ध को अज्ञेय का मेरा समग्र मूल्यांकन मानने की भूल हुई है और उसके शीर्षक से कुछ सनसनी भी फैली। वह अज्ञेय के एक संग्रह की समीक्षा भर था। दूसरा निबन्ध अज्ञेय को समग्रता में देखने की चेष्टा था। हमारा समय प्रहार में, खण्डन-मण्डन के गणित में इस कदर फँसा है कि उसे समग्रता में रूचि ही नहीं रह गयी है। सो दूसरा निबंध अलक्षित गया!
Tags ashok vajpeyi sunil mishra सुनील मिश्र
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