बदलाव हमेशा नई उम्मीदों को लेकर आता है. ‘आलोचना’ पत्रिका के नए संपादक के रूप में अपूर्वानंद का नाम सुनकर उम्मीद जगी है. अब यह खबर पक्की है कि ‘आलोचना’ पत्रिका के 53वें अंक से उसके संपादन का दायित्व श्री अपूर्वानंद संभालेंगे. यह उम्मीद तब भी जगी थी जब 8-9 साल पहले कवि अरुण कमल ने इसके संपादन का दायित्व संभाला था. मुझे शुरू के तीन अंकों में उनके साथ बतौर संयुक्त संपादक काम करने का सुयोग मिला भी था. वे कुछ हट कर करना चाहते थे, प्रोफेशनल समीक्षकों, लेखकों से पत्रिका को बचाना चाहते थे. लेकिन किससे बचाकर, किसको स्थापित करना चाहते थे यह आखिर तक समझ में नहीं आया.
यह सच है कि इस समय ‘आलोचना’ बुरी तरह अप्रासंगिक पत्रिका बन चुकी है. प्रकाशक के रसूख से उसकी प्रसार संख्या तो अच्छी है, पुस्तकालयों-संस्थाओं में उसकी सदस्यता आज भी ली जा रही है लेकिन पटना के महाकवि ने कोई ऐसा अंक निकाला हो जिसे संभाल कर रखा जा सकता हो मुझे याद नहीं आता. नहीं, मैं किसी दुर्भावनावश ऐसा नहीं कह रहा हूँ. नामवर सिंह ने इस पत्रिका को आलोचना के मानक के तौर पर स्थापित किया था. इसमें छपना श्रेष्ठता की निशानी होती थी. न जाने कितने युवाओं को इसने एक पुख्ता जमीन दी. बोधिसत्व, देवी प्रसाद मिश्र जैसे न जाने कितने कवियों को उस दौर में ‘आलोचना’ ने प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया. मुझे याद आता है कि हिंदी में उत्तर-आधुनिकता को लेकर पहला लेख भी 80 के दशक के आरम्भ में ‘आलोचना’ में ही छपा था. न जाने कितनी कृतियों को लेकर उस दौर में आलोचना ने बहस चलाई थी. मुझे याद आता है कि मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कसप’ को लेकर कुछ यादगार समीक्षाएं आलोचना में ही छपी थी, और विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के साथ उनका पत्रव्यवहार भी. मैं जो बात कहना चाह रहा हूँ वह यह है कि नामवर सिंह ने पत्रिका को निजी आग्रहों-दुराग्रहों से दूर रखा और उसे श्रेष्ठता के एक पैमाने की तरह से स्थापित किया.
नई शताब्दी में ‘आलोचना’ की दूसरी पारी जम नहीं पाई. इसके दोनों संपादकों ने पत्रिका का अश्वमेघ के घोड़े की तरह इस्तेमाल किया, जिसे लेकर वे हिंदी समाज में दिग्विजय के लिए निकल पड़े. एक जमाने में ‘आलोचना’ में प्रकाशित होना अपने बेहतर लिखने का पैमाना था, जबकि नए दौर में इसमें छपना-छपाना इससे तय होने लगा कि संपादकों से आपके रिश्ते कैसे हैं, आप उनको किता खुश कर पाते हैं.
अपूर्वानंद को मैं एक उदार बुद्धिजीवी के तौर पर देखता हूँ. हाँ, यह सही है कि हिंदी आलोचना-लेखन में उनका योगदान पारंपरिक अर्थों में ‘बड़ा’ नहीं है. लेकिन यह कोई पैमाना नहीं हो सकता. वे हिंदी के प्रोफ़ेसर हैं, लेकिन एक ऐसे प्रोफ़ेसर हैं जिनकी ख्वाहिश हिंदी को विचार की भाषा के रूप में गंभीरता से स्थापित करने की है. नयेपन के प्रति वे आग्रहशील रहे हैं. उनसे यह उम्मीद सबसे अधिक है कि वे एक बार फिर ‘आलोचना’ को एक मानक पत्रिका के रूप में स्थापित करने में अपनी महती भूमिका का जिम्मेदारी से निर्वहन करेंगे. इसे एक सार्वजनिक विचार के मंच के रूप में स्थापित करेंगे. एक पाठक के रूप में संपादक से मेरी यही अपेक्षाएं हैं. पत्रिका को शुभकामना!
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