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काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘उपसंहार’ का पाठ-विश्लेषण

बड़ा लेखक वह होता है जो अपने ही बनाए सांचे को बार-बार तोड़ता है, फिर नया गढ़ता है. काशीनाथ सिंह का नया उपन्यास ‘उपसंहार’ ‘काशी के अस्सी’ के पाठकों को पहले चौंकाता है फिर अपने साथ बहाकर ले जाता है. कृष्ण के अंतिम दिनों को आधार बनाकर लिखा गया यह उपन्यास न जाने कितने सवाल उठाता है. युवा कथाकार शशिभूषण द्विवेदी की कलम से पढ़िए ‘उपसंहार’ का पाठ-विश्लेषण- मॉडरेटर. 
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काशी का अस्सीफेम वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह का नया उपन्यास है उपसंहार’  जो महाभारत के नायक, खलनायक, विदूषक और दार्शनिक श्रीकृष्ण के जीवन के अंतिम दिनों की कथा है। जो लोग काशीनाथ सिंह को सिर्फ काशी का अस्सीसे जानते हैं उन्हें यह उपन्यास चौंकाएगा। हालांकि चौंकाएगा तो उन्हें भी जो काशीनाथ जी की रचनाशीलता से कमोबेश पूरी तरह वाकिफ हैं। क्योंकि समकालीन रचनाशीलता में काशीनाथ जी उन गिने-चुने रचनाकारों में हैं जो अपनी लीक खुद तोड़ते हैं। उनकी हर नई रचना पुरानी रचना से अलग ही नहीं कई बार उलट भी होती है।

लोग बिस्तरों पर’, ‘सुबह का डरऔर आदमीनामाके कहानीकार काशीनाथ सिंह अपने पहले और छोटे-से उपन्यास अपना मोर्चामें एक दूसरे ही काशीनाथ सिंह होते हैं। एंग्री यंग मैनकाशीनाथ सिंह। फिर अपने संस्मरणों— ‘घर का जोगी जोगड़ा’, ‘आछे दिन पाछे गएऔर याद हो कि न याद होके काशीनाथ सिंह बिल्कुल अलग हैं। श्रद्धा से भरपूर, मासूम और तरल संवेदना के काशीनाथ सिंह। उपन्यासों की दुनिया में अपना मोर्चा’  के बाद वे लंबे समय तक खामोश रहे। फिर आया काशी का अस्सी, ‘रेहन पर रेग्घू’, और महुआचरित’, (हालांकि यह एक खराब लंबी कहानी ही है जो छपा उपन्यास के रूप में)। तीनों ही भाषा, शिल्प और कथ्य में बिल्कुल अलग हैं। अपना मोर्चा का कथाकार कासी का अस्सी तक आते-आते बिल्कुल बेबाक, बिंदास और हंसोड़ गप्पी में बदल जाता है। लेकिन जो नहीं बदलता वह है सामाजिक सरोकारों को लेकर उनकी प्रतिबद्धता और काशी को लेकर उनका लगाव। काशीनाथ जी की अब तक लगभग हर रचना में काशी’ एक  पात्र की तरह रहा है। वह उनसे कभी बिछुड़ा नहीं। इस तरह काशीनाथ जी शायद अकेले ऐसे कथाकार हैं जिनकी लगभग पूरी रचनाशीलता में उनका शहर उनका नायक है।
लेकिन उपसंहार’ उनकी पहली ऐसी रचना है जिसमें काशी’ उनसे बिछुड़ा है। या बिछुड़ा भी नहीं, बल्कि कहें कि काशी के घेरे  को उन्होंने तोड़ा है। और यह घेरा तोडऩा भी कुछ ऐसा है जिसमें बिल्कुल एक नए काशीनाथ सिंह के दर्शन होते हैं।
उपसंहार’ में श्रीकृष्ण के बहाने वे पहली बार जन्म, मृत्यु, जीवन और काल के दार्शनिक प्रश्नों से रू-ब-रू होते हैं। महाभारत में श्रीकृष्ण का पात्र अकेला ऐसा पात्र है जो जीवन के किसी पक्ष से अछूता या अधूरा नहीं है। वे विराट आत्मा हैं। वे एक साथ नायक भी हैं, ,खलनायक भी हैं, विदूषक भी हैं, योगी भी हैं, भोगी भी हैं और अंतत: इन सबसे निर्लिप्त एक  तटस्थ काल-प्रेक्षक  भी हैं।

 काशीनाथ जी ने अपने इस उपन्यास में इन्हीं श्रीकृष्ण के अंतिम समय को उठाया है जिसके बारे में इतिहास, पुराण और श्रुतियां लगभग खामोश हैं या कम बोलती हैं। महाभारत भी इस बारे सिर्फ संकेत भर देकर खामोश हो जाता है। महाकाव्य की इस खामोशी को काशीनाथ जी ने अपने लिए एक चुनौती के रूप में स्वीकारा है जिसका नतीजा है यह उपन्यास।
चरम सफलता में निहित है एकाकीपन का अभिशाप’यह इस उपन्यास का सूत्रवाक्य है। श्रीकृष्ण का जीवन भी इस चरम सफलता के एकाकीपन का ही प्रतिबिंब है। उनके जीवन के कई पक्ष हैं। एक पक्ष गोकुल, वृंदावन के नटखट गिरधारी का है जो गाय चराता है, माखन चुराता है, अपनी मुरली से गोपिकाओं को रिझाता है, रास रचाता है। दूसरा पक्ष योद्धा श्रीकृष्ण का है जिसका पूरा जीवन ही युद्ध और उससे जुड़े संकटों का सामना करते बीता है। इसकी शुरुआत गोकुल और वृंदावन से ही हो जाती है जो मथुरा में कंस के वध के बाद पूरे आर्यावर्त में राक्षसों  के संहार से होती हुई महाभारत के विराट युद्ध तक पहुंचती है।

इस पूरे दौर में योद्धा श्रीकृष्ण के साथ कूटनीतिज्ञ श्रीकृष्ण के भी दर्शन होते हैं जो धर्म-अधर्म और नीति-अनीति की परिभाषाएं ही उलट-पुलट देता है। गीता में यही श्रीकृष्ण अपने विराट रूप में हैं। यहां वे सामान्य इंसान से भगवान में बदल जाते हैं। यह उनकी चरम सफलता है और यहीं से उनका चरम एकाकीपन भी शुरू होता है।

महाभारत के श्रीकृष्ण द्वारकाधीश भी हैं। कंस के वध के बाद उसके ससुर जरासंध ने मथुरा में श्रीकृष्ण का जीना हराम कर दिया। एक के बाद एक सत्रह आक्रमण हुए मथुरा पर। मथुरा हर समय संकट से घिरी रहने लगी। थक-हारकर कृष्ण ने मथुरा छोडऩे का निर्णय ले लिया। अपने पूरे यदुकुल को समेटकर वे पश्चिमोत्तर समुद्र तट पर आ बसे। यहां एक नई नगरी बसाईद्वारका। देखते ही देखते द्वारका अपने वैभव और समृद्धि में पूरे आर्यावर्त को मात देने लगी। यहां श्रीकृष्ण का एक और रूप उभरकर आयाप्रशासक श्रीकृष्ण का।

बेशक महाभारत इतिहास नहीं है, लेकिन अगर परंपरा को इतिहास की तरह देखा जाए तो श्रीकृष्ण पहले शासक हैं जिन्होंने सामंती शासन व्यवस्था के उलट लोकतांत्रिक  गणराज्यों की स्थापना की। द्वारका इन गणराज्यों का केंद्र था।
उपसंहार’ में काशीनाथ जी श्रीकृष्ण के साथ-साथ इन पहले गणराज्यों के विनाश की मार्मिक कथा भी कहते हैं।
दरअसल, इन गणराज्यों को लेकर श्रीकृष्ण की जो कल्पना थी वह शायद अपने समय के प्रतिकूल थी। द्वारका में वे जाति, गोत्र और वर्ण से इतर वे एक समावेशी समाज की स्थापना  का प्रयास कर रहे थे जो शायद तत्कालीन ब्राह्मणवादी व्यवस्था का बर्दाश्त नहीं हुआ। काशीनाथ जी द्वारका के विनाश संबंधी मिथकों की जो व्याख्या करते हैं उससे तो यही नतीजा निकलता है।
उपन्यास में श्रीकृष्ण बलराम से कहते हैं—‘असल बात क्षत्रियों-यादवों की नहीं है। एक प्रश्न मेरे मन में बराबर गूंजता है तब भी कि क्या मनुष्य का मनुष्य होना ही काफी नहीं है? फिर क्यों उसे वर्णों में बांटा गया? फिर क्यों कहा गया कि यह क्षत्रिय है, यह ब्राह्मण है, यह वैश्य है, यह शूद्र। द्वारका में तो सब यादव हैं चाहे वे खेती करें, चाहे व्यापार, चाहे लोहे-लकड़ी के काम…और रही बात ईश्वर की तो मैं ईश्वर कहो या वासुदेवहोना चाहता था क्योंकि उसकी कोई जाति नहीं होती, वर्ण नहीं होता, गोत्र नहीं होता। अकेला वही है जो वर्णाश्रमों से मुक्त है।
उपन्यास में वर्णाश्रम के खिलाफ श्रीकृष्ण का विरोध जगह-जगह मुखर है (हालांकि ऐसा गीता में नहीं है)। जब श्रीकृष्ण का पुत्र सांब खेल-खेल में ऋषियों से एक छोटा-सा मजाक कर देता है तो ऋषिगण द्वारका और संपूर्ण यदुकुल के विनाश का श्राप दे देते हैं। फिर श्रीकृष्ण सांब को समझाते हुए कहते हैं—‘यहीं चूक हुई तुमसे। वे हंसी-मजाक नहीं जानते। खुशी-उल्लास नहीं जानते। मुस्कुराना-हंसना नहीं जानते। वे कमंडल में शाप और मृत्यु लिये घूमते रहते हैं। ऋषि हैं, सिर्फ रोष करना जानते हैं।

इसी तरह जब दुर्वासा द्वारका आते हैं और श्रीकृष्ण और रुक्मणी को नंगा कर बैलगाड़ी में जोतते हैं तो श्रीकृष्ण सोचते हैं—‘यह आदमी क्यों आया था? क्या साबित करना चाहता था सबके सामने? किसकी दिलचस्पी होती है यह जानने में कि वह कैसे मरेगा? कहां मरेगा? और यही बताना था तो सरेबाजार नंगा करके घुमाने की क्या जरूरत थी? क्यों आया था? क्या यह जताने आया था कि देख लो अपनी औकात। हम हैं जो तुम्हें ईश्वर बना सकते हैं तो मटियामेट भी कर सकते हैं?…आप ब्राह्मण हैं इसलिए अवध्य हैं। आपने अपने लिए शाप या वरदान देने की एक ऐसी शक्ति रख ली है जिसकी काट सृष्टि में किसी के पास नहीं है। न उसका कुछ खड्ग बिगाड़ सकता है, न तीर-धनुष। यह कैसी मानव-संहिता बनाई है मुनिवर?
अंतत: इन ब्राह्मणों के शाप से ही द्वारका और यदुकुल का नाश होता है। सब आपस में ही लडक़र मर जाते हैं और कभी भगवान रहे श्रीकृष्ण भी आखिरकार एक लाचार बूढ़े की तरह जंगल में बहेलिए के हाथों मारे जाते हैं जो वास्तव में उन्हीं का एक सौतेला भाई था।

यहां श्रीकृष्ण जीवन-मृत्यु, सत्ता और काल के विराट प्रश्नों से जूझते हैं और उन्हें खुद गीता के अपने प्रवचन खोखले लगने लगते हैं।

इस तरह उपन्यास में भगवान श्रीकृष्ण का वह मनुष्य रूप सामने आता है जो काल के हाथों लाचार है। और हां, इस उपन्यास के माध्यम से काशीनाथ जी का भी पहली बार एक नया सांस्कृतिक रूप सामने आता है जिसकी पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।

यह पाठ-विश्लेषण ‘पाखी’ में शीघ्र प्रकाश्य है. 

‘उपसंहार’ का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन ने किया है. 
 
      

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2 comments

  1. Shashi Bhushan jee Haardik dhanyavaad ! Achchhi sameeksha hai… Abhaar Prabhaat jee

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