नई सरकार के आने के बाद ‘जनसत्ता’ में श्री उदयन वाजपेयी ने एक लिखा संस्कृति पर, जिसको लेकर एक लम्बी बहस चली. उस बहस का समापन प्रियदर्शन के इस लेख से हुआ- मॉडरेटर
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उदयन वाजपेयी को मैं इतना नहीं जानता कि उनके चरित्र के बारे में टिप्पणी कर सकूं। यह मेरा स्वभाव भी नहीं। जिसे वह अपना चरित्र हनन बता रहे हैं, वह दरअसल एक लेखक के रूप में एक संदिग्ध ‘पोजीशन’ को लेकर की गई टिप्पणी भर है। राजसत्ता के सीधे फ़ायदे ज़रूरी नहीं होते, उसके लिए बेईमान बनने की ज़रूरत नहीं होती- सत्ताओं को मालूम होता है कि कौन उनके लिए उपयोगी है, कौन उनका ‘लेखक’ है।
सवाल है, इसे मैं ‘संदिग्ध पोजीशन’ क्यों कह रहा हूं। उदयन वाजपेयी बहुसंख्यक परंपरा और बहुसंख्यकवाद को एक कर देते हैं, वे हिंदुत्व और हिंदुत्ववाद को मिला देते हैं। मैं भी बहुसंख्यक परंपरा और समूह का हिस्सा हूं और इस नाते चुपचाप हासिल अपने विशेषाधिकारों से परिचित हूं। मैं जानता हूं कि हिंदू रीतियों-नीतियों की आलोचना मेरे लिए जितनी आसान है, किसी अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाले शख्स के लिए उतनी ही ख़तरनाक। वे हिंदू परिपाटियों के पुनरुद्धार की उम्मीद करते हैं और पुणे का हिंदू रक्षक दल 27 साल के एक लड़के को मार डालता है, दूसरों की इस तरह पिटाई करता है कि वे अपनी पहचान छुपाने लगते हैं। आने वाले दिनों में रामसेने, हिंदू जागरण दल और ऐसे ही दूसरे संगठनों की कुछ और पुनरुद्धार परियोजनाएं सामने आ सकती हैं।
बहुसंख्यक होना और बहुसंख्यकवाद की राजनीति करना बहुत अलग-अलग चीज़ें हैं। यह बताना कि हमने अल्पसंख्यकों को चार फ़ीसदी पर नहीं रोक रखा है, कहीं यह याद दिलाना है कि वे जैसे हमारी कृपा पर निर्भर हैं- यह सांस्कृतिक बहुलता की नहीं, बहुसंख्यक वर्चस्व की रणनीति है। निस्संदेह भारत की ढाई-तीन हज़ार साल की सभ्यता ने अपनी एक समरस और सौहार्दपूर्ण दृष्टि विकसित की है जो हमारे संस्कारों में बद्धमूल है। इस संस्कार को यहां की सांस्कृतिक बहुलता ने मिल कर बनाया है और इसमें बहुसंख्यक आबादी का बड़ा योगदान है। संकट यह है कि जो लोग इस सांस्कृतिक सौहार्द को नष्ट कर, एक आक्रामक बहुसंख्यकवाद को स्थापित करना चाहते हैं, उदयन वाजपेयी उनका बचाव करते हैं, उनसे परंपराओं के पुनरुद्धार की उम्मीद करते हैं।
उदयन यह शिकायत करते हैं कि उनके आलोचकों ने नया कुछ नहीं लिखा है और खुद शीतयुद्ध की राजनीति और सोवियत-अमेरिकी वैश्विक व्यवस्थाओं पर बासी भोजन परोस देते हैं। लोहिया का यह बहुत पुराना और प्रसिद्ध वाक्य है कि पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों एशिया पर यूरोपीय वर्चस्व के आखिरी हथियार हैं। उदयन 400 साल की यूरोपीय-अमेरिकी विश्व व्यवस्था और महज 70 साल टिकी सोवियत व्यवस्था को लगभग समांतर खड़ा करते हैं और दोनों के कुछ बुनियादी फर्कों को भुला देते हैं। यूरोपीय अमेरिकी वैश्विक व्यवस्था के मूल में एशिया और अफ्रीका की लूट की लालसा थी, जबकि सोवियत विश्व व्यवस्था एक दूसरे और कहीं ज़्यादा बड़े सपने से पैदा हुई थी। रूसी साम्यवाद कोई इकहरी परिघटना नहीं है। उसका वास्ता औद्योगिक क्रांति के बाद की विषमता से दुनिया भर के आक्रोश से रहा है। 1789 की फ्रांसिसी क्रांति से लेकर 1917 की रूसी क्रांति के बीच बहुत सारे मजदूर आंदोलन आते हैं, 1848 के आसपास लिखा कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो आता है, नेपोलियन का साम्राज्यवाद आता है, एशियाई मुल्कों में यूरोपीय साम्राज्यवाद का लगभग अटूट और अविच्छिन्न लगता सिलसिला आता है, लेनिन आते हैं, और फिर वह बोल्शेविक क्रांति आती है जो बाद में पूंजीवादी मुल्को से इस तरह टकराई कि दुनिया दो हिस्सों में बंटती दिखी। बेशक इसमें जोसेफ स्टालिन भी आए और बहुत सारे लोगों के लिए मार्क्सवाद के सपने को दु;स्वप्न में बदलने वाली सच्चाई भी आई, लेकिन इसके लिए रूस ही नहीं, उस यूरोप और अमेरिका के खून रंगे हाथ भी ज़िम्मेदार थे जिनकी उदारता पर उदयन वाजपेयी बहुत भरोसा कर रहे हैं।
सच तो यह है कि आदिवासी इलाकों में अंग्रेजों से भी ज़्यादा जिस भयंकर लूट का अफ़सोस वाजपेयी कर रहे हैं, उसके लिए यह पूंजीपरस्त और मुनाफ़ाखोर भूमंडलीकरण ही ज़िम्मेदार है। देश के भीतर ही एक उपनिवेश बना रहे इस भूमंडलीकरण को प्रश्नांकित करने की जगह उदयन इसकी उस ऐतिहासिक अवस्थिति को ही नकारने की कोशिश करते हैं जो 1991 के बाद की शीत शांति में विकसित हुआ है। बाकी मुल्कों को छोड़ दें, भारत अपने ही एक बड़े हिस्से को उपनिवेश बनाकर महाशक्ति होने की लालसा पाल रहा है।
जो नई सरकार आई है, वह इस अंदरूनी उपनिवेशवाद को रोकेगी, इसके कोई संकेत अभी तक नहीं मिले हैं। विस्थापितों के पुनर्वास का समुचित इंतज़ाम किए बिना नर्मदा के सरदार सरोवर की ऊंचाई को 138 मीटर से ऊपर ले जाने का फ़ैसला सबसे ज़्यादा मध्य प्रदेश के किसानों पर भारी पड़ने वाला है- यह बात पता नहीं, उदयन को मालूम है या नहीं। पर्यावरण की फिक्र से बेपरवाह औद्योगिक विकास की परियोजनाओं को मंज़ूरी देने-दिलाने की हड़बड़ी से किसके हित सधते हैं- यह भी शायद उन्हें समझने की ज़रूरत है।
उदयन यह सब नहीं देखते, क्योंकि वे राजनीति को प्रक्रियाओं की जगह व्यक्तियों की मार्फत पढ़ना चाहते हैं। यहां फिर उनकी दूसरी असावधान गलतबयानी सामने आती है। बिना पद या ज़िम्मेदारी के ताकत हासिल करने का अनैतिक काम मूलतः संघ परिवार करता है जो परदे के पीछे बना रहता है और मोहरों को आगे बढ़ाता है। सोनिया गांधी कांग्रेस की ही नहीं, यूपीए की भी अध्यक्ष हैं और इस नाते उन्हें बाकायदा कैबिनेट मंत्री का दर्जा हासिल था। यही नहीं, उन्होंने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद भी बनाई जिसके फैसलों का नतीजा सूचना, शिक्षा और रोज़गार की गारंटी से जुड़े वे अधिकार हैं जिन्होंने सरकार को कहीं ज़्यादा जनपक्षीय, ज़िम्मेदार और पारदर्शी भी बनाया। इन्हीं कानूनों की बदौलत वे भ्रष्टाचार भी सामने आए जो यूपीए सरकार के बहिर्गमन की वजह बन गए।
क़ायदे से उदयन को इस बात पर चिंतित होना चाहिए कि हिंदुत्व की राजनीति सबसे ज़्यादा हिंदुत्व के अध्यात्म का परिसर नष्ट करेगी, लेकिन वे खुश हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे हिंदुत्व को- जिसे वे बहुसंख्यकवाद बताते हैं- को बल मिलेगा। वे हिंदू परिपाटी के उद्धार की बात करते हैं लेकिन भूल जाते हैं कि कोई भी स्वस्थ परिपाटी न्याय के प्रति संवेदनशील हुए बिना विकसित नहीं की जा सकती।
दरअसल एक ऐतिहासिक विकास क्रम में धर्म ने सभ्यता के उषाकाल में मनुष्य को विवेकवान और संवेदनशील बनाने में अहम भूमिका निभाई। लेकिन अब उस विवेक, संवेदना या करुणा के लिए धर्म की ज़रूरत नहीं है, उसके बहुत सारे विकल्प सामने हैं। कविता अपने-आप में धर्म का विकल्प है जो हमें करुण और संवेदनशील बनाती है। ऐसे में धर्म या तो निजी आध्यात्मिक अनुभव की तरह बचा हुआ है या फिर अपने सांगठनिक चरित्र में राजनीति के ख़ूंखार उपकरण के रूप में जिसके भयानक परिणाम हम दुनिया भर में देख रहे हैं। पंजाबी उपन्यासकार गुरदयाल सिंह का ‘परसा’ हो या अंग्रेजी उपन्यासकार ग्राहम ग्रीन का ‘द हार्ट ऑफ द मैटर’, दोनों वास्तविक धार्मिकता के अकेले पड़ते जाने की मार्मिक दास्तानें हैं।
2002 में भारत में भी हमने धर्म के इस राजनीतिक इस्तेमाल का एक भयावह रूप देखा है। उस दौर में अपनी भूमिका को लेकर बिल्कुल निष्कंप और निश्शंक एक शख़्स भारत का प्रधानमंत्री है। उदयन इस क्रूर हिंसा और इससे जुड़ी सतही राजनीति को सभ्यता विमर्श का आवरण देते दिखाई पड़ते हैं, इसीलिए शक होता है। अगर वे मुझे गलत साबित करेंगे तो मुझे खुशी होगी, क्योंकि अंततः एक लेखक के स्वाभिमान को मैं सत्ता की शक्ति से बड़ा मानता हूं, वह बचा रहेगा तो उदयन वाजपेयी के साथ कुछ मैं भी बचा रहूंगा।
यह बहस बेकार है कि इस देश के सत्तातंत्र को किस तरह की विचारधारा चाहिये. हमें न मेड इन अमेरिका विचार चाहिये और न ही मेड इन रशिया. क्योंकि हमारे देश में संविधान के रूप में खुद एक विचारधारा मौजूद है, जिसकी प्रस्तावना में सबकुछ साफ-साफ लिख दिया है. जो इस विचार के खिलाफ जायेगा उसे देशद्रोही माना जायेगा.
दूसरी बात इस देश की सरकारों का गठन विचारों को आकार देने के लिए नहीं होता. यह एक बड़ा कंफ्यूजन है, हमारे देश में सत्ता का परिवर्तन स्वभाविक प्रक्रिया है. यहां तख्तापटल या क्रांति के जरिये बदलाव नहीं होते कि हर बदलाव के बाद सिद्धांत बदल जायें.
हमारे यहां सरकारों का काम पांच साल के लिए व्यवस्थाओं को सुचारू बनाना है और लोगों का जीवन आसान करने का प्रयास करना है. जिस तरह नगरपालिकाओं के संचालन के लिए विचारधारा की जरूरत नहीं उसी तरह देश को चलाने के लिए विचार से अधिक प्रशासनिक कौशल की जरूरत है और अगर कहीं विचार की जरूरत है तो उसके लिए हमारा संविधान काफी है.
इस लिहाज से यह पूरी बहस बेकार है. हम अक्सर इस तरह की बहस में पड़ते हैं और अपना पक्ष चुन लेते हैं, चाहे वह पक्ष प्रशासनिक तौर पर निकम्मा ही क्यों न हो, यही वजह है कि इस आलेख में सोनिया गांधी तक की तारीफ की गयी है… बेहतर यह है कि हम अपने देश में सरकारों का मूल्यांकन उसके कामकाज के आधार पर करना सीखें, विचारधारा और प्रतिबद्धता के आधार पर नहीं…
उत्कृष्ट विश्लेषण ! काश, वह बच्चा बचा रहे जो कह सके–राजा नंगा !
ऐतिहासिक विकास क्रम में धर्म ने सभ्यता के उषाकाल में मनुष्य को विवेकवान और संवेदनशील बनाने में अहम भूमिका निभाई।
2002 में भारत में भी हमने धर्म के…..राजनीतिक इस्तेमाल का एक भयावह रूप देखा है।
एक लेखक के स्वाभिमान को मैं सत्ता की शक्ति से बड़ा मानता हूं,.
वास्तविक धार्मिकता के अकेले पड़ते जाने की मार्मिक दास्तानें हैं।
गलतबयानी सामने है।