आजकल सिनेमा पर गंभीर लेख कम ही पढने को मिलते हैं. फ़िल्में आती हैं, कुछ दिन उनकी चर्चा होती है फिर सब भूल जाते हैं. लेकिन कुछ समय बाद कोई किसी फिल्म पर लिखे, उसके ट्रेंड्स की चर्चा करे तो लगता है इस फिल्म में कुछ था. अभी दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग की शोधार्थी स्मृति सुमन का फिल्म ‘क्वीन‘ पर लेख पढ़ा तो लगा कि उस फिल्म में कुछ तो रहा होगा. अब तक देखी नहीं थी, अब सोच रहा हूँ कि देख ही लूं- मॉडरेटर.
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मेरी नजर में ‘क्वीन’ एक औरत के विकसित होते जाने की यात्रा की कहानी है जो ‘स्व’ के खोने से ‘स्व’ की खोज तक होती है. यात्रा हाल की बहुत सारी फिल्मों के केंद्र में रही है. अभिषेक चौबे की ‘इश्किया’ (2010) और ‘डेढ़-इश्किया’ (2014), सुजय घोष की ‘कहानी’ (2012) गौरी शिंदे की ‘इंग्लिश विंग्लिश’ और इम्तियाज अली की ‘हाईवे’((2014), में एक समान तत्व यह यात्रा ही है जो एक स्त्री की यात्रा है. इन फिल्मों में सबसे साझा तत्व ये है कि इनके स्त्री किरदार बेहद जमीनी है. ‘इश्किया’ की कृष्णा वर्मा, ‘डेढ़ इश्किया’ की बेगम पारा, ‘कहानी’ की विद्या बागची, ‘इंग्लिश विंग्लिश’ की शशि गोडबोले, ‘हाइवे की वीरा त्रिपाठी और ‘क्वीन’ की रानी मेहरा इन सभी किरदारों की एक निजी पहचान है जो एक विशेष जाति, वर्ग, क्षेत्र, समुदाय और सबसे जरूरी की एक स्थानियता के प्रतिनिधि हैं. इन फिल्मों की कोई भी व्याख्या इन संदर्भों की अनदेखी नहीं कर सकता.
ये किरदार किसी निर्वात में नहीं है ये अपने जमीने में गहरे धंसे हुए हैं और समरूपी, एकीकृत अविभाजित भारत के प्रतिनिधि चरित्र होने का बोझ भी इन पर नहीं है. इन किरदारों के नाम का निश्चित संबंध एक विशेष क्षेत्र के विशेष जाति से है. वर्मा सवर्ण कायस्थ या कुर्मी जातियां है, गोडबोले मराठी चितपावन ब्राह्मण है, बागची 24 परगना जिले बंगाल के बगचा के ब्राह्मण है और और मेहरा खत्री. जातिय पहचान के अलावा ये एक समुदाय का भी प्रतिनिधित्व करती हैं. इन किरदारों का संदर्भ भी विविध है कभी ये ग्रामीण, और देहाती है जो गांवों या छोटे कस्बों में है (कृष्णा वर्मा, उच्च जातीय, बेगम पारा, उच्च वर्गीय नवाबी खानदान), कभी बड़े शहरों की ओर छोटे शहरों से विस्थापित (विद्या बागची और वीरा त्रिपाठी) और कभी पश्चिमी दिल्ली की शहरी समुदायिक परिवेश की (रानी मेहरा). एक विशेष पहचान से संबंध के कारण ही ‘क्वीन’ मे कंगना राणावत का चरित्र अपने को इंट्रोड्युस करता है “माइसेल्फ रानी मेहरा फ्राम राजौरी’. इस तरह परिचय देना अनायास नहीं है इस चयन के पिछे एक मंशा है. रानी मेहरा भारत से नहीं है, वह दिल्ली से भी नहीं है, वह सिर्फ़ रजौरी की है. जब वह मजबूत आत्मविश्वास के साथ ‘माइसेल्फ’ कहती है तो यह साफ़ हो जाता है कि वह रानी कान्वेंट शिक्षित नहीं है, वह दिल्ली के किसी बड़े कालेज से भी नहीं है. उसके कपडे पहने के बोध और आवाज से भी यह साफ़ है. वह दिल्ली शहर के कामकाजी वर्ग और समुदाय से ताल्लुक रखती है और उसको अपनी इस ठेठ पहचान के प्रति कोइ भी झिझक नहीं है.
‘क्वीन’ एक तरह से भारत के आधुनिक, अविभाजित, समरूपी, पहचान की आलोचना करती है. और भारत को को एक समरूपी सत्व की तरह निरूपित करने की हिंदी सिनेमा की प्रारंभिक परियोजना से अलग राह बनाती है. ‘क्वीन’ इस मायने में भी अलग है यह एक ही समय में एक यथार्थ को दिखाती भी है और गढ़ती भी है कि भारत में स्त्री अस्मिता भी अलग अलग अस्मिताओं के दायरे में हैं वह एक सी नहीं है, उनका भी वर्ग, जाति और समुदाय है.और इस रूप में स्त्रियां संबंधित जाति, वर्ग, धार्मिक परिवेश की महत्त्वपूर्ण घटक हैं. इन अस्मिताओं को इन्होंने भी आकार दिया हैं और इनकी विकास पर भी इन अस्मिताओं का प्रभाव रहा है इसलिये इस समय ये केवल ‘मिसेज गोडबोले’ या ‘मिसेज बागची’ नहीं है बल्कि ‘शशि गोडबोले’ और ‘विद्या बाग़ची’ हैं.
‘क्वीन’ एक तरह से भारत के आधुनिक, अविभाजित, समरूपी, पहचान की आलोचना करती है. और भारत को को एक समरूपी सत्व की तरह निरूपित करने की हिंदी सिनेमा की प्रारंभिक परियोजना से अलग राह बनाती है. ‘क्वीन’ इस मायने में भी अलग है यह एक ही समय में एक यथार्थ को दिखाती भी है और गढ़ती भी है कि भारत में स्त्री अस्मिता भी अलग अलग अस्मिताओं के दायरे में हैं वह एक सी नहीं है, उनका भी वर्ग, जाति और समुदाय है.और इस रूप में स्त्रियां संबंधित जाति, वर्ग, धार्मिक परिवेश की महत्त्वपूर्ण घटक हैं. इन अस्मिताओं को इन्होंने भी आकार दिया हैं और इनकी विकास पर भी इन अस्मिताओं का प्रभाव रहा है इसलिये इस समय ये केवल ‘मिसेज गोडबोले’ या ‘मिसेज बागची’ नहीं है बल्कि ‘शशि गोडबोले’ और ‘विद्या बाग़ची’ हैं.
आइये फिर ‘क्वीन’ पर लौटते हैं. ‘क्वीन’ में रानी की यात्रा रैखिक नहीं है, यह एक वृतिय यात्रा है, जो कुछ परिवर्तनों के साथ है और यही परिवर्तनों में सिनेमा को एक निर्णायक मजबूती देते हैं. सिनेमा भारत से शुरू होता है और भारत में आ कर अंत होता है, इसका भी एक संदर्भ है जिसकी चर्चा बाद में पहले सिनेमा की उन दृश्यों की चर्चा जो सिनेमा को गहराई देते हैं. सिनेमा के पहले दृश्य में ही रानी का स्वगत चित्रित करता है कि रानी एक परिवारोन्मुखी, प्यारी, निश्छल, सरल, भावनात्मक रूप से निर्भर लड़की है. मंगेतर द्वारा शादी से इनकार किये जाने के बाद भग्न हृदय रानी सदमें में है और हतोत्त्साहित है. लेकिन वह इससे उभरती है और अकेले ही हनीमून पर जाना तय करती है. दर्शक भी उत्सुक होता है कि रानी को खुशी कैसे मिल्गेई शादी से या हनीमुन से? रानी के अकेले ही हनीमुन पर जाने का निर्णय यह साफ कर देता है कि निरुत्साहित होने के बावजूद वह नाजुक नहीं है, वह निश्चय कर सकती है. ‘क्वीन’ में रानी के चरित्र की इस विशेषता को उभारा है कि ऐसा कुछ भी नया नहीं है जो उसके भीतर नहीं है और वह उसे यात्रा में मिलता है, सब कुछ उसके भीतर है, यात्रा यह मदद करता है कि वह अपने अंतः को पहचाने. शुरूआत में वह अकेला महसूस करती है. मंगेतर विजय (राजकुमार राव) को याद करती है, जिस एफिल टावर पर जाना उसका स्वप्न था, वहीं दु:स्वप्न बन कर अब उसे विजय की याद दिलाता है, उसका पीछा करता है, वह भागती है. तब विजयलक्ष्मी (लिजा हेडेन) दृश्य में आती है. विजयलक्ष्मी के रूप में रानी एक साथी पाती है जो उसे एक अपरिचित देश में सहज बनाती है,उसे महसूस कराती है कि वह स्वतंत्र है जिसे वह विजय के साथ नहीं महसूस कर पाती थी. स्वतंत्रता उसे आत्मविश्वास देता है और इस आत्मविश्वास से उसे कर्ता होने का बोध होता है. यह बोध केवल नाचने, गाने और पीने के लिये नहीं बल्कि यह अपनी ही भावनाओं को सम्मान करने के लिये है. यह अपने आप को अकेलेलेपन का शिकार होने से मुक्त करने, संबंधो के बीच के पदक्रम(हाइरार्की) को समझने का बोध है. पेरिस यात्रा के अंत में वह विजयलक्ष्मी को एफ़िल टावर चलने के लिये कहती है. इस तरह एफिल टावर रानी के लिये अपने को पाने का स्थल बन जाता है. ‘क्वीन’ विजयलक्ष्मी और रानी के बीच के संबंध को भी हिंदी सिनेमा की मुख्यधारा में प्रचलित पुरूषों की दोस्ती या स्त्री पुरूष संबंधों (विवाह या प्रेम) के बरक्स देखा जाना चाहिये जिसमें आकांक्षा संबंध के बीच नहीं है बस दोस्ती है, और वह सहज मानवीय भावना है.
पेरिस के बाद रानी अकेले ही एमस्टर्डम जाती है, यहां विजयलक्ष्मी नहीं है, लेकिन अब उसे अकेले आगे बढ़ना है, वह भी आत्मविश्वास से भरी हुई है. उसका सामान का बड़ा बैग अब पीठ पर ढोने वाले बैग में बदल गया है. एमस्टर्डम में वह तीन अजनबियों के साथ कमरा साझा करती है, और इन्हीं अजनबियों के साथ एक अजनबी शहर को खंगालती है. अपनी भोजन रूचियों के कारण एक पेशेवर रसोइये से लड़ जाती है और तर्क करती है कि भोजन केवल प्रामाणिकता और मूल के बारे में नहीं है बल्कि वह वह हमारे खाने के तरीकों और पसंद नापंसद के बारे में भी है. रानी के साथ रह रहे अजनबी धीरे धीरे दोस्त बन जाते हैं, ये तीनों विश्व के तीन अलग अलग कोनों से हैं, बिल्कुल अलग जीवन शैली से. लेकिन चारों एक दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करते हैं, विपरित लिंग का अहसास भी गौण हो जाता है, और रानी सहज हो जाती है. एमस्टर्डम का यह बैकपैकर कमरा भी एक ब्रह्मांडीय स्पेस(कोस्मोपोलिटन) को निरूपित करता है जिसमें नितांत भिन्न मूल और संस्कृति के लोग रहते हैं और एक दूसरे की जीवन शैली का सम्मान करने लगते हैं. इस प्रक्रिया में भाषा बाधक नहीं है, जो महत्त्वपूर्ण है वह यह कि एक दूसरे को समझना और भावनाओं को साझा करना. इस तरह वह बैकपैकर्स कमरा एक ऐसे स्पेस का प्रतिनिधि हो जाता है जो सार्वभौमिक संवेदना को जगह देता है.
‘क्वीन’ की एक विशेष बात यह है कि यह दक्षिण एशियाई कामकाजी स्त्रियों के जरिये विभिन्न विश्वों के जीवन को दिखाकर एक ब्रहांडीय (कोस्मोपोलिटन) सार्वजनिक स्पेस को विस्तारित करता है. विजयलक्ष्मी एक वेटर है, रुखसाना एक पोल डांसर है, और इन महिलाओं ने सार्वजनिक स्पेस को आर्थिक स्पेस की आजादी के साथ हासिल किया है और अपने को सभ्य एवं गरीमामायी सम्मानित महिला के बोझ से खुद को आजाद रखा है. फ़िल्म तीन विभिन्न महिलाओं, जो सर्वथा भिन्न स्थितियों और पृष्ठभूमि से तालुक रखती हैं, के बीच के संवाद को दिखाती है. यह संवाद दो कारणों से महत्त्वपूर्ण है. पहला, यह संवाद रानी को महिला होने के बिल्कुल अलग अनुभव से परिचित कराते हैं. यह स्थिति उसके लिये अपरिचित और कठीन है. दूसरा, ये लड़किया भी रानी सादगी और सहजता से प्रभावित होते है.
वैसे यह रंगमंच की तकनीक है लेकिन ‘क्वीन’ ने भी ब्रेख्त की एलियनेशन तकनीक का सहारा लेता है, जिसमें मंच की घटनाओं को एक दूरी से देखते हैं, घटनाक्रम के प्रवाह में वे बहते नहीं बल्कि वह उसे विश्लेषित करते हैं. ‘क्वीन’ देखते हुए दर्शक भी ऐसा महसूस करता है. इसलिये फ़िल्म में बहुत से ऐसे क्षण हैं जिसमें रानी रोती है, तो दर्शक ताली बजाता है, हंसता है. वह हंसती है तो दर्शक उसके जीवन की विडंबना को समझता है. इस तरह फ़िल्म दर्शकों को यह छूट देती है कि वह चरित्र के साथ आलोचनात्मक रूप से जूड़े. इसीलिये दर्शक सिनेमाई स्थितियों का केवल उपभोक्ता नहीं रह जाता. उदाहरण के तौर पर फिल्म में आये पोल डांस बार लीजिये. इस दृश्य को उत्तेजक बनाना निर्देशक के लिये बहुत सहज था लेकिन उसने बिल्कुल अलग तरीके से दिखाया है. रानी शुरू में डरी हुई है, लेकिन एक प्रक्रिया में सभी इस डांस का मजाक बनाने लगते हैं दर्शक का ध्यान उत्तेजना पर कम डांसरों की स्थितियों पर अधिक जाता है. इस क्रम में यौन हिंसा और शोषण की जगह एक आनंद और मुक्ति की जगह बन जाती है. फ़िल्म इस तथ्य को गढ़ती है को सार्वजनिक स्पेस अपना मूल्य उस तरह भी ग्रहण करती है जिस तरह हम इसे देखते और हासिल करते हैं और स्टीरियोटाइप जगहों का भी अलग और विविध इतिहास हो सकता है.
Tags queen smriti suman
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बेजोड़ विश्लेषण | फिल्म बहुत अच्छी लगी थी, इसका विश्लेषण भी उतना ही सुंदर है | यह फिल्म नारी अस्मिता की खोज की कहानी है जिसे बड़ी बारीकी से स्मृति जी ने उभारा है, बधाई |
बहुत सुंदर यद्यपि फिल्म नहीं देखता हूँ पर विश्लेषण बहुत उम्दा किया गया है ।