शिवमूर्ति ऐसे लेखक हैं जिनसे मैंने काफी सीखा है. जीवन के इस अन्तरंग कथाकार ने अपनी रचना-प्रक्रिया पर लिखा है जो जल्दी ही ‘सृजन का रसायन’ नाम से पुस्तकाकार आने वाली है. उसका एक रोचक, प्रेरक अंश उन्होंने जानकी पुल के पाठकों के लिए भेजा है- प्रभात रंजन
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लेखक के ‘मैं’ में कम से कम दो व्यक्ति समाए होते हैं। एक वह जो साधारण जन की तरह अपने समय से सीधे दो-दो हाथ कर रहा होता है। दूसरा वह जो हर झेले, भोगे, सहे हुए को तीसरे की तरह देखता, सुनता और सहेजता चलता है। यह दूसरा ‘परायों’ के झेले, भोगे को भी उसी तल्लीनता और सरोकार के साथ आत्मसात करता है जैसे स्वयं झेल, भोग रहा हो। कालांतर में इस अपने और पराए की दूरी धीरे-धीरे खत्म होती जाती है।
जब वह दूसरा व्यक्तित्व अपने किसी पात्र में इस झेले, भोगे गए अनुभव को आरोपित करता है, तब तक यह अनुभव खुद लेखक का अनुभव बन चुका होता है। इसीलिए काल्पनिक पात्र के काल्पनिक दुख को चित्रित करते समय निकलने वाले उसके आंसू वास्तविक होते हैं।
कैसे पड़ता है लेखन का बीज किसी के मन में? किस उम्र में पड़ता है? क्या यह जन्मजात होता है? हो सकता है भविष्य के वैज्ञानिक इसका सही और सटीक हल खोजें। पर इतना तो तय है कि प्रत्येक रचनाकार को प्रकृति एक विशिष्ट उपहार देती है। अति संवेदनशीलता का, परदुखकातरता का। अतींद्रियता का भी, जिससे वह प्रत्येक घटना को अपने अलग नजरिए से देखने, प्रभावित होने और विश्लेषित करने में सक्षम होता है। यह विशिष्टता अभ्यास के साथ अपनी क्षमता बढ़ाती जाती है। मां की तरह या धरती की तरह लेखक की भी अपनी खास ‘कोख’ होती है, जिसमें वह उपयोगी, उद्वेलित करने वाली घटना या बिंब को टांक लेता है, सुरक्षित कर लेता है, अनुकूल समय पर रचना के रूप में अंकुरित करने के लिए। जिन परिस्थितियों में शिशु विकसित होता है, वही उसकी जिंदगी की भी नियामक बनती हैं और उसके लेखन की भी। फसल की तरह लेखक भी अपनी ‘जमीन’ की उपज होता है। जब मेरी रचनाओं में गांव-गरीब, खेत-खलिहान-बाग, गाय-बैल, वर्ण-संघर्ष, फौजदारी और मुकदमेबाजी आते हैं तो यह केवल मेरी मरजी या मेरे चुनाव से नहीं होता। मेरे समय ने जिन अनुभवों को प्राथमिकता देकर मेरे अन्त:करण में संजोया है, स्मृति के द्वार खुलते ही उन्हीं की भीड़ निकलकर पन्नों पर फैल जाती हैं।
मुझे कलम पकड़ने के लिए बाध्य करने वाले मेरे पात्र होते हैं। उन्हीं का दबाव होता है जो अन्य कामों को रोककर कागज-कलम की खोज शुरू होती है। जिंदगी के सफर में अलग-अलग समय पर इन पात्रों से मुलाकात हुई, परिचय हुआ। इनकी जीवंतता, जीवट, दुख या इन पर हुए जुल्म ने इनसे निकटता पैदा की। ऐसे पात्रों की पूरी भीड़ है। ये बाहर आने की उतावली में हैं। कितने दिनों तक इन्हें ‘हाइबरनेशन’ में रखा जा सकता है। लिखने की मेरी मंदगति इन्हें हिंसक बना रही है। कितने-कितने लोग हैं। कुछ जीवित, कुछ मृत। कुछ कई चरित्रों के समुच्चय। सब एक-दूसरे को पीछे ढकेल कर आगे आ जाना चाहते हैं। हमारे उस्ताद जियावन दरजी, जिनसे आठ नौ साल की उम्र में मैंने सिलाई सीखी थी। डाकू नरेश गड़ेरिया, बहिन के अपमान का बदला लेने के लिए डाली गई डकैती में मैं जिसका साथ नहीं दे सका। जंगू, जो गरीबों, विधवाओं, बेसहारों के साथ जोर-जुल्म करने वालों को दिन-दहाड़े पकड़कर उनकी टांग पेड़ की जड़ में अटकाकर तोड़ देता है। हर अन्यायी के खिलाफ अनायास किसी भी पीड़ित के पक्ष में खड़े हो जाने वाले धन्नू बाबा। बीसों साल तक बिना निराश हुए और डरे इलाके के जुल्मी सामंत के विरुद्ध लड़ने वाले संतोषी काका। पूरी भीड़। मुझसे और मेरे समय से परिचित होने के लिए आपको भी उन पात्रों, चरित्रों, दृश्यों व बिम्बों से परिचित होना पड़ेगा। विस्तार से न सही, संक्षेप ही में सही। शायद यह मेरे व्यक्तित्व व लेखन को समझने में भी सहायक हो।
मेरा घर, गांव से काफी हटकर, टोले के तीन-चार घरों से भी अलग एकदम पूरबी सिरे पर है। बचपन में चारों तरफ बांस रुसहनी, कटीली झाड़ियों का जंगल और घनी महुवारी थी। आम के बाग तो कमोबेश अभी भी बचे रह गए हैं। जंगल झाड़ के बराबर ही जगह घेरते थे। गांव के चारों तरफ फैले दस बारह तालाब-बालम तारा, तेवारी तारा, दुलहिन तारा, सिंघोरा तारा, पनवरिया तारा, गोलाही तारा आदि। इसी जंगल झाड़, महुवारी-अमराई के बीच से आना-जाना। इन्हीं के बीच खेलना। यह परिवेश बचपन का संघाती बन गया। परिचित और आत्मस्थ। आज भी मुझे अंधेरी रात के वीराने से डर नहीं लगता। डर लगता है महानगर की नियान लाइट की चकाचौंध वाली लंबी सुनसान सड़क पर चलने में। अंधेरे में आपके पास कहीं भी छिप सकने का विकल्प होता है। उजाले में यह नहीं रहता। जाहिर है मेरे मन में खतरे के रूप में हमेशा आदमी होता है। सांप-बिच्छू नहीं। सांप-बिच्छू या भूत-प्रेत के लिए मन में डर का विकास ही नहीं हुआ। यही भाव पानी के साथ है। यद्यपि लगभग डूब जाने या पानी के बहाव में बह जाने की घटनाएं जीवन में कई बार घटीं पर नहर, तालाब, और नदी के रूप में जल स्रोतों से बचपन से इतना परिचय रहा कि पानी से डर नहीं लगता। अथाह अगम जल स्रोत देख कर उसमें उतर पड़ने के लिए मन ललक उठता है।
कुछ बड़े होने पर शेर के शिकार की कथाएं पढ़ता तो लगता कि यह शेर मेरे पिछवाड़े सिंघोरा तारा के भीटे की उस बकाइन वाली झाड़ी के नीचे ही छिपा रहा होगा। महामाई के जंगल में बना काईदार सीढ़ियों वाला पक्का सागर तब भी इतना ही पुरातन और पुरातात्विक लगता था। इसका काला-हरा पानी सम्मोहित करता। लगता कि यक्ष ने इसी सागर का पानी पीने के पहले पांडवों से अपने प्रश्न का उत्तर देने की शर्त रखी होगी। जेठ में, जब सारे कच्चे तालाबों का पानी सूख जाता, बचे-खुचे हिरनों का छोटा झुंड जानवरों के लिए बनाए गए घाट से पानी पीने के लिए उसमें उतरता था। प्यास उन्हें निडर बना देती। तेवारी तारा के भीटे पर अपने बच्चों को बीच में लेकर बैठे झुंड के पास आ जाने पर हिरनी उठकर अपने बच्चे व आगंतुक के बीच खड़ी हो जाती। ज्यादा पास पहुंचने पर सिर झुकाकर सींग दिखाती-खबरदार…! पिताजी बताते हैं कि जहां अब खेत बन गए हैं, वहां जमींदारी उन्मूलन के पहले तक कई मील में फैले निर्जन भू-भाग पर हजारों की संख्या में हिरन थे। कई बार भेड़ों के झुंड के बीच मिलकर चरते थे। जमींदारी समाप्त होते-होते शिकारियों ने अंधाधुंध शिकार करके इनका समूल नाश कर दिया। तेवारी तारा के भीटे पर रहने वाला झुंड गांव वालों द्वारा शिकारियों का विरोध करने के कारण काफी दिनों तक बचा रह गया था।
घर के सामने और दाएं-बाएं फैली विशाल जहाजी पेड़ों वाली महुवारी के पेड़ों पर शाम का बसेरा लेने वाले तोते इतना शोर मचाते कि और कुछ सुनना मुश्किल हो जाता। सावन-भादों के महीने में चारों तरफ पानी भर जाता। तब चार-पांच हाथ लंबे हरे मटमैले सांप महुए की डालों पर बसेरा लेते और चिपके, छिपे इंतजार करते कि कोई तोता पास में आकर बैठे तो वे झपट्टा लगाएं। कभी-कभी पकड़ में आए तोते की फड़फड़ाहट से असंतुलित सांप छपाक से नीचे पानी में गिरता। टांय-टांय का आर्तनाद पूरे जंगल में छा जाता। चैत के महीने में ये सांप इन्हीं पेड़ों के कोटर में घुस-घुसकर तोतों के अंडे-बच्चे खाते। तोते शोर मचा-मचाकर आसमान गुंजा देते पर न कोई थाना न पुलिस। मर न मुकदमा। कोटर का मुंह संकरा हुआ तो कभी-कभी सांप अंदर तो चले जाते पर बच्चों को खाने के बाद पेट फूल जाने के कारण बाहर न निकल पाते। हाथ-डेढ़ हाथ शरीर कोटर से बाहर निकाल कर दाएं-बाएं हिलाकर जोर लगाते और असफल होकर फिर अंदर सरक जाते।
महामाई के जंगल में घने पेड़ों के बीच बने पक्के सागर में नहाने के लिए गांव की औरतें, बच्चे आते तो पीछे-पीछे कुत्ते भी चले आते। सामने तेवारी तारा के भीटे पर दुपहरिया काटते निश्चिंत बैठे हिरनों का झुंड देखकर कुत्तों का अहम फन काढ़ता। दिन दहाड़े आंखों के सामने यह निश्चिंतता। वे भूकते हुए दौड़ते। तेवारी तारा के पूरब सियरहवा टोले से सटकर ऊसर की एक लंबी पट्टी दूर तक चली गई थी, जिसमें सफेद रेह फूली रहती। जाड़े में इस पर नंगे पैर चलने पर बताशे की तरह फूटती और ठंडक पहुंचाती। गर्मी में पैर झुलसाती। कुत्तों को आता देख हिरनों का झुंड इसी पट्टी पर भागता। गजब के खिलाड़ी थे वे हिरन। उतना ही भागते, जिससे उनके और कुत्तों के बीच एक न्यूनतम सुरक्षित दूरी बनी रहे। कुत्ते भला उन्हें क्या पाते। उनके थककर रुकने के साथ ही हिरन भी रुक जाते। बिना सिर घुमाए ही वे कुत्तों का रुकना देख लेते। कुत्ते फिर दौड़ते। बार-बार यही तमाशा। कुत्ते भूंक—भूंक कर, दौड़-दौड़कर बेदम हो जाते। जीभ लटकाए लौट पड़ते। हिरन भी तुरंत लौटते लेकिन तब कुत्ते जानकर भी अनजान बन जाते। पीछे मुड़कर देखना बंद कर देते।
दिमाग के कम्प्यूटर में कोई सेलेक्टर लगा रहता होगा। तभी तो एक ही दृश्य या अनुभव एक के लिए रोजमर्रा की सामान्य घटना होती है और दूसरा जिसे स्मृति में सुरक्षित कर लेता है। स्मृति का भाग बन चुके अनुभव या दृश्य में वक्त गुजरने के साथ मन अपनी इच्छा या कामना के अनुसार परिवर्तन करता रहता है। कालांतर में इस परिवर्तित दृश्य को ही वह खुद भी असली दृश्य मानने लगता है। आपको एक बार स्कूल में दो-तीन लड़कों ने घेर लिया था। आपके मुंह से एक शब्द नहीं निकला था। घिग्घी बंध गई थी। आप डर कर कांपने लगे थे, लेकिन बाद में आपको लगा कि आपने भी उन्हें ललकारा था। बहुत बाद में कई बार सोचने पर आपको लगने लगा कि आपके तेवर देखकर ही तो वे लड़के डर कर पीछे हटे थे। बहुत सारे संवाद भी याद आते हैं, जो उस वक्त किसी ने नहीं सुने लेकिन अब आप गर्व से उन्हीं लड़कों को सुनाते हैं तो वे असमंजस में हुंकारी भरते हैं क्योंकि वे उस घटना को भूल चुके हैं।
पुस्तक राजकमल प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य है.
लेखक संपर्क- 09450178673
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