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हृषीकेश सुलभ की कहानी ‘हबि डार्लिंग’

हृषीकेश सुलभ बिहार की धरती के सम्भवतः सबसे मौलिक इस रचनाकार ने अपने नाटकों में लोक के रंग को जीवित किया तो कहानियों में व्यंग्य बोध के साथ वाचिकता की परंपरा को. समकालीन जीवन की विडंबनाएं जिस सहजता से उनकी कहानियों में आती हैं, जिस परिवेश, जिस जीवन से वे कहानियां उठाते हैं वह उनकी मौलिकता है. उनको पढ़ते हुए कथा सुनने का आनंद भी लिया जा सकता है. फिलहाल उनकी इस कहानी का आनंद लीजिये और उनके दीर्घायु होने की कामना कीजिए- मॉडरेटर.
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     उस रात एक आदिम गंध पसरी हुई थी। यह गंध उसके रन्ध्रों से होती हुई उसके मन-प्राण को हिलोर रही थी। वह भारहीन हो गई थी। फूल की पंखुड़ियों की तरह। आलाप से छिटक कर द्रुत में भटकती आवाज़ की तरह। …..रुई वाली हवा मिठाई के गोले की तरह या फिर……! उसके साथ पहली बार ऐसा हो रहा था। 
     वह पूरे घर में चक्कर काट रही थी। कभी सोने के कमरे में, …कभी ड्राइंग रूम में, तो कभी बालकनी में। कभी बिस्तर पर, कभी सोफे पर, तो कभी डाइनिंग चेयर पर। उसकी देह और उसके मन में, …उसके घर की दीवारों में, …उन पर टँगी तस्वीरों में …हर सामान में, …यहाँ तक कि किचेन के डब्बों-बर्तनों में असंख्य आँखें उभर आई थीं और राह निहार रही थीं। बालकनी के गमलों में फूलों की जगह आँखें ही खिली हुई थीं। वह आ रहा है। बस पहुँचने ही वाला है वह । सच, ऐसा पहली बार हो रहा था। ऐसी आकुलता। ….ऐसी सिहरन। रोम रोम में झिरझिर हवा, …रिमझिम फुहियाँ। वह पिछले कुछ महीनों से उससे मिलती रही है। व्हाट्स एप्प पर चैट कर रही है। फोन पर घन्टों बातें करती है। रेस्तराँ में साथ बैठकर कॉफ़ी पी है। खाना खाया है। पर पहली बार वह घर आ रहा था, उसके आमंत्रण पर। उससे मिलने आ रहा था। निभृत एकांत में उसके साथ होने की कल्पना के जादू में तैर रही थी वह।      
     उसके मोबाइल फोन पर ‘स्लो कॉफ़ी रिंगटोन बजा। और उसका नम्बर चमका और नाम, …नाम नहीं। …..नाम की जगह दर्ज़ था – माय लव। उसने बेचैनी से पूछा – कहाँ हो?”
     लिफ्ट में। उधर से एक जादुई आवाज़ आई। ख़ुशबू से मह-मह करती ऐसी आवाज़, मानो  मख़मल में लिपटी इत्र की शीशी खुल गई हो। …….और वह दरवाज़े की ओर भागी।
     वह दरवाज़े पर था। दरवाज़ा खुला। वह भीतर आया। दोनों ने एक-दूसरे को बाँहों में कस लिया। वह भी द्रुत में भटकती आवाज़ की तरह ही गमक में भटक रहा था। अपने भीतर उमगती श्रुतियों के बीच उबचुभ हो रहा था। रात अभी शुरु ही हुई थी। …..पर रात का क्या ठिकाना, कब ख़त्म हो जाए!
     बमुश्किल बीस-पच्चीस मिनट गुज़रे होंगे कि मोबाइल फिर बजा। और उस पर हबि डार्लिंग चमका। वह कुछ चौंकी पर परेशान नहीं हुई। उधर से आवाज़ आई – कहाँ हो?”
     काँप गई उसकी देह। उसकी आँखें पल भर के लिए बन्द हुईं। हरहरा कर गिरते कदम्ब की छाया लहराई। उसने मुट्ठी में भींचा अपने मन को। 
आकर देख लो। उसके मन्द्र स्वर में चुनौती थी। ललकार।
     आकर तो देखूँगा ही। ……तुम बताओ, हो कहाँ?” धमकी और सवाल दोनों एक साथ। धमकी और सवाल के आवेग हबि डर्लिंग के स्वर में टकराए और उस तक पहुँचे। इस टकराव से फूट रहे स्फुलिंग की छुवन से गहरी पीड़ा उभरी उसके भीतर।
     आओ। ……इंतज़ार कर रही हूँ।
      दोनों एक झटके में द्रुत से वापस आलाप तक पहुँचे। अब वे षड़ज-स्वर में बातें कर रहे थे। काॅफी बनने तक वह सिगरेट फूँकता रहा। काॅफी आई तो उसे जल्दबाज़ी में गटका, हालाँकि जीभ जल रही थी। समय नहीं था। वापस निकलना था। जल्दी से जल्दी, हर हाल में। वह निकल गया। जाते हुए इतनी हड़बड़ी में था कि चूमना तक भूल गया। उसके तपते होठों की मरीचिका में लपटें लहराती रहीं।
     रूई वाली हवा मिठाई की तरह उसकी भारहीन देह, अब उसके उठाए नहीं उठ रही थी। आनन्द के अतिरेक से अभी भी सिहर रही थी उसकी देह। उसके जाने के बाद बेमन पाँव घसीटते हुए दरवाज़े तक गई। ……उसे बन्द किया। ….फिर वापस आकर पलंग पर कटे हुए कदम्ब वृक्ष की तरह धम्म से गिर गई।
     वह आँखें मूँद कर उस कदम्ब को याद कर रही थी। दृश्य गडमगड्ड हो रहे थे। कदम्ब के छोटे से बिरवे का आना। दो आँगन थे। एक भीतर, औरतों के लिए। और दूसरा बाहर, सामने से खुला और तीन ओर से घिरा। एक ओर बैठका और बरामदा। दूसरी ओर बरामदा और अन्न के भरे हुए कोठार। और सामने के खुले भाग के विपरीत तीसरा भीतर वाले आँगन में प्रवेश के लिए बने दोमुँहे से जुड़ा। इसी बाहर वाले आँगन में रोपा गया कदम्ब का बिरवा। वह सात साल की थी। अम्मा ने एक पायल ख़रीद कर पहना दी थी। छुनछुन करती फिरती थी इस आँगन से उस आँगन। कदम्ब बड़ा होता रहा। वह भी। दस साल में वह युवा, बलिष्ठ, ऊँचा और छतनार हुआ। वह भी ऊँची हुई, रंग, नैन-नक्श, छातियाँ, नितम्ब – सब सजे-सँवरे। कदम्ब फूलते। फल बनते। पकते और आँगन की धरती पर गिरते।
     वह शहर में रहने लगी थी। हाॅस्टल में रह कर पढ़ रही थी। पिता और भाई दो-चार दिनों में एक बार आते। कुशल-क्षेम पूछते। ज़रूरतें जानते। हिदायतें देते। उसे यह पता नहीं चल सका था कि जासूसी भी करते थे। और एक दिन भाई ने हास्टल के वेटिंग रूम में उसके कमर तक लहराते केशों को मुट्ठी में भर लिया और घसीट-घसीट कर उसकी सहेलियों और वार्डन के सामने पीटा। वह उस समय रजस्वला थी। रात तक उसे साथ लेकर भाई वापस घर आया। उसकी अम्मा ने पीने के लिए दूध में हल्दी घोलकर दिया। अम्मा को उसके रजस्वला होने की बात मालूम हुई, उन्होंने चैन की साँस ली। पिता को भीतर वाले आँगन में बुलाकर बात की। बताया कि चिंता की कोई बात नहीं। सब ठीक-ठाक है। ईश्वर ने लाज बचा ली।
     भाई दरवाज़े पर नाग की तरह कुंडली मारे बैठ कर फुँफकारता रहता। एक दिन भाई नहीं था। कहीं आसपास ही गया था। वह दोमुँहा पार कर बाहर वाले आँगन में खड़ी थी। कदम्ब को निहार रही थी। उसकी छतनार डालों, गझिन पत्तियों, और लट्टुओं की तरह खिले फूलों को देख रही थी। …वह कदम्ब की आड़ में थोड़ी दूर पर हिलती-डुलती उस छाया को अपनी आँखों से टेर रही थी कि भाई आ गया। वह कदम्ब और कदम्ब के उस पार डोलती छाया में इस कदर खोई हुई थी कि भाई को आते हुए देख नहीं सकी। आते ही वह फुँफकारते हुए फन निकाल कर झपटा। वह सरपट भागी भीतर वाले आँगन में। वह चीख़ रहा था – मना किया था न तुझे कि दोमुँहे से आगे पैर नहीं बढ़ाना। किसे निहार रही थी एक टक? तुझे जो-जो अच्छा लगता है, सब मटियामेट कर दूँगा। तुझे कदम के नीचे राधा बन कर खड़ा रहने का शौक चढ़ा है? मैं इसे जड़ से…….
     उसी दोपहर, भाई ने अपने हाथों कदम्ब को काट डाला। युवा कदम्ब हरहराते हुए गिरा धरती पर।
   
     उसने संयत किया ख़ुद को। उठी। शिफौन की झीनी साड़ी, पेटीकोट, ब्लाउज़, ब्रा – सब खोलकर वार्डरोब में ठूँसा। नंगी देह चलती हुई वाश-बेसिन तक आई। चेहरा धोकर गाउन पहना और बिस्तर पर लेट कर बेमन टीवी आॅन कर दिया। कोई इमोशनल दृश्य चल रहा था। नायक और नायिका गले मिल कर रो रहे थे। उसने साउन्ड म्युट किया और करवट फेर कर कमरे की दीवारों को घूरने लगी।

      दीवारों को घूरती उसकी आँखों में फिर कदम्ब उभरा। कट कर धरती पर गिरा हुआ कदम्ब। क्षत-विक्षत डालें, बिखरी हुई पत्तियाँ और कच्चे फल। जवान पेड़ के कटने के अपशकुन से भयभीत अम्मा का छाती पीट-पीट कर रोना-चिल्लाना। अम्मा के रुदन में घुल रही थी हरहरा कर गिरते कदम्ब की आवाज़। फिर औरतों का गीत-नाद, हल्दी, बारात, बैन्ड-बाजा, परिछावन,

 
      

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2 comments

  1. मार्मिक कहानी पित्रसतात्मक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य

  2. बड़ी ही मार्मिक और डिसेक्शन करने वाली कहानी लिखी है आपने सुलभ जी. धन्यवाद आपका.

    मदन पाल सिंह

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