मैं आरा को नहीं धरहरा, आरा को जानता था, क्योंकि वहां मधुकर सिंह रहते थे. अपने गाँव में रहते हुए जब उनकी कहानियां पढता था तो लगता था अपने गाँव के टोले-मोहल्ले की कहानियां पढ़ रहा हूँ. बाद में जब कहानियां लिखना शुरू किया तो उसके पीछे कहीं न कहीं मधुकर सिंह की उन कहानियों का आकर्षण भी था जिनकी बदौलत उन्होंने धरहरा, आरा को हिंदी साहित्य का अमर गाँव बना दिया. उनकी स्मृति को प्रणाम करते हुए पढ़ते हैं कवि-उपन्यासकार निलय उपाध्याय की यह श्रद्धांजलि. निलय जी उनको बहुत करीब से जानते थे- प्रभात रंजन
=========================================
मधुकर सिंह की मौत को भूल पाना मेरे लिए आसान नही है।
आरा मे मैं नया नया आया था। मधुकर सिंह से मेरी पटती थी, उनके साथ कभी यह अहसास नहीं होता कि हम अपने किसी वरिष्ठ लेखक के साथ बैठे है। तब मैं नया नया लिखना आरंभ किया था। एक दिन मधुकर सिंह मेरे घर आए थे और हम दोनों पूरी रात बात कर रहे थे।
मधुकर सिंह ने कहा जो साहित्य को एक रात नही दे सकता वो पूरी उम्र क्या देगा?
मैंने तो बस एक रात दी पर पता चल गया कि मधुकर सिंह ने साहित्य को पूरी उम्र दे दी है। संयोग से आरा के उसी जैन स्कूल में पढाते थे जिसमे जगदीश मास्टर पढाते थे। जगदीश मास्टर अवचेतन में मधुकर सिंह के साथ थे।
आज जब याद करता हूं कि मधुकर सिंह ने मुझे क्या दिया तो एक लंबी सूची मेरे सामने है।
एक बार मैंने पूछा कि किस तरह आप किसी विषय को देखते हैं. मधुकर सिह थोडी देर के लिये चुप हो गये. कुछ देर बाद उन्होने एक छोटी सी कहानी सुनाई-
किसी किसान के पास एक गाय थी. गाय ने बछड़ा दिया और बछड़ा मर गया. किसान दूध निकालने के लिये गाय को इन्जेक्श्न देता, बांध देता. घटना बस इतनी है।
बकौल मधुकर सिंह..इस घटना को आम आदमी के नजरिए से देखा जाए तो किसान क्रूर नज़र आता है. दूध निकालने के लिए पशुता पर उतारू हो जाता है. किन्तु जब इसी घटना को एक लेखक देखता है तो उसे याद आता है कि किसान ने जब गाभिन गाय खरीदी तो उसके घर के उपर छप्पर नही था. उसके बच्चे के देह पर कपडे नही थे. उसकी सोच थी कि गाय का दूध बेच कर वह यह सब कर लेगा. लेकिन उसपर तो विप्पति का जैसे पहाड टूट पडा. बच्चे का कपडा भी नही छप्पर भी नही और बछडा भी नही. तब किसान को क्रूरता अपनानी पडी.
मधुकर सिह ने बताया कि यही द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है.
एक लेखक उस किसान कि उस क्रूरता में करुणा की तलाश करता है। तब से इसे नही भूल पाया ।
मधुकर सिंह की हंसी मै नहीं भूल पाता, हंसते तो मुंह गोल हो जाता और हो हो कर हंसते।
किसी की आलोचना करनी होती तो उसे चिरकूट कहते। चिरकूट मतलब पुराना फ़टा हुआ कपडा। गंगा यात्रा के दौरान आरा से निकलते हुए कथाकार मधुकर सिंह से मिला था। बाएं कान से सुनाई नहीं देता था उनको, लिख कर देने पर बात करते मगर बातों मे वहीं जीवन्तता। (कल आपका कार्यक्रम था, मुझे पता होता तो जरूर आता। जब मन उबता है पटना चला जाता हूं..और जाने कितनी बातें ) उनकी नजरों का कायल पहले भी था, इस बार हुआ क्योकि वे बिना चश्मे के पढते थे।
हिन्दी कहानी में आज भोजपुर एक स्कूल है, जिसके निर्माता है मधुकर सिंह।
उन्होने आरा को बिहार की सांस्कृतिक राजधानी का दर्जा दिलवाया। किसानों, खेत मजदूरों, भूमिहीनों, गरीबों, औरतों, दलितों–वंचितों के भीतर विरोध की आंच देखना हो तो मधुकर सिंह उदाहरण है। जो उन्हे पिछडो का लेखक मानते है वे उनकी कहानी दुश्मन जरूर पढ़ें जिसके नायक जगजीवन राम थे।
मधुकर सिंह का मानना था जो लेखक अपनी जनता के लिए लिखेगा, वही इतिहास में बना रहेगा।
आप चले गए मधुकर जी, कैसे यकीन कर लूं।
उनकी कहानियाँ तो पिछले अनेक वर्षों से पढ़ती आ रही हूँ । सुन्नर पांडे की पतोह उपन्यास अभी हाल ही में पढ़ा।
उनके लेखन के केंद्र में आम आदमी ही था। निरंतर इतना लिख पाना भी बहुत बड़ी बात है। वे खूब पढे जाते हैं ।किसी लेखक का बड्डप्पन यह नहीं की उसे कितने पुरस्कार मिले हैं ,यह है कि उन्हे कितने और कैसे पाठक पढ़ते हैं।