चाचा चौधरी, साबू, श्रीमती जी, पिंकी, चन्नी चाची और राका जैसे किरदारों के रचयिता कार्टूनिस्ट प्राण के जाने से हमारे बचपन का एक बड़ा हिस्सा हमसे जुदा हो गया. उनको याद करते, उनकी मुलाकातों को याद करते हुए युवा लेखक प्रचण्ड प्रवीर ने बहुत आत्मीय लेख लिखा है- मॉडरेटर.
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कल की बात है. जैसे ही मैंने अंजलि को आते देखा, बरबस कह बैठा- “जैसे निकल आया घटा से चाँद.” इसपर अंजलि नाराज़ होने लगी. “इतने दिनों बाद तो हम सब लंच पर मिले हैं, तुम फिर शुरू हो गए? कमसे कम शुचि का तो ख्याल कर लो! पहली बार मिल रही है, क्या सोचेगी?”
मैंने बेबो और शुचि की तरफ देखते हुए कहा- “परदा नहीं जब कोई खुदा से, बन्दों से परदा करना क्या?” बेबो ने ठहाका लगाया- “अंजलि मैडम, आप बिलकुल कार्टूनिस्ट प्राण की पिंकी की तरह लग रहीं हैं.” अंजलि कहने लगी- “हाँ, मैं आज तक अपने बालों में पिंकी की तरह रिबन लगाती हूँ.”
अमर ने सबको चौंकाते हुए कहा- “देखने वाली बात ये है कि कविराज आज कार्टूनिस्ट प्राण से मिलने जा रहे हैं.” सब मुझे ही देखने लगे. मैंने हामी भरते हुए कहा- “अरे मैंने उनको पत्र लिखा कि मैं मिलना चाहता हूँ. उन्होंने बड़े प्यार से उत्तर दिया कि कभी भी आ जाओ. आज शाम में मुलाकात है.”
अंजलि ने कहा- “कल की बात-५० की तरह हमें उल्लू तो नहीं बना रहे? शम्मी कपूर से भी तुमने कितनी बात की थी हम सब जानते हैं.”
बेबो ने कहा- “आज ये फोटो खिंचवा कर लौटेंगे, तब हम सब लोगों को यकीन आएगा.” शुचि ने मुस्कुराते हुए कहा- “आज का दिन बहुत ही यादगार होने वाला है. कल हमें “कल की बात” का इंतज़ार रहेगा.”
शाम तक कितने लोगो के फ़ोन आ चुके थे- “प्राण साहेब से यह पूछना. उन्हें चाचा चौधरी ज्यादा पसंद है या बिल्लू? पिंकी या रमन?” पारो ने सरल मोबाइल सन्देश में लिखा- “बचपन से मैं उनके कॉमिक्स की दीवानी हूँ. तुम याद रखना कि तुम उनसे मेरी तरफ से भी मिलोगे.” मक्खन सिंह ने लिख भेजा- “ओये. मुलाकात के तुंरत बाद आँखों देखा हाल बयान करना, वरना मैं अपनी लट्ठ को तेल पिला रखा है.”
उनके घर तक पहुँचते पहुंचे गहरी शाम हो गयी थी. बड़े झिझकते हुए मैंने घर की घंटी बजायी.
दरवाज़ा मिसेज़ आशा प्राण ने खोला. मैंने उनकी भी तस्वीर देख रखी थी. माँ जो मैगजीन पढ़ा करती हैं, कभी उसमें इनका भी लेख आया करता था.
प्राण साहब के आते ही कमरे में रोमांच सा आ गया. मैं कोशिश कर रहा था कि कॉमिक्स में छपी उनकी तस्वीर से आज का रूप कितना मिलता है. साल गुजर गए हैं. मैं भी अब ७-८ साल का बच्चा नहीं रहा.
“मैं यहाँ अकेले खुद के लिए नहीं बल्कि अपने सारे दोस्तों की तरफ से आपको शुभकामनाएं और धन्यवाद देने के लिए आया हूँ.” फिर मैंने पूछना शुरू किया -“आपको खुद का कौन सा कार्टून पसंद है? बिल्लू, पिंकी, चाचा चौधरी?”
प्राण साहेब ने कहा- “ये तो वैसा ही है कि किसी माँ से पूछना कि कौन सा बच्चा ज्यादा पसंद है.” इसपर मिसेज़ प्राण ने कहा-“तुम्हें बिल्लू पसंद है? मुझे पिंकी बहुत पसंद है, क्यूंकि वो मेरी बच्ची के बचपन की याद दिलाती है.”
मुझे उम्मीद नहीं थी कि इतने बड़े इंसान हो कर वो मुझसे मिलने के लिए राजी हो जायेंगे. इस पर मिसेज़ प्राण ने कहा- “कई साल पहले की बात है. एक बरसात के दिन एक दम्पति स्कूटर से आये. साथ में उनका बच्चा भी था. सारे के सारे बारिश में भीगे हुए. कुछ ३० किलोमीटर दूर से गाड़ी चला कर आ रहे थे. साधारण घर के थे. उन्होंने कहा कि हमने अपने बच्चे को वायदा किया था कि उसके जन्मदिन पर प्राण से मिलायेंगे. हमने अपना वायदा पूरा किया. मैं आज भी वो दिन नहीं भूल पाती.”
प्राण साहेब ने सर हिला कर कहा- “कई बार ऐसा होता. लोग विदेशों में मिलते हैं और बहुत अपनेपन से पेश आते हैं.” मैंने नमकीन खाते हुए पूछा- “क्या ऐसी बात है कि कॉमिक्स को वो दर्जा नहीं मिल पाया जो साहित्य और संगीत को मिलता आया है. मैंने पढना भी बिल्लू से शुरू किया था. पराग पत्रिका में हमेशा आती थी. मुझे आज भी याद है- पहला एपिसोड जो मैंने पढ़ा था उसमें बिल्लू एक वृद्ध साहित्यकार सम्बन्धी से मिलता है, जिनकी किताबें प्रकाशक इसलिए प्रकाशित करने से इनकार कर देते हैं क्यूंकि उसमें लूट-पाट, डकैती, हत्या, रोमांस जैसे दिलचस्प घटनाएं नहीं है. लेकिन बाद में नींद की गोली के आभाव में जब प्रकाशक वो पुस्तक पढता है तो सुबह होने से पहले, भरी रात में लेखक से किताब का कांट्रेक्ट देता है. आपको नहीं लगता कि कुछ एपिसोड, जहाँ आप बेहतरीन थे, संभाल कर रखनी चाहिए.”
प्राण साहब ने कहा- “ऐसा ही है कुछ कॉमिक्स के साथ. देखो, जापान में जितनी कॉमिक्स छपती हैं उतनी अमेरिका में नहीं. हमलोगो ने कार्टूनिस्ट बनने के लिए खुद मेहनत की. आज कोरिया और फ्लोरिडा में इसकी बाकायदा पढाई होती है. बाहर लोग एक स्ट्रिप लिखते हैं तो २००० अखबारों में छपता है. फिर उससे पैसे की कोई कमी नहीं होती. कुछ लोग अपना प्लेन तक रखते हैं.”
“आपने जो राजधानी की साफ़ सुथरी तस्वीर अपने कार्टून में खिंची थी कि जब मैं पहली बार दिल्ली आया तो बहुत देर तक आपके कार्टून वाली दिल्ली तलाशता रहा.” प्राण साहब हंसने लगे. मैंने आगे कहा-“हमारे छोटे भाई साहब तो आपकी कॉमिक्स पढ़ कर ‘बू हु हू‘ कर के रोया करते थे. उसे लगता था कि रोने का यही सही तरीका है.”
फिर प्राण साहब ने एक कॉमिक्स अपने ऑटोग्राफ के साथ भेंट किया. मैंने पूछा- “आपने कभी एक्शन हीरो क्यूँ नहीं बनाये? आपके कार्टून्स भी हमेशा सरल, सीधे रंगों में..” उन्होंने कहा- “भाई हमें तो सीधी सरल बात करनी होती है. सब तक अपनी बात पहुँचानी हैं. फिर मैंने हमेशा साधारण रोज़ मर्रा की कहानियाँ पर जोर दिया. हर चरित्र कहीं आस पड़ोस से ही तो निकल कर आया है.”
आखिरी सवाल- “आप अपने अनुभव और ज्ञान से कॉमिक्स पर किताब क्यूँ नहीं लिखते. भारतवर्ष में कॉमिक्स का भविष्य क्या लगता है, कैसा होगा?”
“कॉमिक्स चलती रहेंगी. बीच में कुछ गिरावट आई थी, लेकिन चलती रहेंगी. जब तक ज़िन्दगी चल रही है, ये काम करते रहना है. इस उम्र में भी मैं रोज़ सुबह १० से ६ काम करता हूँ. कुछ सहयोगी हैं…”
उनकी बातें सुन कर मुझे महादेवी वर्मा की ये पंक्तियाँ याद आ गयी.
यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो
रजत शंख घड़ियाल, स्वर्ण वंशी, वीणा-स्वर,
गये आरती बेला को शत-शत लय से भर,
जब था कल कंठो का मेला,
विहंसे उपल तिमिर था खेला,
अब मन्दिर में इष्ट अकेला,
इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!
ये थी कल की बात!
aaab hum apne baccho ke liye comics kaise layen?
bahut khushnaseeb hai aap..jinke photo ham sirf commics par hi dekh sake unke aapne sakshat darshan kiye..
आभार,इतने सुन्दर लेख के लिये!!