आज प्रसिद्ध इतिहासकार बिपिन चन्द्रा को श्रद्धांजलि देते हुए प्रोफ़ेसर राजीव लोचन ने ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में बहुत अच्छा लेख लिखा है. जिन्होंने न पढ़ा हो उनके लिए- मॉडरेटर
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पिछले 50 साल में शायद ही इतिहास का कोई ऐसा छात्र होगा, जिसने बिपिन चंद्रा द्वारा लिखी हुई किताबें न पढ़ी हों। बिपिन चंद्रा के लिए किताबें लिखना महज बौद्धिक शगल नहीं था, वह अपने लेखन से समाज को बदलने का काम भी कर रहे थे। एक शिक्षक, वह भी कम्युनिस्ट विचारधारा वाले, बिपिन चंद्रा छात्रों को देश में फैली समस्याओं से जूझने की एक समझ देते थे। स्थिति यह थी कि उनके लेक्चर सुनने के लिए दूसरे विभागों तक के छात्र आ जाते थे। कुछ उनकी आज्ञा लेकर वहां बैठते, तो बाकी बस चुपके से इतिहास के छात्रों में घुल-मिलकर बैठ जाते थे। उनकी कक्षाओं में एक अनौपचारिक-सा माहौल रहता। भारत में राष्ट्रवाद किस तरह पला-बढ़ा, वह इसके बारे में बताना शुरू करते और पता नहीं कहां से देश के वर्तमान की समस्याओं पर चर्चा शुरू हो जाती। हर चीज की समझ के लिए, प्रोफेसर साहब के अनुसार, बीसवीं सदी में राष्ट्रवाद के विस्तार और उसकी समस्याओं को समझना जरूरी था। इससे छात्रों में इतिहास की समझ भी बढ़ती, और देश के मौजूदा हालात की भी।
बिपिन चंद्रा खुद द्वितीय विश्व-युद्ध के समय के छात्र थे। यह वह पीढ़ी थी, जिसने भारतीय कम्युनिस्टों को बरतानिया सरकार से हाथ मिलाते देखा था। जिसने देश का विभाजन देखा था। और यह भी देखा था कि किस तरह लोग हालात के शिकार बन जाते हैं। उनके लिए इस तरह कि दुविधाओं से बचने का एक ही रास्ता था कि लोग इतिहास की बेहतर समझ रख सकें। वह खुद बताते थे कि किस तरह कम्युनिस्ट नेता पीसी जोशी के कहने पर उन्होंने गांधी के चंपारण सत्याग्रह के बारे में जानकारी हासिल की। बिपिन चंद्रा ने जाना कि यदि भारत के स्वतंत्रता संग्राम को समझना है, यह समझना है कि लोग किस तरह से इस संग्राम के साथ जुड़े, तो गांधी को समझना जरूरी है। गांधी चंपारण के किसानों की समस्याओं को लेकर किस तरह सरकार से जूङो, यह समझना जरूरी है। आगे जाकर देश के इतिहास ज्ञान में उनका एक बड़ा योगदान शायद इस अनुभव से ही निकला। उन्होंने भारतीय इतिहास को ‘फॉल्स कॉन्शसनेस’ यानी मिथक चेतना का सिद्धांत दिया। यह सिद्धांत कहता है कि लोगों की ऐतिहासिक समझ गलत होगी, तो उनकी वर्तमान के बारे में भी समझ गलत ही होगी। बिपिन चंद्रा का अधिकांश लेखन सही समझ प्रेषित करने में लगा रहा, ताकि लोग गलत समझ से बच सकें।
इस सिलसिले में एनसीईआरटी की स्कूली पाठ्य-पुस्तकों के जरिये बिपिन चंद्रा ने सीधे सरल तरीके से यह समझाने का प्रयास किया कि जब लोग राष्ट्रवाद की मुख्यधारा को छोड़कर संप्रदायवाद की तरफ बढ़ते थे, तो वे किस तरह ऐतिहासिक गलतफहमियों का शिकार हो जाते थे। इन गलतफहमियों को फैलाने में सांप्रदायिक राजनेताओं ने कोई कसर नहीं छोड़ी। बिपिन चंद्रा मानते थे कि ऐसे हालात में यह इतिहासकार का जिम्मा है कि वह लोगों को यह समझा सके कि उनकी समस्याओं की जड़ देश की औपनिवेशिक गुलामी थी और समस्याओं का समाधान देश को मजबूत बनाने में है। 1973 में लिखी गई उनकी यह किताब आज भी लोग पढ़ रहे हैं। यह जरूर है कि सांप्रदायिक राजनीति करने वाले आज भी इन किताबों की आलोचना करते हैं, पर पढ़े-लिखे लोगों के लिए आज भी यह सबसे जरूरी पढ़ने लायक किताबों की सूची में शामिल है।
इन किताबों के जरिये वह लोगों तक सुदृढ़ भारत की एक ऐसी तस्वीर पेश करना कहते थे, जो लोकतांत्रिक हो, जो सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर टिका हो, जहां रूढ़िवादिता के लिए कोई स्थान न हो और जो भारतीय संस्कृति की नैसर्गिक धारा से जुड़ा हो। स्वतंत्र भारत को सांप्रदायिकता के जहर से बचाने के लिए बिपिन चंद्रा को इतिहास की सही समझ ही एकमात्र साधन जान पड़ती थी। इसलिए वह अपनी पूरी जिंदगी, जो भी लिखते रहे, जो भी कहते रहे, हर जगह लोगों को सही समझ बनाने के लिए प्रेरित करते रहे। उनके छात्रों में न केवल वे थे, जो उनके लेक्चर सुनते, बल्कि वे भी थे, जो उनके विचारों से प्रेरित होकर उनकी किताबें पढ़ते थे। पढ़ाई का सिलसिला क्लास रूम में ही खत्म नहीं होता था। अपने छात्रों को वह कहते कि केवल पुस्तकालय में बैठकर इतिहास लेखन न करो। जहां मौका मिलता, आगे बढ़कर छात्रों को बाहर भेजने की कोशिश करते।
‘जाओ, फील्ड ट्रिप करो, लोगों से मिलो, उनकी बातें सुनो, समझो कि उनके अनुभव क्या थे।’ कई छात्रों को उनके साथ फील्ड ट्रिप पर जाने का मौका मिला। बिपिन चंद्रा बीसवीं सदी के इतिहास की प्रमुख हस्तियों का इंटरव्यू करते, जहां जाते अपने विद्यार्थियों को भी ले जाते, खुद सारा काम करते और नौजवानों से कहते: देखो, ऐसे काम किया जाता है। मजाल है कि कभी उन्होंने किसी विद्यार्थी से अपना कोई काम करने को कहा हो। कहां तो देश की पुरानी परंपरा थी कि विद्यार्थी गुरुजी की सेवा करता फिरता, कहां बिपिन चंद्रा थे कि अपने छात्रों की सेवा करते। इनमें से अनेक खुद आगे बढ़कर देश में बड़े काम कर रहे हैं।
मृदुला मुखर्जी, माजिद सिद्दीकी, भगवान जोश, आदित्य मुखर्जी, सलिल मिश्र, विशालाक्षी मेनन वगैरह उनके अनेक छात्र आज देश के जाने-माने इतिहासकार हैं। हफ्ते में एक दिन बिपिन चंद्रा के घर सभी छात्र इकट्ठा होते और रिसर्च के बारे में चर्चा होती। कोई दो दशकों तक, जब तक बिपिन साहब जेएनयू परिसर में रहे, तो चर्चा का यह सिलसिला बदस्तूर चलता रहा। छह दशक के अपने सार्वजनिक जीवन में बिपिन चंद्रा ने इतिहास लेखन के अलावा लोगों तक बेहतर साहित्य पहुंचाने में बड़ा योगदान दिया। अनेक भारतीय प्रकाशकों को उन्होंने इतिहास की बेहतरीन किताबें छापने के लिए प्रेरित किया। नेशनल बुक ट्रस्ट की अगुआई की। इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस में आगे बढ़कर हिस्सा लिया। पर उनका सबसे बड़ा योगदान तो समर्थ नागरिक बनाने में रहा।
बिपिन चंद्रा एक महान राष्ट्रवादी तो थे ही, भारतीय साम्यवाद में सन 1964 में हुए दो फाड़ से वह नाखुश थे। 1979 में उन्होंने आग्रह किया था कि भारत में साम्यवाद की दोनों धाराएं जुड़ जाएं, तो सभी के लिए अच्छा रहेगा। पर ऐसा हुआ नहीं। साल 2009 में भी उन्होंने यह आग्रह दोहराया। देश को संप्रदायवादी और उपनिवेशवादी शक्तियों से बचने के लिए जो सही समझ चाहिए, उनके अनुसार, यह केवल एक साम्यवादी समझ ही हो सकती थी। आज जब देश पुन: सांप्रदायिकता में उभार देख रहा है, तो लगता है कि बिपिन चंद्रा का बताया रास्ता ही शायद ठीक था।
स्व.श्री बिपिन चंद्रा जी को श्रद्धांजलि के उपलक्ष्य में श्री चंदन श्रीवास्तव (CSDS) पत्रकार जी ने भी संग्रहणीय लेख 'नईदुनिया' दिं 01:09:14 में लिखा है।