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खदेरू का पिंगपौंग ख़दशा (आशंका)

सदफ नाज़ फिर हाज़िर हैं. उनके व्यंग्य लेख ‘लव जेहाद बनाम दिलजलियाँ’ को पाठकों का खूब प्यार मिला था. इस बार उनके व्यंग्य की ज़द में कुछ आशंकाएं हैं. चीन के सदर आये और दिल्ली की जगह सीधा अहमदाबाद गए. इतनी सादगी से व्यंग्य बाण छोडती हैं कि हँसते हँसते रोना आ जाता है. शायद व्यंग्य का काम भी यही होता है. पढ़िए- मॉडरेटर 
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कल शाम खदेरू नुक्कड़ की पान की दुकान से जुब्बा खाला के लिए मीठी सुपारी लाने गए थे। आए तो बिचारे का मुंह लटका हुआ था। सुपारी जुब्बा खाला के हाथ में पकड़ाया और उनकी तिपाई के बगल में मोढ़े पर ऐसे बैठ गए जैसे किसी अहम अंतराष्ट्रीय मुद्दे पर ग़ौर-ख़ौस कर रहे हों। हालांकि खदेरू जब भी छुटना की पान की दुकान से वापस आते हैं तो बड़े खुश-ओ-खुर्रम लौटते हैं। दुकान पर होने वाली समाजी,सियासी और शहर भर की सरगर्मी की गुफ्तगू सुन कर वापस आकर जुब्बा खाला को भी फलसफ़ाना ढंग से गोशगुजार करते हैं।

जुब्बा ख़ाला भी करेंट अफेयर्स पर पैनी निगाह रखती हैं। इन सब में खादिम खदेरू उनके पार्टनर हैं। ख़ैर ! खदेरू को यूं मुंह लटकाए देख जुब्बा ख़ाला ने पूछ ही लिया कि ऐसे काहे मुंह लटकाए हो,छुटना की दुकान में कौन से ख़जाने लुट गए तुमरे? इसी सवाल के इंतजार में बैठे खदेरू फौरन सीधे बैठ गए। कहने लगे बूबू (दीदी) क्या बताएं छोटना कह रहा था कि पड़ोसी मुलक के सदर अपनी मैडम के साथ आएं हैं हमारे कन। जुब्बा ख़ाला बोलीं, हां तो ? छोटना कह रहे थे कि सदर साहेब देहली नहीं उतर कर सीधे हावई जहाज़ लेकर अहमदाबाद चले गएं। बाद में वहां से देहली लौटे! बग़ल की चाय दुकान वाले मंगरू भी कह रहे थे कि हमको तो लागत है कि देश की राजधानी अहमदाबाद में शिफट-विफट हो रही है।

खदेरू की बात सुन कर जुब्बा ख़ाला चौंकी लेकिन खदेरू को लटाड़ते हुए कहने लगीं कमबख्त देश की राजधानी दिल्ली रहे चाहे अहमदाबाद तुझे काहे को हौले उठ रहे हैं, तेरे फूफा क्या रायसीना के किसी आफिस में अफ़सर लगे हैं कि उन्हें उन्हें मुरादाबाद से अहमदाबाद आने-जाने में दिक्कत पेश आएगी ? ख़ैर से गुजरात मॉडल की पूरी दुनिया में धूम है,माशाल्लाह से तरक्कीयाफ्ता सूबा है। चमकदार सड़कें,जगर-मगर एयरपोर्ट,बाहरी मुलकों के इंवेस्टर को लुभाने के लिए लश-लश माहौल तो पड़ोसी सदर साहब वहां न जाते तो क्या गंज सराए जाते? मन हो गया होगा बिचारे का कि ज़रा वहां हो लें। लेकिन फिर जुब्बा खाला खुद ही कहने लगीं कि मियां उम्र गुजरी हमने देखा कि देश के अलग-अलग सूबे के जने कितने सदर बने पर अब तक किसी ने बाहरी मुल्क के सदर का पहले अपने सूबे में इस्तक़बाल नहीं किया। और वो बिचारे भी क्या ख़ाक करते, उन्हें भी पता था कि उनके सूबे की सड़कों और इन्फ्रास्टरक्चर का कौन सी अश-अश करने वाली हालत ठहरी के किसी बाहरी मुलक के सदर को न्योता देते। आज तक दूसरे मुल्कों के जितने भी सदर आएं चाहे अमेरिका के हों या फिर जापान-भूटान चाहे उज़बेकिस्तान सब के सब अपना अमला लेदे के मार से देहली में उतर गएं। बिचारों ने देहली से आगे भी भारत है, देखा ही नहीं।

सूबे वाले भी अमूमन नहीं सोचते कि बाहिर से मेहमान आएं तो ज़रा अपने यहां बुलवा लें थोड़ी मेहमाननवाज़ी कर लें। खैर से अपनी खूबियाँ दिख़ाकर थोड़ा इंप्रेशन ही जमा लें। सब सोचते हैं कि देहली में हमारे बड़े भईय्या और उनका अमला पूरे मुल्क को रिप्रेजेंट करने को तो बैठा ही है,सारा मोर्चा वे ही संभाल लेंगे। हमारे सिर पर बोझा भी नहीं पड़ेगा। वहीं थोड़ी-थोड़ी झलकी सारे सूबे का दिखलाते वक्त हमारी भी कुछ दिख ही जाएगी।

एक ही दस्तरख़ान में पंजाब,केरल,गुरात,मराठा,कश्मीर,केरल तक के खास व्यंजन परोस दिए जाएंगे। (हालांकि पूर्वोत्तर राज्यों के व्यंजन या कल्चर की झलकी उन्हें दिखाई जाती है या नहीं,पता नहीं ?) कल्चर की झलकी दिखा दी जाएगी। ख़ैर से गैरमुल्की मेहमान भी सैराब हो जाते हैं कि अल्लाह के फ़जलोकरम से भारत दर्शन हुए। डिप्लोमेटिक काम निपटा कर बिचारे आख़िर में अपनी मिसेज के साथ ताज देखकर तारीखी फोटों खिंचवाई और हो गया सफर पूरा। लेकिन पड़ोसी सदर इस बार देहली के आगे भी देख पाएंगे कि भारत में कितनी तरक्की हो रही है।

लेकिन इधर खदेरू की फिकर जाने का नाम ही नहीं ले रही है किसी तरह उनका जी संभल नहीं रहा। छोटना की बातों का उन्होंने असर ले लिया है, छोटना जिनकी जरनल नॉलेज काफी अच्छी थी ने कल खदेरू से अंदेशा जाहिर कर दिया था कि देखिए खदेरू चाचा हमें तो लगता है कि कहीं आने वाले दिनों में थेपला,फाफड़ा या फिर ढ़ोकला को अवामी खाना ना घोषित कर दिया जाए,साथ में यह भी कि मुलक के हर शहरी(नागरिक) को हफ्ते में तीन दिन इन्हें नोश फ़रमाना(खाना) होगा।

खदेरू ठहरे मुरग़न (फैटी) उत्तर भारतीय खाने के शैदाई उन्हें इसे लेकर फिक्रलाहक हो गई। लेकिन जुब्बा खाला बड़ी ऑप्टीमिस्टक खातून हैं उन्होंने खदेरू को धिक्कारते हुए कहा कि बदबख्त तुझे तो हर वक्त ज़बान के चटखारे की फिक्र लगी रहती है। हां तो अच्छा ही है कि घी-तेल बगैर वाले फाफड़ा-ढोकला जैसे सेहत बख्श खाने खाए जाएंगे। देखो आखिर ऐसे कम घी-तेल वाले खाने खाकर ही तो उनके जहन इतने तेज़ हैं। पूरी दुनिया में जापान से लेकर नेपाल तक झंडे गाड़ते जा रहें हैं। बाकियों को देखो मुरगन गज़ा खाखाकर दिमागो में भुस्स भर लिए हैं। करना न धरना और वाही-तबाही अलग बकते हैं । तरह-तरह के इमराज (बीमारियों) से अलग परेशान रहते हैं।

लेकिन खदेरू का ख़दशा कम होने को नहीं आ रहा है, कल उन्होंने बड़ी मासूमियत से जुब्बा ख़ाला से पूछा कि बूबू,सो तो ठीक है लेकिन अगर चनिया-चोली को आवामी पोशाक बना दिहिन तो क्या आप शलवार कमीज की जगह ?  ’ अब हैरान परेशान होने की बारी जुब्बा खाला की थी। बिचारी कुछ बोल न सकीं सिरफ़ पहलू बदल के रह गईं। मुझे भी नाहक खदशा सा होने लगा है!
 
      

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17 comments

  1. Sahaj, Saral, bolchaal ki bhasa ka istemaal karate hue bahut hi sundar aur gahari political vyangya padh kar maza aa gaya. Aapaki ek apani lekhan shaili banati ja rahi hai, jo lekhakon ki bhid me aapako alag pehchaan degi. Meri hardik shubhkamanayen!!!!!

  2. अल्फाज़ लिखे गए हैं या तैराए गए है… बात हल्की और सादा है मगर गहराई पर तैर रही है|

  3. बहुत अच्छा व्यंग्य और साथ में भाषा की इतनी ताजी रवानगी , मजा आ गया ।

  4. इसे कहते हैं फूंक मारकर काट लेना! अच्छा …

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