करीब 60 साल पहले बनी चेतन आनंद की फिल्म ‘नीचा नगर’ हिंदी सिनेमा में सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत करने वाली आरंभिक फिल्मों में थी. जिसकी पटकथा लिखी थी ख्वाजा अहमद अब्बास ने. ख्वाजा अहमद अब्बास की जन्म शताब्दी पर सैयद एस. तौहीद की पेशकश- मॉडरेटर.
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विश्व सिनेमा से प्रेरणा लेते हुए भारत में भी यथार्थवादी फिल्मों का निर्माण हुआ। हमारे सिनेमा में सामानांतर प्रवाह की आवश्यक धारा शुरुआती जमाने से ही बनी रही । बाबूराव पेंटर की साहूकारी पाश एक मायने में ऐतिहासिक थी । शाषक वर्ग की दमनकारी नीतियों के संदर्भ में ‘साहूकारी पाश’ दस्तावेज से कम नहीं थी। इस मिजाज की फिल्में समानांतर प्रवाह का उदगम बनी। व्यवसायिक सिनेमा के बाज़ार में नए धारा का परचम लेकर चलने वाले फिल्मकारों की विरासत की प्रशंसा करनी चाहिए। आज का सिनेमा व्यवसायिक एवं नवीन धाराओं का मंथन कर रहा। अलग करने के जुनून में नयी पीढी सकारात्मक विकल्प बनाने में सफल रही है। नयी पीढी का एक खेमा चीजों को अलग ढंग से ट्रीट कर रहा…अलग फिल्में बनाने का जज्बा लेकर चल रहा। दूसरा व्यवसायिक विषयों को उठा रहा। लेकिन चालीस का दशक किस तरह का रहा होगा ? उस जमाने में भी सामानांतर का चिराग जला हुआ था। कहना चाहिए कि चिराग वहीं से आज को पहुंचा है।
प्रगतिशील आंदोलन ने कला के हर प्रारूप से जुडे लोगों को प्रभावित किया था। लेखक फिल्मकार व फनकारों की एक जमात ने प्रगतिशील विचारों का जिम्मा उठा रखा था। प्रगतिशील हलचल के प्रांगण में भारतीय जन नाट्य संगठन अथवा इप्टा के आशियाने से बहुत से फनकार व अदीब जुडे रहे। समाज हित का जज्बा लेकर चलने वाले इस संस्था ने ‘नीचा नगर’ सरीखा वैचारिक फिल्में उस समय दी। सामाजिक यथार्थ की इस तस्वीर को रिलीज के अगले साल ही ख्यातिनाम कांस फिल्म महोत्सव में ग्रेंड प्रिक्स अवार्ड से सम्मानित किया गया। क्रांतिकारी व सामाजिक संवाद की मुखर इस फिल्म को व्यवसायिक रिलीज कभी नहीं मिल सका। फिल्म सामारोहों में बेशक खूब प्रशंसा मिली…कांस फिल्म सामारोह में मिली प्रतिष्ठा को याद रखना चाहिए। नीचा नगर को भारतीय सिनेमा की बडी उपलब्धि माना जाता है । अंतराष्ट्रीय स्वीकृति ने फिल्मकार चेतन आनंद व लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास समेत कलाकार व तकनीशियनों को मशहूर कर दिया। नीचा नगर की कामयाबी बाद खुद की स्वतंत्र पहचान बनाने वालों में ख्वाजा अहमद अब्बास व चेतन आनंद एवं मोहन सहगल फिर पंडित रविशंकर तथा कामिनी कौशल का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।
विषय को सामने लाने वाली समकालीन कहानियों की तरह अब्बास की यह कहानी समकालीन वर्ग संघर्षों को व्यक्त कर रही थी। अमीरी के अकेलेपन में डूबा जमीनदार पहाडों पर शाषक की जिंदगी गुजार रहा। जबकि पहाडों के आरामों से दूर समतल जमीनों पर गरीब कामगार लोग जिंदगी के आधारभूत चीजों के लिए कडा संघर्ष कर रहे। इन हालात को शोषित तबकों ने अपनी तकदीर सा मान लिया था क्योंकि विरोध नहीं करना सीखा था। जिंदगी की कठोरता का उन्हें उतना नहीं तकलीफ देती जितना अपनी जमीन व घर की फिक्र । आज के दयनीय हालात पर अफसोस करने से अधिक उन्हें जीवन की जमा पूंजी की चिंता थी। दुखी के लिए जमीन का चिथडा व सर छुपाने की छत जीवन से जरूरी होती है। घोर गरीबी व शोषण के हालातों के मददेनजर गरीबों का एक टुकडा सुख बेशकीमती था । जमीन के लोगों की पीडा को शाषक जमीनदार ने घोर गंभीर बना दिया । पहाडों पर रहने वाला मालिक पानी छोडने वक्त नहीं सोंचता कि समतल इलाके के गरीब लोगों की पूंजी बर्बाद हो जाएगी। पहाडों से निकली पानी की बडी मात्रा गरीबों को मिटा देने के लिए पर्याप्त थी। यहां तबाही महामारी के रूप में जिंदगियों को लील रही ।
शोषण के इस प्रारूप का एकजुट विरोध कमजोर करने के लिए ईमान की खरीद फरोख्त काम नहीं आई। शोषितों की गहराती पीडा व असंतोष कब तक खामोश रह सकता था ? मुखर क्रांति हुक्मरान को शोषित से भी कमजोर कर देने के लिए पर्याप्त होती है । संगठित विद्रोह के सामने शाषक मजबूर हो गया। पटकथा लेखक अब्बास ने मेक्सिम गोर्की एक कथा को आधार बनाया था। यह कामगार व बुर्जुआ वर्गों के संघर्ष की कहानी थी। यथार्थ की कडवाहट के साथ पेश किया गयी इस कहानी में सहज चिन्हों व प्रतीकों को कथन में शामिल किया गया। यह क्लासरूम में मिली फिल्म शिक्षा के बहुत समीप अनुभव था। बहुत कुछ फ्रिट्ज लांग की महान पेशकश मेट्रोपोलीस किस्म की फिल्म। वहां वर्ग संघर्ष अत्यंत स्पष्टता के साथ निरूपित हुए थे। मेट्रोपोलीस की कथा में शाषक खुली जमीन के टुकडे पर अमीर जिंदगी गुजार रहा…जबकि निर्धन मजदूर भूमिगत बदतर घरों में जीने को मजबूर थे। नीचा नगर में बुर्जआ व कामगार के दो वर्गों के ताने बाने में कहानी कही गयी। दुखद बात यह रही कि फिल्म से कामगार वर्ग का संघर्ष व एकजुटता परोक्ष रूप से ना जाने क्यों कमजोर हो गया। समय के साथ सिनेमा में बाजार की शक्तियां अधिक प्रखर हो गयी हैं।
फिल्म में सदियों के ज्वलंत संदर्भ शाषक व शोषित वर्ग को विषय बनाया गया। समकालीन वर्ग परिस्थितियों की यथार्थ स्थिति को सेल्युलाइड पर लाने की सार्थक पहल थी। परतंत्रता की बेडियों में जकडे देश के आम लोगों पर मालिक का शोषण व अत्याचार को व्यक्त किया गया। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में जमींदारों के हांथों गरीब व वंचित पर अत्याचार होते थे। ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी में समाज के दुखों को व्यक्त करने का जज्बा था। समाजवाद की गहरी टीस से उपजी कहानी में शोषण पर विमर्श था। फिल्म की वैश्विक स्वीकृति ने यह बताया कि शोषण को प्रकाश में लाकर ही उसे खत्म किया जा सकता है। चेतन आनंद का विषय अनुकूलन व प्रस्तुत छायांकन का उत्तम दर्जा तथा अब्बास की सीधी सच्ची कहानी फिल्म की खासियत थी। याद करें दृश्य जिसमें प्यास की शिददत से तडपता बालक जो गंदे बदबूदार पानी पीने को मजबूर था। अब्बास ने कहानी में केवल अत्याचार अथवा शोषण व पीडा ही नहीं अपितु इंसानियत के फूलों को गुंथा था। लीनियर तकनीक से लिखा गए कथाक्रम में विषय को पूरी शिदद्त से रखा गया। यथार्थ से अवगत करने का कडवा किंतु सादा सच्चा व दिलों को जीत लेने वाला तरीका।