अभी दो दिन पहले लेखिका नीलेश रघुवंशी को शैलप्रिया स्मृति सम्मान दिए जाने की घोषणा हुई है. 2012 में उनका उपन्यास प्रकाशित हुआ था ‘एक कस्बे के नोट्स’. प्रसिद्ध आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने उस उपन्यास पर बहुत अच्छा लेख लिखा है. आप भी पढ़िए और उनको बधाई दीजिए- मॉडरेटर.
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रोमान . . . भावोच्छ्वास . . . सपनीली स्मृतियां . . . और अतीत का हरहराता समंदर! न, छाती कूटती लहरों के नमक से घुला खारा समंदर नहीं, मीठी झील सा शांत–सौम्य, निथरा–चमचमाता अतीत! और स्मृतियां . . . सफेद पाल के सहारे हंसिनी सी तिरती डोंगी। ‘ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे–धीरे।‘
‘भुलावा?’ करंट सा छू जाता है मुझे। भावोच्छ्वास भुलावे का पर्याय बन गया तो राग और भाव पर आधारित साहित्य क्या बेमानी नहीं हो जाएगा? भावों की डोर में गुंथे लेखक के उच्छ्वास साहित्य के जरिए कितने–कितने देशकाल की दूरी तय कर कितने–कितने हृदयों के भीतर ठीक वैसे ही उच्छ्वास, कसक और सपने जगाते हैं, यह क्या कोई कहने–सुनने की बात है? न, वे इतने अल्पजीवी नहीं होते कि क्षणांश को चमक कर अपनी सारी कौंध को भीतर ही भीतर समेट जुगनू की तरह गाढ़े अंधेरे में सिर धुनने लग जाएं। जो क्षण में बंध कर जीवन और मृत्यु दोनों को जी कर चुक जाए, वह साहित्य नहीं। लेकिन उच्छ्वास में निबद्ध भाव तो अभिशप्त है न तुरंत मिट जाने के लिए? कोई सांस को बांध कर रोकना भी चाहे तो कब तक? एक विक्षिप्त व्यग्रता में मैं अपने से ही पूछती हूं कि वह कौन सा तत्व है जो नष्ट हो जाने की नियति में बंधे क्षण को समय की निरंतरता में ढाल देता है? भावोच्छ्वास को युग–युग का सत्य और मनुष्य की आदिम पहचान बना देता है? अनायास मेरे सामने समूचा परिदृश्य साफ हो उठता है।
नहीं, साहित्य भावोच्छ्वास के आस्वाद की प्रक्रिया भर नहीं है, बल्कि विश्लेषण का प्रस्थान बिंदु है। लेकिन समाजवैज्ञानिक की तार्किकता, तथ्यात्मकता और बौद्धिक बहसों से घिरी अहम्मन्यता के साथ किया गया विश्लेषण नहीं, एक गहरी विश्रांत समाधिस्थ
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