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ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी हिंदी अनुवाद में

लेखक, पत्रकार, फिल्म लेखक, निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास की यह जन्मशताब्दी का साल है. इस मौके पर आज प्रस्तुत है उनकी एक कहानी ‘Red and Yellow’ का हिंदी अनुवाद. अनुवाद किया है सैयद एस. तौहीद ने- मॉडरेटर.
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कमरे की चारों दीवार पर तस्वीरें टंगी हुई थी। कृष्ण गोपियों के संग खडे ।  सफेद पांव वाले हंस कमल के फूलों के बीच पानी में खडे । एक मुग़ल शहजादी झरोखे से अपने घुडसवार आशिक को झांक रही थी। महात्मा बुध समाधी लगाए ध्यान में लीन थे। एक राजपूत सुंदरी आईने में अपना अक्स देखने में मग्न थी। खिले फूल, नृत्य करते मोर। ऊपर छत से रंग-बिरंगे बादल नीले आसमान में तैर रहे थे। इन बादलों से भगवान इंद्र का सुनहरा रथ चला जा रहा था। कहा जा सकता है कि इस कमरे में कला की दुनिया आबाद थी। मनोरंजन का मायाबाज़ार लगा हुआ था। मगर जब खिडकी से उसने बाहर देखा तो वहां हक़ीकत की दुनिया नजर आई। नीचे गली के बीच एक गंदी नाली बह रही थी। एक ओर कूडे का ढेर लगा हुआ था। एक कुत्ता मरेली सी बिल्ली को काटने के लिए दौडा रहा था। मोटे मोटे चूहे लगे हुए कुडे पर अलसाए बेफिक्री से घूम रहे थे। इस तरह मानो कि यह उनके सैर करने की पहाडी सडक हो। नाली के किनारे एक अधनंगा बच्चा दस्त कर रहा था। एक दुकान के सामने खडे कुछ गाडी वाले और मजदूर पी रहे थे। बच्चे जो एक दूसरे के पीछे लग रेल का खेल रहे थे,एक तरफ से आए व छुक-छुक करते सीटी बजाते दूसरी तरफ से गुजर गए। सामने वाली चाल के पीछे ही अल्मुनियम के बरतनों का कारखाना था, जिसकी ठक-ठक… खट धड दिन रात चलती रहती थी। चाल की छत से मिली हुयी कारखाने की चिमनी से हर समय धुंआ निकलता रहता था। जब हवा इस ओर की चलती तो धुंआ इन चालों की खिडकियों से दाखिल हो जाया करता था। घर की दीवारों, कपडों,बिस्तरों पर काला पाऊडर मल देता था। इसलिए जहां तक होता गोपाल अपने कमरे की खिडकियां बंद ही रखता था ताकि कारखाने का धुंआ कमरे की तस्वीरों की सूरत ना बिग़ाड सके। फिर यह भी खिडकी से नजर आने वाला हर दृश्य उसे बुरा लगता था। जब कभी खिडकी खोलता गंदगी का ढेर,बहती गंदी नाली देख काफी घुटन होती थी। फिर जितना शीघ्र होता खिडकी बंद करके अपने कला भवन में बंद हो जाता। दिलकश तस्वीरों में कहीं गुम हो जाता…बाहर की असलियत,गंदगी एवं शोर को भूल जाता। मगर आज गरमी बहुत थी। बंद कमरे में दम घुटता था। इसलिए धुंए की परवाह ना करते हुए गोपाल ने खिडकियों के पट खोल दिए। बाहर से ठंडी हवा के साथ ही बदबू का झोंका आया साथ ही कारखाने की चिमनी का गुबार भी। लेकिन आज उसने खिडकी खुली रखी और देर तक गली में आने-जाने वालों को देखता रहा,एक नयी नजर से। उस दिन से से यह गली एक नयी गली नज़र आई। गोपाल एक मजदूर था। सामने वाले अल्मुनियम कारखाने में काम करता था। लेकिन वो इक फनकार भी था…बल्कि असल में वो फनकार ही था जो मजबूरी में गुजारे के लिए मजदूरी करता था। इसने अपनी जिंदगी को दो हिस्सों में बांट रखा था। चौबीस घंटे में से आठ घंटे कारखाने की गर्म व बदबूदार हवा में पसीने से नहाए हुए,मैले कपडे पहने मजदूरों के साथ वो काम करता। बाक़ी सोलह घंटे वो कला व संस्कृति की दुनिया में बसर करता। एक रूमानी दुनिया जहां ना मजदूर थे ना कारखाने,ना धुंआ,ना बदबू…ना गंदगी बल्कि सुंदर चेहरे थे। फूलों से ढकी हुयी दिलकश वादिया व ऊंचे बर्फीले पहाड थे। जब तक वो अपने कमरे में रहता इसी दुनिया में खोया रहता। कारखाने से जो भी मजदूरी मिलती उसे खाने व किराए से बचा कर रंग खरीदता था। आयल पेंट,वाटर कलर,कैनवास,कागज…तस्वीरें बनाता रहता। देवताओं की तस्वीरें जिनका रूप बचपन से अमिट था। सुंदर स्त्रियों की तस्वीर जो ख्यालों की दुनिया से आई थी। उन फूलों की तस्वीरें जिनकी खुशबू पता नहीं थी। इन फूलों की तस्वीरें कभी जिनको वो कभी खरीद कर रख ना सका था। कुछ वक्त के लिए वो सोता भी तो इन तस्वीरों को ख्वाब में देखता रहता,कभी कभी ख्वाब में उसको ऐसा दिलकश मंजर दिखाई दे जाता कि वो बयान करने के लिए बेक़रार रहता। उसी वक्त उठ खडा होता…पेंट करना शुरू कर देता। उसने सैंकडों कैनवास लाल-पीले कर दिए यानी रंगों से भर दिए थे। जब कैनवास खरीदने के दाम नहीं रहता तो कागज़ पर ही तस्वीर बनाता…कागज़ ना रहता तो दीवारों,छत पर यहां तक टूटी हुयी कुर्सी के तख्ते पर भी दोनों तरफ उसने तस्वीरें बना डाली थी।

जिन चीजों की यह तस्वीर बनाता, उनका उसकी जिंदगी से कहीं कोई वास्ता नहीं था। उसकी जिंदगी में भला हसीन कहां थी। यहां तो गरीबी,मेहनत,गंदगी मुंह बाये खडी थी। गोपाल का मानना था कि इन बेरंग चीजों का कला से ताल्लुक नहीं । कला को सिर्फ दिलकश व खूबसुरत चीजों से सरोकार होना चाहिए। अफसोस ख्वाब सी यह जिंदगी गोपाल को सिर्फ ख्यालों में मयस्सर थी। गोपाल तस्वीरें क्यों बनाता था? इसका जवाब शायद वो खुद भी नहीं जानता था। उसकी यह तस्वीरें कभी बिकी नहीं थी। किसी अखबार या पत्रिका में इनका जिक्र भी नहीं साया होता था। कला की दुनिया में कोई उसका नाम भी ना जानता था। फिर वो तस्वीर क्यों बनाता था? शायद इसलिए कि उसका पिता त्योहारों पर मिट्टी से देवताओं की मूर्तियां बनाया करता था। बचपन से गोपाल को अपने मां के रखे हुए रंग से कागज़ पर लकीरें उकेरना पसंद था। शायद इसलिए कि स्कूल में ड्राइंग की क्लास के अलावे किसी दूसरे काम में मन नहीं लगता था। शायद ड्राइंग के टीचर ने उसकी बनाई तस्वीरें देखकर हिम्मत बढाई होगी। या शायद यह कि गोपाल गरीबी था,एक गंदी बदबूदार गली,एक चाल में रहता था। उसे अपने मन की भडास निकालने के लिए एक निकास की जरूरत थी! अनाथ-गरीब गोपाल के मन में सुंदरता-नरमी-मुहब्बत की अजीब प्यास थी,जिसे कला के जरिए ही वो बुझा सकता था…गोपाल तस्वीरें क्यों बनाता था? शायद इसलिए कि उसे बीते वक्त में किसी लडकी से मुहब्बत हो गयी थी। एक लडकी जो उसके पडोस में रहती थी। एक खूबसुरत अमीर लडकी जो गरीब गोपाल की पहुंच से दूर थी। वो मुहब्बत का कभी इजहार नहीं कर सका । वो मुहब्बत इसके दिल में घूट रही थी। बरसों बाद जब वो अपना कस्बा त्याग कर बांबे आया और उस लडकी की किसी डिप्टी से शादी हो चुकी थी। उस वक्त भी गोपाल के मन में मुहब्बत का जज्बा सुलग रहा था। उसके इजहार का कला के सिवा दूसरा तरीका ना था। रजनी को गोपाल महज देखा था। कभी उससे बात ना कर सका था। बस दूर से उसकी पूजा की थी। इसलिए अब भी अपनी तस्वीरों में पूजा कर रहा था। कभी सरस्वती के रूप में तो कभी शकुंतला के रूप में। कभी मुगल शहजादी के लिबास में,कभी राजपूत राजकुमारी के सिंगार। पुजारी की निगाहों ने रजनी को सुंदरता की देवी बना दिया था। एक शायराना अंदाज ।

आज गोपाल फिर रजनी की याद को एक सांचे में ढालना चाहता था। अगले हफ्ते शहर में एक कला प्रदर्शनी होनी थी। गोपाल इसमें एक नयी तस्वीर भेजना चाहता था। ऐसी तस्वीर जिसमें उसकी कला का निचोड हो। जो सचमुच में शाहकार हो,जिसे देखकर हर कोई उसके फन का लोहा मानने पर मजबूर हो जाए। कौन जानता है…शायद उसकी तस्वीर को ईनाम भी मिल जाए। लेकिन उसका असल मकसद ना ईनाम था ना ही शोहरत। वो तो अपनी मुहब्बत को कला के जरिए अमर करना चाहता था। रजनी की तस्वीर बनाकर। इस तस्वीर की जुबान से अपनी गूंगी मुहब्बत का संदेश रजनी तक पहुंचाना। आज वो सिर्फ रजनी की तस्वीर बनाना चाहता था। खाली कैनवास उसका इंतजार कर रहा था। रजनी के सूर्ख गालों के लिए गुलाबी रंग चाहिए था। लेकिन गोपाल के पास लाल रंग नहीं था,नया रंग खरीदने के लिए पास में रूपए भी नहीं । इतना लाल रंग भी नहीं कि रजनी के माथे पर लाल बिंदी सजा सके। फिर उसने सोंचा कि रजनी की नहीं भगवान कृष्ण की तस्वीर बनाऊंगा। इसके सुंदर शरीर में नीला रंग व मासूमियत भर दूंगा…लेकिन आज इसके पास नीला रंग भी तो नहीं था। तो फूलों से ढकी हरी-भरी पहाडी,दूर डूबता सुरज…पहाडन गगरी उठाए झरने से पानी ला रही ।लेकिन आज गोपाल के पास हरा रंग भीं नहीं था। लाल नही,गुलाबी नहीं,पीला नहीं,हरा नहीं, नीला नही और ना गेरूआ रंग था। बस एक रंग स्याह काला उसके खजाने में था…क्योंकि इस रंग कभी उपयोग ही नहीं किया। मगर काले रंग से कोई सुंदर रूमानी तस्वीर नहीं बनाई जा सकती है। यह रंग तो उदासी का रंग होता है। गरीबी व कुरुप चीजों का प्रतीक है। यह देवियों का नहीं राक्षसों का रंग है। काले रंग से रजनी की तस्वीर नहीं बनाई जा सकती…बाल कृष्ण की तस्वीर नहीं बन सकती,न किसी सुंदर राजकुमारी की न मुग़ल शहज़ादी की…न हरी भरी फूलों से लदी पहाडी की। न डूबते हुए सुरज की न रंग-रंगीनी की…इस कुरूप बदरंग मनहुस रंग से बस अंधेरी,गंदी,बदबूदार गली की ही तस्वीर बन सकती है। इस गली की तस्वीर…? नहीं नहीं यह भला किस तरह हो सकता है? इस भयानक दृश्य की तस्वीर भला कौन देखना चाहेगा? मगर …इस बार गोपाल ने खिडकी से झांक कर नीचे गली को देखा तो उसे चाल की टेढी-मेढी दीवारों में,उनके ऊपर पडी चिमनी और उससे निकलते हुए धुंए में,खेलते हुए बच्चों में,पनवाडन की दुकान के आगे लगी भीड में…एक अजीब सा कलात्मक दृश्य उभरता नजर आया। चालों की दीवारें एक-दूसरे पर इस बेतरतीब से गिरी पडी थी मानो लडखडाते शराबी एक-दूसरे का सहारा लेने की कोशिश में हो। दीवारों का साया जमीन पर काली परछाइयां बना रहा था। रोशनी व साया,साया व रोशनी। ढलते हुए सुरज की तिरछी किरणों ने एक तरफ की दीवारों पर उजाला कर रखा था,दूसरी तरफ छाया। उजालेदार दीवारों पर काली-काली खिडकी ऐसी लगती थी मानो अंधकारमय अंधी आंखें। गरीब बच्चे कठपुतलियां लग रहे थे जिनके लंबे तिरछे साए ऐसे पड रहे थे मानो उनके डरावने कल की परछाइयां अभी से बन रही हो।

मरेली बिल्ली के पीछे दौड रहा जंग खाया कुत्ता किसी हजारों बरस पुराने जमाने की याद दिला रहा था। जंगल का कानून जहां हर शक्तिमान जानवर कमजोर को शिकार बनाना अपना अधिकार समझता था। दीवार के नीचे खडे हुए मजदूरों की मैली धोती से लगी हुयी काली टांगें ऐसी लगती मानो काले खंबे जिस पर उस सारी इमारत का बोझ हो। ऊपर खपरैल से सटी  कारखाने की चिमनी एक रहनुमा अंगुली की तरह ऊपर इशारा कर रही थी। जिसमें से निकलता धुंआ आसमान में इस तरह फैल रहा था जैसे कोई काला भयभीत करने वाल परचम हवा में लहरा हो…गोपाल जो उस गली और उसकी हरेक चीज से नफरत करता रहा,उसे भी आज मानना पडा कि उस दृश्य में भी एक तस्वीर जरूर उभरती नजर आती है। उसे ऐसा लगा कि इस अंधेरे बदरंग दृश्य को पेंट कराने के लिए शायद किस्मत ने आज उससे सारे दिलकश लाल और पीले व नीले तथा हरे रंग ले लिए थे…फिर उसने सोंचा गर ऐसा है तो यही सही। मैं बहुत दिनों से देवी-देवताओं,राजकुमारियों,शहजादियों की तस्वीरें बनाता रहा हूं। दुनिया ने उसे देखने व परखने से इंकार कर दिया है। अपने कला के मंदिर में मैं रजनी की पूजा करता रहा हूं। लेकिन उसने भूले से भी मुझे याद नहीं किया। उसके चरणों में सारे रंग रख दिए,लेकिन उसने मेरी भेंट को कभी स्वीकार नहीं किया। कला की पूजा के लिए मजदूरी की,पेट काटा,नींद व आराम हराम किया, खून की कुर्बानी दी । लेकिन उसने मेरी तस्वीरों की तरफ आंख उठा कर नहीं देखा। अब एक बदरंग बदसुरत भयानक तस्वीर बनाकर इस समाज व दुनिया से बदला लूंगा…ताकि लोग देखें कि कहां और किस हाल व माहौल में एक गरीब कलाकार जिंदगी काटने को मजबूर है।

इस लम्हे तस्वीर का नाम भी बिजली की तरह कौंधता उसके दिमाग में आ गया… जहां मैं रहता हूं अपने रंगों के डब्बे को उठाकर वो घडी में लाया। इसमें से लाल,नीले व पीले तथा हरे रंगों की खाली बोतलें बाहर फेंक दी। फिर काले रंग की ट्युब को हथियार तरह उठा ली । दिन और रात वो इस तस्वीर पर काम करता रहा… सब कुछ भूल गया। उसके दिमाग में धुन थी तो यही कि इस अंधेरी व गंदी गली की तस्वीरें इस सारे समाज की तस्वीर खींच कर दे जो इस अंधेरे व गंदगी को परवान चढाती है। यहां तक कि उसके कैनवास पर सिर्फ गली ही नहीं उसकी रूह भी उभर आए… इस रूह का एहसास गोपाल को आज पहली बार हुआ था, तस्वीर बनाते हुए उसने अपनी गली को नए नजरिए से देखा। कलाकार की आंखों से देखा,उसकी निगाह गली की गंदगी और अंधेरे को चिरती हुयी उस इंसानियत तक पहुंची जो इस गंदगी व अंधेरे की ओट में छिपी हुई थी। अब गोपाल ने यह देखा कि उसकी गली ईट पत्थर और लकडी के ढेरों से मिल कर नहीं बनी,बल्कि उन इंसानों की जिंदगी के ताने-बाने से बनी है। पहली बार उसने देखा कि यहां के रहने वाले जानबूझ कर गंदे नहीं रहते,गंदे रहने पर मजबूर हैं। उसने देखा कि पनवाडन की दुकान के सामने लगा हुआ नल सिर्फ दो तीन घंटे के लिए चलता है,वह भी सुबह सवेरे जब आस पास की सब चालों की स्त्रियां अपने बर्तन ले कर पानी भरने आती हैं। पानी की एक-एक बूंद पर कितनी लडाई,झगडा होता …फिर नल में पानी आना बंद हो जाता है। इसलिए उसने तस्वीर में सुबह का वकत ही रखा और दिखाया कि स्त्रियों की कतार खाली बरतन लिए इंतजार में खडी हैं। एक बर्तन नल के नीचे रखा हुआ है। नल से एक एक बूंद…सिर्फ एक बूंद टपक रहा है। अब गोपाल ने देखा कि इस गली के रहने वाले गंदे हैं,लेकिन बुरे नहीं थे। वो आपस में लडते थे,गालम गलौज करते थे,लेकिन उनके दिलों में लालच व जलन नहीं थी।

वो मेहनत मजदुरी से झुके झुके परेशान जरूर रहते लेकिन इनके चेहरों से मुस्कुराहट एकदम गायब नहीं हुयी थी। वो अब भी हंस सकते थे…हंसते थे। गोपाल ने कोशिश कि यह सब उसकी तस्वीर में आ जाए। लेकिन जब तस्वीर बन कर तैयार हुई तो गोपाल को संतोष नहीं हुआ। उसे महसूस हुआ कि तस्वीर में किसी चीज की कमी है। गली के उस रूह की कमी थी जो वहां के रहने वालों की हंसी,मुस्कुराहट,चीख पुकार, बच्चों के खेल कूद में जाहिर होती थी। उस उम्मीद की कमी थी जो इस गली के रहने वालों के दिलों में अभी तक जिंदा थी…मगर उस रूह को,उम्मीद को,तडप एवं जोश को,उस गली के मुस्तकबिल को किस तरह दिखाए? रात भर गोपाल खिडकी में बैठा सोंचता रहा। लेकिन उसकी समझ में न आया…यहां तक कि सवेरा हो गया,नींद में पडी गली आंखे मलती हुयी जाग पडी। पनवाडन ने अपनी दुकान को झाडना पोंछना शुरु कर दिया,सुबह की शिफ्ट वाले मजदूर कारखाने को जाने लगे। कितनी ही रसोईयों से धुंआ निकल कर चिमनी के धुंए में मिलने लगा…यही सब तो उसने अपनी तस्वीर में दिखाया था। लेकिन जब उसकी नजर छतों पर से होती हुई ऊपर उठी तो उसे मालूम हुआ कि उसकी तस्वीर में किसी चीज की कमी थी। सारे आसमान पर प्रात: काल की गुलाबी ऊषा फुटी हुयी थी,मानो किसी सुंदरी ने,रजनी ने नींद से उठते अपने चेहरे पर शोख पाऊडर मल लिया हो। गुलाबी आसमान के दृश्य के साथ गली की गंदगी और अंध्रेरी थी। काली रात जो अब खत्म हो रही थी, सुबह की किरणों में गलती जा रही थी…उसकी तस्वीर के आसमान को भी सवेरे की,नए दिन की,उम्मीद की लाल रोशनी से जगमगा उठना चाहिए। यह एहसास बिजली की रफ्तार से उसके दिमाग पर चमका। लेकिन यह लाली आई कहां से? उसके पास लाल रंग था ही नहीं। न बाज़ार से खरीदने को रूपए थे। किसी से उधार भी नहीं ला सकता था। लेकिन तस्वीर के उपरी मंजर पर लाली जरूर होनी चाहिए… गोपाल को याद आया कि तस्वीर को इस दिन प्रदर्शनी के लिए भेजना है। लेकिन लाली न मिली तो वो मुम्किन नहीं हुई,अधूरी रह गई। अधूरी ही नहीं झूठी होगी। मगर लाली कहां से आए ? आसमान पर लाली छाई हुयी थी । लेकिन गोपाल के हांथ वहां तक नहीं पहुंच सकते थे… कि आसमान के चेहरे से लेकर अपनी तस्वीर में लाली भर दे। क्या तस्वीर अधूरी रहेगी ?

नहीं नहीं…गोपाल को ऐसा लग रहा था कि तस्वीर अधूरी रही तो उसकी जिंदगी,उसकी मेहनत एवं कला सब बेकार होगी…तीन रातों को जागने के बाद इसका सर चकरा रहा था। हांथत-पांव बुखार से जल रहे थे। गाल तमतमा रहे थे…

उसे अपना कमरा,सब तस्वीरें…महात्मा बुध,भगवान कृष्ण,सावित्री व शकुंतला,मुग़ल शहज़ादी और राजपूत राजकुमारी,कमल के फूल,हरी भरी वादियां……हर चीज घूमती हुई मालूम पड रही थी……बस एक चीज अपने जगह पर बनी हुई थी…उसकी नयी बनाई तस्वीर,जो पूरी होने के लिए,शाहकार बनने के लिए लाली की कुछ बूंदों के इंतजार में थी।

ना जाने कब और किस तरह गोपाल एक टूटे हुए शीशे के सामने खडा हो गया,जिस में देखकर वह शेव करता था। आईने में अपनी सुरत देखकर डर गया। दाढी बढी हुयी,बाल परेशानी व गर्द में उठे हुए,कमीज के कालर पर काले पेंट के धब्बे,आंखों में लाल रोडे,तमतमाते गालों पर गुलाबी लाली……बुखार में जलते,खौलते,दौडते खून की लाली।

कला प्रदर्शनी मे सबसे अधिक भीड…जहां मैं रहता हूं…तस्वीर के सामने थी,प्रथम पुरस्कार भी उसे ही मिला था।

कला को समझने वाले,उसे परखने वाले,पूजा करने वाले,उसके बारे में ढींगे मारने वाले सब ही वहां उपस्थित थे। सब गोपाल की प्रशंसा कर रहे थे।

‘यह है सच्ची कला। जिंदगी का यथार्थ रूप। कितनी जान है इस तस्वीर में,जबान से बोलती है’।

‘गोपाल ने तस्वीर नहीं बनाई,जिंदगी को आईना दिखाया है। मगर इतनी कीमत! बहुत ज्यादा है’।

‘कला बेशकीमती होती है। इस तस्वीर से रूमानी कला का समय खत्म एवं दूसरी किस्म की कला का समय शुरू होता है…। कितनी गहरी नजर है इस कलाकार की। हर मामूली सी दिखने वाली चीज तक पहुंची है।

‘ऐसा मालूम पडता है कि कलाकार ने उस गली में महीनों जाकर वहां की गरीब जिंदगी को करीब से देखा है’।

‘इस पूरी गली को काले रंग से पेंट किया है। इस कल्पना की भी दाद देनी पडती है। कितनी उदासी इस काले अंधकार में है। कितना दुख,कितनी पीडा,कितना गहरा सन्नाटा…मानो एक गली की तस्वीर न हो,दुनिया के सारे गरीबों की जिंदगी की तस्वीर हो…’।

‘हां मगर आसमान पर जो ऊषा की लाली है……असल कमाल यही है! जिससे तस्वीर का मतलब ही बदल जाता है। बजाए उदासी और निराशा के… यह तस्वीर जनता के आशावान कल की झलक दिखाती है ? इस लाली का इस्तेमाल काबिले तारीफ है’।

‘फिर यह मामूली रंग नहीं है……यह खून की तरह लाल है,जिसमें हल्की हल्की स्याही दौडती जा रही……’

‘कलाकार ने जान कर इस रंग का इस्तेमाल किया है……नए सुबह का उजाला जनता के लहू से जन्म लेता है’।

‘जनता के लहू से या कलाकार के लहू से ?

‘इस पर सब ठहाका मार कर हंस पडे। इसी बीच किसी ने कहा ‘कलाकार गोपाल को भी देखा’? सबकी नजर घूम गई्। कहां…किधर । वो क्या है ? दुबला पतला सूखा युवक जो दीवार का सहारा लिए दूर से अपनी कला की ओर देख रहा है।

‘जी नहीं… वो नहीं हो सकता। इतना महान कलाकार और उसके फटे पुराने कपडे’ ?

‘लेकिन मैं कहता हूं कि वही गोपाल है। बेचारा बीमार दिखाई देता है। चेहरे का रंग तो देखो,बिल्कुल पीला हो गया है। जिस्म में खून बिल्कुल ही नहीं।

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