आज अख्तर नज्मी की कुछ ग़ज़लें. इनके बारे में इतना ही पता है कि इनका जन्म 1930 में हुआ और 1997 में इंतकाल. आज प्रचण्ड प्रवीर की इस प्रस्तुति का लुत्फ़ लीजिये और इस शदार शायर के बारे में हमारा ज्ञानवर्धन कीजिए- मॉडरेटर
===========
जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ।
या किसी और तलबगार को दे देता हूँ।
धूप को देता हूँ तन अपना झुलसने के लिये
और साया किसी दीवार को दे देता हूँ।
जो दुआ अपने लिये मांगनी होती है मुझे
वो दुआ भी किसी ग़मख़ार को दे देता हूँ।
मुतमइन अब भी अगर कोई नहीं है, न सही
हक़ तो मैं पहले ही हक़दार को दे देता हूँ।
जब भी लिखता हूँ मैं अफ़साना यही होता है
अपना सब कुछ किसी किरदार को दे देता हूँ।
ख़ुद को कर देता हूँ कागज़ के हवाले अक्सर
अपना चेहरा कभी अख़बार को देता हूँ ।
मेरी दुकान की चीजें नहीं बिकती नज़्मी
इतनी तफ़सील ख़रीदार को दे देता हूँ।
****************************
कब लोगों ने अल्फ़ाज़ के पत्थर नहीं फेंके
वो ख़त भी मगर मैंने जला कर नहीं फेंके
ठहरे हुए पानी ने इशारा तो किया था
कुछ सोच के खुद मैंने ही पत्थर नहीं फेंके
इक तंज़ है कलियों का तबस्सुम भी मगर क्यों
मैंने तो कभी फूल मसल कर नहीं फेंके
क्या बात है उसने मेरी तस्वीर के टुकड़े
घर में ही छुपा रक्खे हैं बाहर नहीं फेंके
**********************************
अपना अपना रास्ता है कुछ नहीं
क्या भला है क्या बुरा है कुछ नहीं
जुस्तजू है इक मुसलसल जुस्तजू
क्या कही कुछ खो गया है कुछ नहीं
मुहर मेरे नाम की हर शय पे है
मेरे घर मे मेरा क्या है कुछ नहीं
कहने वाले अपनी अपनी कह गए
मुझसे पूछ क्या सुना है कुछ नहीं
कोई दरवाजे पे है तो क्या हुआ
आप से कुछ मांगता है कुछ नहीं
**********************
सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है
ये ज़मी दूर तक हमारी है
मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ
जिससे यारी है उससे यारी है
हम जिसे जी रहे हैं वो लम्हा
हर गुज़िश्ता सदी पे भारी है
मैं तो अब उससे दूर हूँ शायद
जिस इमारत पे संगबारी है
नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंने
अब समन्दर की ज़िम्मेदारी है
फ़लसफ़ा है हयात का मुश्किल
वैसे मज़मून इख्तियारी है
रेत के घर तो बह गए नजमी
बारिशों का खुलूस जारी है
***********************
Prabhat Ji , Nazmi Ji Kee Ghazlen Padh Kar Aanandit Ho Gyaa Hun .