पता नहीं आप लोगों का इसके ऊपर ध्यान गया कि नहीं वाम विचारक श्री अरुण महेश्वरी ने जनवादी लेखक संघ के नेतृत्व के नाम एक खुला पत्र अपने फेसबुक वाल पर जारी किया. उसके बाद जनवादी लेखक संघ के उप-महासचिव संजीव कुमार का एक पत्र जारी हुआ और उसके बाद श्री नन्द भारद्वाज और अरुण महेश्वरी के बीच एक गंभीर बहस चल रही है. सब कुछ फेसबुक वाल्स पर. इस बहस के सभी प्रासंगिक पहलू यहाँ दिए जा रहे हैं. पढ़िए और खुद फैसला कीजिए कि बाजार का विरोध करने वाला एक लेखक संगठन कितनी सहजता और महारत के साथ बाजार को साध रहा है. बहरहाल, मेरे कहे पर मत जाइए अपनी राय बनाइये. मेरी कोई राय फिलहाल बनी नहीं है लेकिन मन में एक संशय जरूर पैदा हो गया है. फिलहाल यह बहस- प्रभात रंजन
=================================
अरुण महेश्वरी की फेसबुक वाल– क्या जनवादी लेखक संघ का नेतृत्व बतायेगा ?
कल (३ दिसंबर को) भारतीय भाषा परिषद की ओर से अशोक सेकसरिया की स्मृति में श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया था । अशोक जी के पिता भाषा परिषद के प्रमुख संस्थापक द्वय में एक थे । अशोक जी का परिषद की गतिविंधियों में कभी कोई दखल रहा या नहीं, हम नहीं जानते । लेकिन यह सब जानते हैं कि पिछले कुछ सालों से वे परिषद की गतिविधियों से सख़्त नाराज़ थे । परिषद के कर्मचारियों से जुड़े सवालों पर उन्होंने एक मर्तबा बाक़ायदा धरना तक देने की धमकी दी थी । पिछले दिनों एक खुले पत्र से उन्होंने उसके मौजूदा संचालकों पर कई बुनियादी नैतिक सवाल उठाये थे । हम उस पत्र के एक बिंदु पर लेखक मित्रों का ध्यान खींचना चाहते हैं । इसमें वे लिखते हैं –
“भारतीय भाषा परिषद ने अपने मासिक वागर्थ के दो नवलेखन अंकों को मिला कर बिना किसी संपादन और भूमिका के एक किताब बना कर राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को उसकी चार सौ पचास प्रतियां बेची हैं। यह किताब बाजार में कहीं उपलब्ध नहीं, परिषद की पुस्तक की दुकान‘पुस्तक केंद्र’ तक में नहीं। जिनलोगों की रचनाएं संकलित हैं, उन्हें पुस्तक भेजना तो दूर, यह भी सूचित नहीं किया गया है कि उनकी रचनाओं का क्या हश्र हुआ है।‘’
इसपर आगे वे कहते हैं – “सूचना के अधिकार के तहत राजा राममोहन रायलाइब्रेरी फाउंडेशन और सरकारी संस्थाओं द्वारा पुस्तकों की खरीद की प्रक्रियाओं – उनके चयन और चयनकर्ताओं के बारे में जानकारी प्राप्त करना और चुप्पाचोरी धांधली को रोकना बहुत जरूरी है।“
ज़ाहिर है, अशोक जी की शिकायत थी कि परिषद ने वागर्थ के दो अंकों को किताब का रूप देकर राममोहन लाइब्रेरी को बेच डाला, मुनाफ़ा किया लेकिन लेखकों को फूटी कौड़ी नहीं दी, यहाँ तक कि पुस्तक की एक प्रति भी नहीं भेजी । इस काम को इतने गोपनीय ढंग से किया गया कि परिषद के प्रकाशनों की सूची में भी उस किताब का कोई स्थान नहीं है ।
भारतीय भाषा परिषद के उद्देश्यों में स्पष्ट रूप से कहा गया है, ‘संस्था के पूर्ण रूप से उन्नायक होने के कारण उसकी कोई भी प्रवृत्ति, जिसमें मुद्रण और प्रकाशन भीसम्मिलित है, किसी भी प्रकार के आर्थिक लाभ या प्राप्ति के लिए संचालित नहीं की जाएगी।’ इसी का हवाला देते हुए अशोक जी ने भाषा परिषद की इस करतूत को अनैतिक क़रार दिया ।
ग़ौर करने लायक बात है कि जिस चीज़ पर अशोक जी की इतनी तीव्र आपत्ति थी, वह तो आज के हिंदी जगत का जैसे एक सर्वमान्य नियम बनी हुई है । अधिकांश पत्र-पत्रिकाएँ यह काम धड़ल्ले से करती है । इनमें व्यक्तिगत प्रयत्नों से निकलने वाली पत्रिकाओं के साथ ही लेखक संगठनों की पत्रिकाएँ भी शामिल है । फिर भी, व्यक्तिगत प्रयत्नों की पत्रिकाओं के पीछे के तर्कों पर कोई टिप्पणी करना ठीक नहीं होगा, लेकिन जो बात भारतीय भाषा परिषद पर लागू होती है, वही लेखक संगठनों पर ज़रूर लागू होती है क्योंकि वे भी ‘आर्थिक लाभ या प्राप्ति के लिये संचालित नहीं‘ है ।
जनवादी लेखक संघ की पत्रिका ‘नया पथ‘ के भी कुछ अंक पिछले दिनों किताब का रूप लेचुके हैं । मज़े की बात यह है कि इन किताबों को कहीं भी जनवादी लेखक संघ की किताबों के रूप में पेश नहीं किया जाता है । पता नहीं इनकी कॉपीराइट किसके पास है, लेकिन जनवादी लेखक संघ की वेबसाइट पर इनका कोई उल्लेख नहीं मिलता ।
ऐसे में, अशोक जी भारतीय भाषा परिषद के वर्तमान पदाधिकारियों को जिस चीज़ के लिये अपराधी के कठघरे में खड़ा कर रहे थे, वह सवाल तो जलेस के पदाधिकारियों पर भी उठाया जा सकता है । हम नहीं जानते जनवादी लेखक संघ की केन्द्रीय परिषद के अनुमोदन से यह काम किया जाता रहा है, या यह सब किसी की सनक का नतीजा है । लेकिन हमारा मानना है कि संगठन के सदस्यों को इसका संतोषप्रद उत्तर ज़रूर मिलना चाहिये । यह भी बताया जाना चाहिये कि क्या इन पुस्तकों में शामिल लेखकों को कोई मानदेय या पुस्तक की एक प्रति ही मुहैय्या करायी गई है ? पुस्तक की रॉयल्टी वग़ैरह के सवाल अलग हैं ।
संतोष चतुर्वेदी की फेसबुक वाल- कल अरुण माहेश्वरी जी ने अपनी फेसबुक वाल पर ‘क्या जनवादी लेखक संघ का नेतृत्व बतायेगा?’ इस शीर्षक से एक पोस्ट जारी किया था। जलेस के सन्दर्भ में अरुण जी द्वारा उठायी गयी मुख्य आपत्ति इस प्रकार थी –
“जनवादी लेखक संघ की पत्रिका ‘नया पथ‘ के भी कुछ अंक पिछले दिनों किताब का रूप ले चुके हैं। मज़े की बात यह है कि इन किताबों को कहीं भी जनवादी लेखक संघ की किताबों के रूप में पेश नहीं किया जाता है । पता नहीं इनकी कॉपीराइट किसके पास है, लेकिन जनवादी लेखक संघ की वेबसाइट पर इनका कोई उल्लेख नहीं मिलता।” मैंने इस प्रश्न के बावत जलेस के उपमहासचिव संजीव जी से वस्तुस्थिति जाननी चाही थी। आज संजीव जी का जवाब हमें ई-मेल से प्राप्त हुआ। जो इस प्रकार है-
प्रिय संतोष भाई,
‘नया पथ’ की सामग्री से किताबें छपवाने का जो मुद्दा अरुण माहेश्वरी जी ने उठाया है, उसको लेकर मैंने चंचल चौहान और मुरली मनोहर प्रसाद सिंह से, जो अभी बच्चों के पास अमरीका में हैं, बात की. मेरी जो समझ बनी, वह आपसे साझा कर रहा हूँ।
1. ‘नया पथ’ की सामग्री से जो किताबें छपी हैं, वे हैं: हिंदी-उर्दू साझा संस्कृति पर नेशनल बुक ट्रस्ट से, फैज़ पर दो किताबें राजकमल से, १८५७ पर किताब राजकमल से, और नागार्जुन पर लोकभारती से। इनके अलावा तीन सौ रामायणों वाली किताब भी राजकमल से है, जिसमें ‘नया पथ’ की सामग्री बमुश्किल पचास फीसद है और उसमें भी सबसे बड़ा हिस्सा मेरे द्वारा किया हुआ रामानुजन के लेख का अनुवाद है। वह व्यक्तिगत रूप से मेरे सम्पादन में निकली एक कृशकाय पुस्तक है, जिसमें बाबा बुल्के, रोमिला थापर और पी के बसंत के लेख/पुस्तकांश भी शामिल किये गए हैं, जो ‘नया पथ’ में नहीं थे। अन्य किताबों में भी ‘नया पथ’ से थोड़ी भिन्न सामग्री शामिल की गयी है. जैसे फैज़ वाली किताब में अशोक वाजपेयी और शमीम फैजी के लेख हैं जो ‘नया पथ‘में नहीं थे। प्रणय कृष्ण के लेख का एक हिस्सा ‘आजकल’ में प्रकाशित लेख से अपनी पूर्णता प्राप्त करता है। सभी किताबों की भूमिकाएं ‘नया पथ’ में प्रकाशित सम्पादकीय से भिन्न हैं।
2. किताबों में शामिल सभी लेखकों को मानदेय भेजे गए हैं, किताबें भी भेजी गयी हैं। ‘नया पथ’की ओर से (पत्रिका में प्रकाशन के लिए) मानदेय अलग और प्रकाशक की ओर से अलग। किताब और मानदेय मिलने में कहीं चूक हुई हो तो प्रकाशक या सम्पादक को सूचित किया जा सकता है।
3. ये किताबें जनवादी लेखक संघ के प्रकाशन नहीं हैं, भिन्न-भिन्न प्रकाशकों के प्रकाशन हैं, जिन पर स्वत्वाधिकार संपादक और लेखक का है। लेखकों को मानदेय और किताब की प्रति, किताब में उनके लेख के इस्तेमाल का अधिकार प्राप्त करने की शर्त के रूप में दी गयी है।
4. चूंकि इन विशेषांकों की पाठकों की ओर से बहुत मांग थी, अतः नया पथ के संपादक मंडल की ओर से स्वतंत्र पुस्तक छपवाने का फैसला किया गया था। पुस्तक के रूप में उस सामग्री को अधिक लंबा जीवन मिल जाता है और पुस्तकालयों के माध्यम से वह अधिकाधिक लोगों के लिए तथा अधिक लम्बे समय के लिए उपलब्ध भी हो जाती है। मेरी अपनी समझ है कि तकनीकी-प्रक्रियागत बिन्दुओं में उलझा कर हमारा जो मुख्य काम है –प्रगतिशील-जनवादी चरित्र के लेखन की पहुँच बढाने के सभी साधनों का इस्तेमाल –उसे टाला नहीं जाना चाहिए। बेहतर बिक्री-नेटवर्क वाले प्रकाशकों के यहाँ से छप कर ये चीज़ें ज़्यादा दूर तक पहुँची हैं। यह उनमें शामिल लेखकों के लिए संतोष का ही विषय होना चाहिए, और है। यह लेखकों के हित की बात है, अहित की नहीं। कोई मुझे समझा दे कि उनका क्या अहित हो गया?
5. जहां तक तकनीकी-प्रक्रियागत बिन्दुओं का भी सवाल है, अरुण जी की आपत्ति बहुत तात्विक नहीं है। ‘नया पथ’ या जलेस किसी लेखक की रचना का कॉपीराइट तो खरीदता नहीं है। ऐसी स्थिति में उन लेखकों से उनके लेख के इस्तेमाल की इजाज़त लेकर कोई भी किताब निकाल सकता है, क्या यह बताने की ज़रुरत है? फ़र्ज़ कीजिये कि यही किताबें किसी और के सम्पादन में निकलतीं तो आप क्या करते/कहते! ज़हूर सिद्दीक़ी साहब ने ‘नया पथ’ के साझा संस्कृति वाले अंक से काफी सामग्री ले कर उर्दू में किताब संपादित की, वह भी एन. बी. टी. से है। इसके लिए उन्हें नया पथ या जलेस से नहीं, उन लेखों के लेखकों से इजाज़त लेनी पडी। यह बात सिर्फ यह जताने के लिए कह रहा हूँ कि अगर प्रश्न तकनीकी प्रकृति के हों तो उत्तर भी तकनीकी प्रकृति के दिए जा सकते हैं और उसमें कोई बुराई नहीं है।
6. लेखकों को अगर उनकी रचनाओं का पूरा श्रेय मिलना चाहिए, तो संपादकों को उनके सम्पादन का क्यों नहीं? मेरी नज़र में यह न सिर्फ तकनीकी रूप से गलत है, बल्कि श्रम-विरोधी दृष्टिकोण भी है कि संपादकों को उनके सम्पादन का श्रेय और स्वत्वाधिकार न दिया जाए। और हममें से कौन नहीं जानता कि श्रेय ही महत्वपूर्ण है, स्वत्वाधिकार के नाम पर रोयल्टी का अंश इतना भी नहीं होता कि साल भर में एक-एक बार किताब के contributors से फोन पर बात कर लेने का खर्चा निकल आये।
7. भारतीय भाषा परिषद् वाले मामले के साथ इन किताबों का मामला तुलनीय नहीं है। भारतीय भाषा परिषद् ने किताबें खुद छापीं और उन्हें, जैसी कि अरुण जी की जानकारी है, बड़ी संख्या में पुस्तकालय ख़रीद का हिस्सा बनवाया। इसका मतलब है कि उसने बाकायदा व्यवसाय किया और उसमें लेखकों को हिस्सा नहीं दिया सो अलग। आप उससे, ‘नया पथ’ की सामग्री लेकर एन. बी. टी., राजकमल आदि से किताबें छपवाने के मामले की तुलना कैसे कर सकते हैं! ख़ास कर जब यह पूरी प्रक्रिया का पालन करते हुए, अनुमति ले कर और मानदेय दे कर, किया गया हो
नन्द भारद्वाज- बहुत सटीक और तथ्यपूर्ण उत्तर है यह। बेहतर होता अरुण जी, जलेस जैसे संगठन पर इस तरह की नकारात्मक टिप्पणी करने से पहले सही तथ्यों की जांच स्वयं कर लेते,यही बात मैंने अपनी टिप्पणी में कहीं है, स्वयं अरुण जी अगर उपमहासचिव संजीव से संपर्क कर लेते तो उन्हें इस तरह की टिप्पणी करना कतई अनुचित ही लगता। बहरहाल, जब मित्रगण किसी संगठन से अलग हो जाते हैं तो अपने मन में इस तरह की ग्रंथि बना लेते हैं, इस प्रवृत्ति से बच सकें तो यह उन्हीं के हित में है।
अरुण महेश्वरी- संतोष चतुर्वेदी जी के माध्यम से नया पथ के अंकों की सामग्री के आधार पर किताबों के प्रकाशन के बारे में जो जानकारी मिली, वह मेरी जानकारी से काफी ज्यादा है। मैं नहीं जानता था कि इतने सारे अंकों की सामग्री को पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जा चुका है।
इसके अलावा जिस बात की मुझे आशंका थी, वह भी सच प्रमाणित हुई कि जनवादी लेखक संघ की पत्रिका के लिये इकट्ठा की गयी सामग्री से जो पुस्तकें प्रकाशित हुई, उनपर जनवादी लेखक संघ का कोई अधिकार नहीं है। वे किताबें संगठन के नेतृत्व के कुछ लोगों की निजी संपदा है।
मेरे प्रश्नों में ‘श्रम विरोधी’ नजरिया कैसे है, यह मैं नहीं जानता। मुझे यह भी समझ में नहीं आता कि ये किताबें हूबहू अशोक सेकसरिया जी की आपत्ति की तर्ज पर जलेस के स्वत्वाधिकार में प्रकाशित होती तो वह गलत होता और इन्हें जलेस के नेतृत्वकारी लोगों के स्वत्वाधिकार में प्रकाशित कर दिया गया तो यह ‘श्रम के सम्मान’ जैसा महत काम होगया !
बहरहाल, इन तथ्यों के अंतर की बात को और पढ़ने-जानने का काम मैं मित्रों पर ही छोड़ता हूं।
अरुण महेश्वरी– जो मित्र मेरे प्रश्नों को संगठन से मेरे संबंधों आदि से जोड़ कर देख रहे हैं, उनकी समझ की बलिहारी है।वे हमें सलाह दे रहे हैं कि क्यों नहीं फोन करके हमने सारी बात जान ली। मतलब क्यों नहीं सारी बातों को गुपचुप ही सलटा लिया। उनकी नजर में वही नैतिक होता!
नन्द भारद्वाज- नहीं अरुण जी, मैंने यह कहीं नहीं कहा कि आप या कोई व्यक्ति ‘फोन करके गुपचुप तरीके से‘ सारी बातें जान ले। आप बाकायदा लिखकर पूछते और लिखकर ही जवाब मांगते,एक पुराने सदस्य के नाते यह आपका हक था। कृपया बात को ठीक तरह से लें।
अरुण महेश्वरी- नन्द जी, कभी चीजों को थोड़ा बदलने दीजिये। वैसे ही सब पतन की ओर है। आपने जो बातें कही, वैसी ही बाते श्री संजय माधव जी ने भी लिखी थी। उनके जवाब में जो मैंने लिखा,उसे यहां भी चस्पा कर देता हूं।
“पीड़ा महसूस होती है, जनवादी आंदोलन की वर्तमान दशा पर ? सवाल करने मात्र पर आप दुखी है,सवाल से जुड़ा सच ज़रा भी विचलित नहीं करता ! चीज़ें अंदर ही अंदर इसी प्रकार सड़ती है और हम समझ भी नहीं पाते, वह हमारा जाना हुआ रूप खोकर कुछ और ही बन गयी होती हैं ।
सोचिये, निठारी कांड का सुरेन्दर कोहली । जब तक वह मामला सामने नहीं आया था, पड़ौसियों तक के लिये वह एक सामान्य आदमी था । अचानक पता चला कि वह तो नरभक्षी था । आस्ट्रेलिया के अपराधी जोसेफ़ फ्रिजल की कहानी तो जग-प्रसिद्ध है । उसने अपने बच्चों को दुनिया की बुराई से बचाने के लिये सालों तक अपने घर के तहख़ाने में क़ैद रखा और उनसे तमाम प्रकार के दुष्कर्म किये । बाहर के ख़तरों से अपनी बेटी को बचाने के लिये उसे बेटी को नष्ट कर देना मंज़ूर था । वह अपने पक्ष में ऐसी ही दलील देता था कि यदि मैंने ऐसा न किया होता और बेटी को बाहर के बुरे संसार में जाने दिया होता तो उसकी बेटी ज़िन्दा नहीं रहती । उसने कम से कम उसकी हत्या तो नहीं की ! वह चाहता तो उन्हें मार भी सकता था , लेकिन उसने जिंदा रखा ।
श्री अरुण महेश्वरी का नन्द भारद्वाज के नाम खुला पत्र
प्रिय नन्द भारद्वाज जी,
‘