‘लप्रेक’ को लेकर हिंदी में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं देखने में आ रही हैं उससे मुझे सीतामढ़ी के सबसे बड़े स्थानीय कवि पूर्णेंदु जी की काव्य पंक्तियाँ याद आती हैं- ‘कि हर पिछला कदम अगले कदम से खौफ खाता है.’ हिंदी गद्य का इतिहास बताता है कि हर दौर का अपना मुहावरा होता है, अपनी भंगिमा होती है, अपनी विधा भी होती है. उदाहरण के लिए, कहानियां लम्बी होनी चाहिए यह बात हिंदी में 80 के दशक उत्तरार्ध में स्थापित होने लगी जब उदयप्रकाश की कहानियों की धूम मची, व्यावसायिक पत्रिकाएं बंद होने लगी, लघु पत्रिकाओं का चलन बढ़ा, जहाँ पन्नों की कोई सीमा नहीं होती थी. नहीं तो, याद कीजिए तो हिंदी कहानी के मूर्धन्य लेखकों कमलेश्वर, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा की बहुत कम कहानियां हैं जो आकार में दीर्घ हैं. लेकिन इसमें शायद किसी को हो संदेह हो कि उनकी कहानियों के माध्यम से हिंदी में आधुनिकता आई.
लप्रेक आज की जीवन स्थितियों की देन है. आज हम यूनिकोड फॉण्ट की वजह से फोन में, लैपटॉप में हिंदी लिखने के क्षेत्र में क्रांति आ गई है. हिंदी जितना पढने पढ़ाने की वजह से, हिंदी दिवस मनाने से, राष्ट्रभाषा राष्ट्रभाषा चिल्लाने से नहीं फैली थी उससे कहीं अधिक यूनिकोड क्रांति की वजह से फ़ैल रही है. यह तथ्य है कि हिंदी में लिखने वालों की इतनी बड़ी तादाद कभी नहीं थी जितनी आज है. आज यह जन जन की अभिव्यक्ति की भाषा ही गई है. लोग मेट्रो में जाते हुए, बसों में बैठे हुए, किचेन में सब्जी बनाते हुए, ऑफिस में काम की बोरियत तोड़ते हुए लिख रहे हैं. हिंदी में इसी लेखन क्रांति की जरुरत थी. इसकी वजह से अभिव्यक्ति की छोटी विधाओं की स्वीकृति बढ़ेगी. अंग्रेजी में तो 140 कैरेक्टर्स की ट्विटर कहानियों ने भी धीरे धीरे अपना बड़ा स्पेस बनाया है. प्रतिरोध प्रतिरोध चिल्लाने का नहीं यह समय को, उसकी मांग को समझने का समय है.
अब तक हम साहित्य वाले दडबों में सिमटे रहना चाहते हैं, कोने में दुबके रहना चाहते हैं. इसलिए हमें यह लग रहा है कि लप्रेक हमारी जमीन के ऊपर कब्ज़ा जमा रहा है. मैं विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ कि कोई किसी की जगह नहीं हड़प रहा है बल्कि हिंदी का विस्तार हो रहा है. यूनिकोड क्रांति की वजह से जो हिंदी का एक बड़ा मध्यवर्ग पैदा हुआ है उसको साहित्य पढने की तरफ मोड़ना होगा. सही बताऊँ, बिना ओरिएंटेशन के जब ‘गुनाहों का देवता’ जैसी लोकप्रिय समझी जाने वाली कृति भी बच्चों को पढ़ाई जाती है तो उनको वह कडवी दवा की तरह लगने लगती है. मैं यह बात विश्वविद्यालय में पढ़ाने के अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ.
लप्रेक पाठकों को न केवल हिंदी से जोड़ेगा बल्कि रवीश कुमार जैसे हिंदी समाज के सबसे विश्वसनीय चेहरे के लप्रेक लेखक होने से लोग हिंदी पढ़ते हुए शर्मायेंगे नहीं. बल्कि उसे अपनाएंगे. हिंदी के विस्तार की विधा को संकुचित मानसिकता से नहीं खुले दिमाग से समझने की जरुरत है. लप्रेक जहाँ जहाँ जाएगी वहीं वहां हिंदी जाएगी. मुश्किल उन लेखकों के लिए है जो जुगाड़ से भाषा में अपनी पहचान बनाते रहे हैं. जब पाठक और बाजार की सीधी दखल बढ़ेगी तो जनतांत्रिकता आएगी. वह जनतांत्रिकता जिसमें पाठक ही निर्णय की अंतिम मुहर लगाएगा. बड़े बड़े बाबाओं के सर्टिफिकेट जाली करार दिए जायेंगे.
मैं यह नहीं कह रहा कि लप्रेक साहित्य की कोई बड़ी विधा है, लेकिन यह ख़म ठोक कर कह रहा हूँ कि यह आत्मविश्वास की विधा है. आज हिंदी वालों को इस आत्मविश्वास की सबसे अधिक जरुरत है.
रवीश जी को हार्दिक बधाई |
अच्छी पहल की है रवीश जी ने…निश्चित तौर पर पाठक और लेखक दोनो के हित में , बस जरा सा रिस्क है पर मुझे नही लगता की इससे घबराने की जरूरत है, और हाॅ मै बाहें खोलकर इसका स्वागत करता हूॅ …
इस पुस्तक के लेखक 'रवीश कुमार' ख्यातिप्राप्त पत्रकार हैं। पत्रकारिता और नयापन साथ न चले तो बात बनती नहीं है। वे भी हरदम नया करते रहने की फितरत वाले हैं। इसलिए उनका आलोचनओं से दो -चार होना पहले से ही तय रहता है।
बहरहाल यहां -वहां पढ़े गए उनके 'लप्रे'क'….एक राधा एक मीरा / दोनों ने प्रेम को पूजा टाइप के लगते हैं। कभी उनमे रोमानियत की महक आती है तो कभी गहरे प्रेम की निच्छलता। पढ़ कर देखते हैं। फिर मेरी तरफ से भी घोर आलोचना तय है।