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रंगीन शीशे से दुनिया को देखना: आर के लक्ष्मण

2015 में ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में महान कार्टूनिस्ट आर. के. लक्ष्मण की आत्मकथा ‘द टनेल ऑफ़ टाइम’ का एक अंश प्रकाशित हुआ है. अनुवाद मैंने ही किया था- प्रभात रंजन 
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और इस तरह मैं बगीचे में भटकता रहता था, वह बहुत बड़ा था, वहां कम उम्र के लड़कों के लिए छिपने की जगह और झाड़ियाँ थी, घर के बड़े बूढों की नजरों (और बुलावों) से दूर. मैं गिलहरियों और कीड़ों की भागाभागी देखता और चिड़ियों की हर तरह की गतिविधियाँ.
 
मैंने रेखांकन करना कब शुरू किया? शायद तीन साल की उम्र में. जाहिर है, पहले दीवार पर, किसी भी आम बच्चे की तरह. उन दिनों अभिभावक अधिक सहनशील होते थे. दीवार पर मुझे उस तरह से रेखाकारी करने के लिए किसी ने भी रोका नहीं. मैं लकड़ी के जले हुए टुकड़ों से रेखाएं खींचता था जो मैं पिछवाड़े के गर्म पानी के चूल्हे से ले आता था. मैं बनाता क्या था? ओह, सामान्य चीजें, पेड़, घर, पहाड़ के पीछे सूरज…
 
कक्षा में मैं पढ़ाई में अच्छा नहीं था. एक बार जब मेरे अध्यापक ने शाबासी में मेरी पीठ थपथपाई थी तो वह मेरे रेखांकन की वजह से. हम सबको पत्ते बनाने के लिए कहा गया था. हर बच्चा अपना सिर खुजाते हुए यह सोचने लगा कि पत्ता किस तरह का लगता होगा. एक ने केले का पत्ता बनाया जो स्लेट के लिहाज से बहुत बड़ा हो गया. एक और ने एक ऐसा धब्बे जैसा कुछ बनाया जिसे देखा नहीं जा सकता था- ईमली का पत्ता! कुछ और किसी तरह कुछ निशान जैसा बना पाए. जब अध्यापक मेरे पास आये, उन्होंने पूछा, ‘यह तुमने खुद बनाया था?’ मैं कुछ झिझका. क्या मैंने कुछ गलती कर दी? क्या मेरी कान उमेठी जायेगी? मेरे गालों पर थप्पड़ पड़ेंगे? मैंने चुपचाप सिर हिला दिया. और आपको बताऊँ, अध्यापक असल में हँस पड़े. उन्होंने कहा कि मैंने बहुत अच्छा काम किया था. उनक उस पत्ते में बड़ी सम्भावना दिखाई दी थी जो मैंने बहुत पहले एक गर्म दोपहर उस उबाऊ कक्षा में बैठकर बनाई थी. मैंने पीपल के पेड़ पर पत्ते को देखा था जिसके सामने से मैं हर रोज स्कूल जाते हुए गुजरता था.  
 
आम तौर पर, लोग  हर चीज को महत्व नहीं देते हैं. वे अपने आसपास के चीजों को शायद ही देखते हैं. लेकिन मेरी आँखें बहुत तेज थी. मैं हर चीज का अवलोकन किया करता था और मुझे स्वाभाविक रूप से हर चीज विस्तार से याद रहती थी. यह हर कार्टूनिस्ट और रेखांकनकार के लिए जरूरी होता है.
 
पीछे जाकर जहाँ तक मैं याद कर सकता हूँ मुझे याद आता है कि कौवे मुझे आकर्षित करते थे क्योंकि पूरे भूदृश्य में वह बहुत जीवंत लगता था. हमारे बगीचे में वह हरे पेड़ों, नीले आकाश, लाल धरती और पीली चहारदीवारी के बीच अलग से ही काला दिखाई देता था. बाकी चिड़िया डरपोक होती थी. वे खुद को छिपा लेने की कोशिश करती थी. लेकिन कौवे बड़े चालाक होते हैं. वे अपना ध्यान बड़ी अच्छी तरह से रख सकते हैं.
 
तीन साल की उम्र में मैंने कौवों का रेखांकन शुरू कर दिया. मैंने उनको मजाहिया ढंग से बनाना शुरू किया. हमारे बाग़ में बहुत सारे पेड़ थे. आम, कठसेब, मार्गोसा, सहजुन… हर पेड़ रोमांच पैदा करता था. मैं उनके ऊपर चढ़ जाता था और वहां से दुनिया को देखा करता था. वही पुरानी जगहें पेड़ की ऊंचाई से कितनी अलग दिखाई देती थी. लेकिन ऐसा नहीं था कि उनके ऊपर चढ़ते हुए डर न लगता हो. कल्पना कीजिए कि एक छोटे बच्चे का अचानक किसी शाखा पर किसी गिरगिट से सामना हो जाए, निस्पंद और डरावने. यह सच में इतिहास-पूर्व जंतु है, आप जानते हैं. इसी तरह छिपकली, जिसको हम ओनान कहते थे- जिनकी फड़कती पूँछों से ही यह लगता था कि वे जीवित थे. जब मैं पीछे मुड़ कर सोचता हूँ तो मुझे यह समझ में आता है कि बच्चों को यथार्थ कल्पना से अधिक शानदार प्रतीत होता है. सोनपंखी से लेकर चूहे तक, हर वह चीज जो चलती फिरती है उसे हैरान करती है…
कभी न ख़त्म होने वाली कहानियों के स्रोत थे जिनको मैं बगीचे में अपने लिया बनाता रहता था. उदाहरण के लिए, आपने कभी चीटियों की बाम्बी देखी है? चीटियों को व्यस्तता से चलते देखा है? सामान्य तौर पर दो तरह की पंक्तियाँ होती हैं- एक बाहर जाती हुई दूसरी अंदर आती हुई. मेरा बड़ा भाई, जो मुझसे ठीक बड़ा था, को नई नई खोज करने का शौक था. वह मुझे बताया करता था कि ये चीटियाँ इन बाम्बियों के नीचे बहुत बड़े शहर में रहती थी. उस शहर में चौड़ी सड़कें और बड़े बड़े घर में रहते थे, वहां डाकघर थे, पुलिस थाना था, खेल के मैदान थे, सिनेमा हॉल थे. यह कि चीटियों के अपने सिनेमा पोस्टर भी होते थे. वह चीटियों के गुप्त जीवन के बारे में एक से एक कहानियां बनाते हुए कभी नहीं थकता था. 
 
मैं अपने स्कूल के बारे में आपको बताये बिना नहीं रह सकता. जब मैं पांच साल का हुआ तो मैं स्कूल जाने लगा. मुझे स्कूल से नफरत थी. सामान्य सी बात थी. अच्छा बताइए, किस बच्चे को स्कूल जाना पसंद होता है? मैं कक्षा में दयनीय लगता था. मुझे पक्के तौर पर यह लगता था कि इंसानों के लिए अस्वाभाविक और बुरा होता है. 
 
स्कूल में हम लोग फर्श पर बैठते थे और अपने पाठ एक साथ दोहराते थे. अध्यापक बहुत भयानक थे. वे बोर्ड पर कुछ लिख देते थे, हमसे यह कहते कि उसको उतार लें और बाहर बीड़ी पीने या गप्पबाजी करने चले जाते थे. मैं बहुत नटखट था. अक्सर सजा के रूप में मेरी पिटाई होती थी. लेकिन इससे मेरी बदमाशी कम नहीं होती थी.
 
मेरे परिवार का इस बात के ऊपर जोर रहता था कि मुझे स्कूल जाना चाहिए, लेकिन जब मैं परीक्षा में फेल हो जाता था तो मुझे उसके लिए डांट नहीं पड़ती थी. मैं हर साल बड़ी मुश्किल से पास होता था. कॉलेज में जाने पर भी मेरा यही हाल था. मैंने बीए की परीक्षा पास कर ली. यह जानकर मुझे कितनी राहत मिली कि अब मुझे कक्षा में फिर से नहीं जाना था.
 
हाँ, मैंने काफी मेहनत की और काफी समय तक की. लेकिन मैं यह बात नहीं भूल सका कि आप रंगीन शीशों से दुनिया को देख सकते थे. न ही उन शोर मचाने वाली काली चिड़ियों के प्रति मेरा प्यार कम हुआ, जो बच-बचाने में कामयाब रहती थी. मैं कौवों को उसी तरह आनंदपूर्वक चित्रित करता रहा जैसे मैं बरसों पहले बचपन के बेपरवाह दिनों में किया करता था, जब हर दिन उत्साह से भरा और हर घंटा रोमांचक होता था.
अनुवाद- प्रभात रंजन 
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9 comments

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