रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की यह कविता मुझे तब तब जरूर याद आती है जब विप्लव की आहट सुनाई देती है. कितना विरोधाभास है कि दिनकर जी जीवन के आखिरी कुछ वर्षों को छोड़ दें तो आजीवन कांग्रेस की सत्ता के करीब बने रहे, नेहरु जी, इंदिरा जी के करीब रहे. लेकिन उनकी मृत्यु के बाद 1974 में सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन में विद्रोही यही कविता गाते थे, दीवारों पर लिखते थे. यह कविता इस बात की ताकीद करती है कि रचना को लेखक के जीवन से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. लेखक तो मर जाता है रचनाएँ बार बार अपनी प्रासंगिकता को साबित करती हैं. कल रात जब ऑटोवाले ने मुझे घर छोड़ने के बाद अचानक पूछा, सर, ‘आप’ की सरकार बन जाएगी न?’ मुझे फिर यह कविता याद आई- मॉडरेटर
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सदियों की ठंढी, बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता? हां, लंबी-बडी जीभ की वही कसम,
“जनता, सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।”
“सो ठीक, मगर, आखिर इस पर जनमत क्या है?”
‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?”
मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह, समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता; गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
मैं इसे इस तरह मानता हूं कि जो काम चाह कर भी नहीं कर पाते….कवि उसे अपनी लेखनी से दुनिया को बता देते हैं कि हम जो राह न पकड़ पाए..आपसे हो सके तो जरूर पकड़ना
dear parbhat ranjan g very good written information
http://www.nvrthub.com/
जनता के लिए सिंहासन अभी भी बहुत दूर है…..
मेरे ब्लॉग पर आप सभी लोगो का हार्दिक स्वागत है.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा – 1882 में दिया जाएगा
धन्यवाद
प्रेरक सामयिक प्रस्तुति …
जनतंत्र से जन तो गायब सा हो गया है बस तंत्र ही ढोये जा रही है जनता ….