Home / फिल्म समीक्षा / दिबाकर बनर्जी की अब तक की सबसे कमजोर फिल्म है ‘ब्योमकेश बक्शी’

दिबाकर बनर्जी की अब तक की सबसे कमजोर फिल्म है ‘ब्योमकेश बक्शी’

फिल्म समीक्षक आजकल समीक्षक कम पीआर कम्पनी के एजेंट अधिक लगने लगे हैं. ऐसे में ऐसे दर्शकों का अधिक भरोसा रहता है जो एक कंज्यूमर की तरह सिनेमा हॉल में जाता है और अपनी सच्ची राय सामने रखता है. युवा लेखक-संपादक वैभव मणि त्रिपाठी की लिखी ब्योमकेश बक्शी फिल्म की यह समीक्षा इसीलिए मुझे अच्छी लगी क्योंकि इसमें इस फिल्म से जुड़ी आशाओं-निराशाओं को बड़े संतुलित ढंग से रखा गया है. सबकी वाह-वाह में अपनी वाह-वाह मिलाने के अंदाज में नहीं- प्रभात रंजन 
===========================================
युवाओं के इस देश भारत की हिंदी पट्टी के बहुत से युवा ब्योमकेश बक्शी को दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले, बासु चटर्जी के बहुचर्चित धारावाहिक के मार्फ़त जानते और पहचानते हैं. पिछले साल जब ब्योमकेश बक्शी के पहले ट्रेलर को देखा था तो सोच रहा था की निर्देशक इस चरित्र के साथ ऐसा क्या अलग करेंगे कि सिनेमा घर  में बैठी हुई पीढ़ी श्याम बेनेगल की छाया से अलग होकर इस फिल्म का मज़ा उठा सके. यहाँ दिबाकर के अन्दर छिपे बैठे रणनीतिकार की जम कर तारीफ करनी होगी. इन्होने अपने ट्रीटमेंट और कहानी के दम पर एक ऐसी पृष्ठभूमि का निर्माण किया जिससे की बासु चटर्जी से तुलना जैसा कोई ख्याल सिनेमा हाल में बैठे दर्शक को नहीं आये.

फिल्म की कथा की पृष्ठभूमि कलकत्ता के अतीत का वह हिस्सा है जिसके बहुत से मिथ आज भी मौजूद हैं. तो कहानी में कोई भी एंगल, कोई भी ट्राईएंगल घुसाया जा सकता था और वह बहुत अस्वाभाविक नहीं लगता. इस मामले में फिल्म सफल है कि चीनी, जापानी, ब्रिटिश, बर्मीज़, पुलिस, आर्मी, ड्रग पेडलर और चरस, गांजा, अफीम, रोमांस और हत्या का एक कॉकटेल दिबाकर ने परोसा है जिसे दर्शक स्वीकार करेंगे. और ऐसा कहने का विश्वास इसलिए आ जाता है क्योंकि कहानी का हर पात्र फ्रेम दर फ्रेम विकसित होता है. फ्रेम दर फ्रेम उफान पर आता है. ब्योमकेश कोई सुपर हीरो नहीं है पर हीरो तो है और असली हीरो वही होता है जो अपनी गलतियों और कमियों से सीखे. दिबाकर का ब्योमकेश कमियों वाला हीरो है कोई अतिमानव सुपर हीरो नहीं. दिबाकर के पास स्कोप था कि वह ब्योमकेश बक्शी से हाथापाई करवा लें, किसी बिल्डिंग के ऊपर से कूदा दें और अपने जाल में फांसने को तत्पर अंगूरी देवी के आगोश में डुबो दें और फिर एक गहरी नाटकीयता से सब कुछ जायज करार दे दें. पर इससे परहेज किया गया और यह बात फिल्म के हित में जाती है. तेज़ी से बदलते घटना क्रम और अच्छे नैरेटिव स्किल्स के साथ  निर्देशन फिल्म का सकारात्मक पक्ष है.

पर अपनी तमाम खासियतों और तमाम अच्छाइयों के बाद भी फिल्म में कुछ बड़ी कमजोरियां हैं. सबसे बड़ी कमजोरी है सुशांत यानी ब्योमकेश खुद. उन्हें देख कर पहली नज़र में उनके ब्योमकेश होने का विश्वास नहीं होता. फिर सीन दर सीन यह विश्वास पुख्ता होता जाता है. फिल्म में निर्देशक दिखाना चाहें या नहीं पर ब्योमकेश का चरित्र एक जीनियस का है और सुशांत की भाव भंगिमाएं और बॉडी लैंगवेज कहीं से भी एक लर्नर वाली नहीं दिखाई पड़ती. ब्योमकेश बक्शी का साथी और लगभग उतने ही प्रसिद्ध चरित्र अजित के कैरेक्टर में कहीं से भी वह गहराई नज़र नहीं आती जो एक क्लासिक के लेखक में हममे से बहुत लोग खोजते हैं. अजित का चरित्र फिल्म में बेहद बिखरा हुआ सा बेहद टूटा हुआ सा है. अंगूरी देवी के चरित्र को विकसित करने के लगभग सभी मौके या तो छोड़ दिए गए या छूट गए. अंगूरी देवी यानी स्वस्तिका मुखर्जी को जो शुरुआत मिली वह बांड फिल्मों सरीखी थी पर उस रिदम को अंत तक बनाये रखा नहीं जा सका. कोई आवश्यक नहीं था की अपने पहले ही केस में ब्योमकेश को अपनी नायिका मिल ही जाए सत्यवती यानी दिव्या मेनन के चरित्र को फिल्म की कहानी में अगर नहीं घुसेड़ा जाता तो शायद अंगूरी देवी के चरित्र को और विकसित करने, घटनाओं को थोडा विस्तार देने का समय मिल जाता. बावजूद इसके सत्यवती के चरित्र को दिव्या ने फिल्म के किसी भी अन्य चरित्र की तुलना में अपने अभिनय के दम पर अधिक स्मरणीय बना दिया है. नीरज कबी या डा. अनुकूल गुहा या जो कोई भी उसका नाम हो के अभिनय में संभावनाएं तो खूब दिखाई देती हैं पर हर बार सुशांत की सीमाओं के कारण उस चरित्र की प्रभावोत्पादकता में कमी आती है. अगर आपके सामने कमजोर खिलाडी है तो निश्चित आपका खेल भी प्रभावित होता है.
वैभव मणि त्रिपाठी 

एक और चीज़ जो फिल्म को थोडा कम प्रभावी करती है वो है फिल्म में ड्रग और हेरोइन वाला एंगल. फिल्म के अंत तक आते आते ऐसा लगने लगता है जैसे चीन और जापान के ड्रग माफिया और जापानी सेना को फिल्म में घुसाने के लिए फिल्म में यह संकल्पना गढ़ी गयी. दिबाकर जैसी मेधा वाले निर्देशक जिनका नाम लेने से आज भी खोसला का घोंसला की याद पड़ जाती है उनसे उम्मीद थी की यशराज बैनर का बेहतर इस्तेमाल करने के लिए वे कहानी के स्तर पर प्रयोग करने की हिम्मत जुटाएंगे. अफ़सोस इस मुद्दे पर उनको जरूर निराशा लगी होगी जो ब्योमकेश बक्शी के नाम पर बनी फिल्म को इस उम्मीद से देखने गए होंगे की औसत मसाला फिल्म से अलग कुछ देखने को मिलेगा.

अगर कोई मुझसे पूछे की क्या मुझे ब्योमकेश बक्शी देखनी चाहिए तो मेरा सीधा सा जवाब है देखनी चाहिए पर कोई उम्मीद मत पालिए. क्योंकि आप बासु दा की कमी महसूस करें या न करें पर आप दूरदर्शन वाले ब्योमकेश बक्शी धारावाहिक के अजित बनर्जी और ब्योमकेश बक्शी को बहुत बहुत मिस करने वाले हैं.  
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

रोमांस की केमिस्ट्री मर्डर की मिस्ट्री: मेरी क्रिसमस

इस बार पंद्रह जनवरी को मैं श्रीराम राघवन की फ़िल्म ‘मेरी क्रिसमस’ देखने गया था। …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *