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‘कोर्ट’ : भारतीय सिनेमा का उजला चेहरा

सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म ‘कोर्ट’ हो और प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक मिहिर पंड्या की लेखनी हो तो कुछ कहने को नहीं रह जाता है, बस पढने को रह जाता है- मॉडरेटर 
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जब मुझसे साल दो हज़ार चौदह में देखी गई सर्वश्रेष्ठ हिन्दुस्तानी फ़िल्मों के नाम पूछे गए तो मेरी ज़बान पर फ़ौरन अाए पहले तीन नाम − अाँखों देखी, किल्ला अौर कोर्ट, में दो नाम मराठी फ़िल्मों के हैं। यह भाषाई विभेद याद रख किया गया चयन नहीं है, लेकिन मैं यह जानता हूँ कि यह शुद्ध संयोग भी नहीं है। मायानगरी में बन रहे अौर अाजकल बॉलीवुडकहे जाते बड़े बजट अौर बड़े सितारों वाले लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा की चकाचौंध से कुछ दूर टहलते हुए निकलें तो समकालीन हिन्दुस्तानी सिनेमा पर पैनी नज़र रखने वाले विश्लेषक अापको बतायेंगे कि हमारे दौर का सबसे उल्लेखनीय सिनेमा दरअसल मराठी भाषा में ही निर्मित हो रहा है। बिना ज़्यादा शोर-शराबे के बीते अाठ-दस सालों में नई पीढ़ी के मराठी निर्देशक सिनेमा की तकनीक अौर कथ्य में निरंतर नए अध्याय जोड़ रहे हैं। गहरी सामाजिक सोद्देश्यता से युक्त यह फ़िल्में भारतीय सिनेमा के मानचित्र पर कुछ उसी तरह की मौन क्रांति कर रही हैं, ठीक जिस तरह अाज से बीस साल पहले इरानी सिनेमा ने अपनी मितव्ययी सिनेमाई भाषा अौर भावप्रवण कथ्य के साथ विश्व सिनेमा के पटल पर हलचल मचाई थी।
चैतन्य तम्हाणे निर्देशित कोर्टको हाल ही में सम्पन्न राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों में साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मका तमगा (स्वर्ण कमल) हासिल हुअा है। अविनाश अरुण की किल्लाभी ज़्यादा पीछे नहीं है अौर उसे सर्वश्रेष्ठ मराठी फ़िल्मके राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया है। चैतन्य अौर अविनाश, दोनों के लिए ही यह फीचर फ़िल्म की दुनिया में निर्देशकीय पदार्पण है, पहला प्रयास। अौर दोनों ही अभी उमर में तीस से कुछ कम हैं।
यहाँ उल्लेखित दोनों फ़िल्में कोर्टअौर किल्लाअपने कथ्य अौर कहन में एक-दूसरे से नितान्त भिन्न स्पेस घेरती हैं, सरल बंटवारे में इन्हें विचारप्रधानअौर भावप्रधानके भिन्न सिनेमाई वर्गीकरणों में बाँटा जा सकता है। लेकिन फिर यह दोनों फ़िल्में यह बताने के लिए भी उपयुक्त उदाहरण हैं कि क्यों बेहतर सिनेमा के सामने बुद्धि अौर हृदय को अलग-अलग खाँचों में रखनेवाले ऐसे सरलीकृत वर्गीकरण पूरी तरह फेल हो जाते हैं। दरअसल समकालीन मराठी सिनेमा का चेहरा इन दोनों समांतर धाराअों के संगम की उपज है जो उच्च कलात्मक गुणवत्ता के साथ कथ्य की ईमानदारी को अपनी प्राथमिकताअों में सबसे ऊपर रखता है। मैंने यह दोनों फ़िल्में बीते साल ठंडे तिब्बती शहर मैक्लॉडगंज में एक छोटे लेकिन बहुत ही खूबसूरती अौर समझ के साथ अायोजित होनेवाले फ़िल्म समारोह धर्मशाला अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सवमें देखीं। दरअसल इन भाषाई फ़िल्मी उत्कृष्टताअों अौर इन्हें मंच देने वाले ऐसे स्वतंत्र सिनेमाई अायोजनों से मिलकर ही हमारे दौर के सिनेमा का एक उजला चेहरा बनता है जो बड़े निर्माताअों अौर निरंतर विकराल रूप धारण कर रहे वितरकों की मनमानियों के मध्य अच्छे सिनेमा को बचाने की कोशिश कर रहा है।
कोर्टसत्रह अप्रैल को हिन्दुस्तान भर के सिनेमाघरों में रिलीज़ होने वाली है।
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कोर्ट
लेखक अौर निर्देशक: चैतन्य तम्हाणे
निर्माता: विवेक गोम्बर, कैमरा: मृणाल देसाई,
कलाकार: वीरा साथीदार, विवेक गोम्बर, गीतांजली कुलकर्णी, प्रदीप जोशी, उषा बाने
शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्‍य भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहाने गरीबों का गला घोंटा जाता है।” − प्रेमचन्द, ‘रंगभूमिउपन्यास की शुरुअाती पंक्तियाँ।
बीते साल देखी वृत्तचित्र फ़िल्मकार अानंद पटवरधन की गहरी अात्म अालोचनात्मक विज़न से भरी फ़िल्म जय भीम काम्रेडकी याद अभी तक हृदय पर ताज़ा है। अपने दोस्त विलास घोघरे की अात्महत्या से उपजे सवालों से जूझते फ़िल्मकार अपना फोकस जाति अौर वर्ग के अापसी अंत:संबंधों की अोर मोड़ते हैं अौर समकालीन समय अौर समाज की कुछ जटिल संरचनाअों को हमारे समक्ष रखते हैं। चैतन्य तम्हाणे का फ़ीचर की दुनिया में निर्देशकीय पदार्पण, नई मराठी फ़िल्म कोर्टदेखते हुए पटवरधन का सवालों भरा वृत्तचित्र बेतरह याद अाता है। कोर्टअपनी चेतना में जाति, वर्ग अौर राज्यसत्ता के अन्त:संबंधों पर उतना ही जागरुक राजनैतिक बयान है जितना पटवरधन का वृत्तचित्र था। लेकिन जय भीम काम्रेडके गहरे अात्मीय स्वर से उलट, फिक्शन फ़िल्म होने के बावजूद तम्हाणे की कोर्टका स्वर अपने किरदारों अौर उनकी कथा से सचेत निरपेक्षता रखता है। यह सिनेमाई भाषा, जहाँ स्केंडिनेवियन निर्देशक द्वय दार्देने ब्रदर्स की सिने-भाषाई निस्संगता की झलक मिलती है, दर्शक को विश्लेषण का विचारशील धरातल देती है अौर कोर्टकी यही विशेषता इसे हमारे दौर की सबसे ख़ास फ़िल्मों में से एक बनाती है। 
कथा के केन्द्र में हैं दलित लोकगायक नारायण काम्बले (वीरा साथीदार), जिनसे दर्शक का पहला परिचय फ़िल्म निम्नवर्गीय बस्ती में चल रही नुक्कड़ सभा के मंच पर उनके सत्ता अौर सरकार को सीधे चुनौती देते अोजस्वी जनगीत के माध्यम से करवाती है। लेकिन इस जनसभा के ख़त्म होने से पहले ही पुलिस द्वारा उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाता है अौर यहीं कथा में राज्यसत्ता का प्रवेश होता है। उनकी गिरफ़्तारी की एक विचित्र वजह सामने है। उन पर शीतलादेवी झोपड़पट्टी के सफ़ाई मज़दूर वासुदेव पवार, जिसकी मौत गटर में उतरकर सफ़ाई का कार्य करते हुए ज़हरीली गैस का शिकार होकर हुई है, को अात्महत्या के लिए उकसाने का अारोप है। अारोप है कि पिछले दिनों उसी बस्ती में हुई सभा में उनके द्वारा गाए लोकगीत, जिसमें कथित रूप से कहा गया है कि सिर पर मैला ढोने जैसा अपमानजनक कार्य करने से मौत भली, को सुनकर वासुदेव ने जानबूझकर अपनी जान दी है। अौर इसके साथ ही शुरु होती है अदालती कार्यवाही की असमाप्त प्रक्रिया जिसे फ़िल्मकार ने किसी शल्य चिकित्सक वाली बारीक़ी से फ़िल्माया है। मृत अौपनिवेशिक कानूनों की सरकार द्वारा अपने हित में मनमानी व्याख्या, बचाव पक्ष द्वारा बेल की निरंतर खारिज होती अपीलें अौर इस सबके बीच न्याय पाने की असमाप्त प्रक्रिया को ही स्वयं कार्यवाही का असल उद्देश्य बनते देखा जा सकता है। अगर उस पुरानी कहावत को याद करें जिसमें भारतीय न्याय व्यवस्था के बारे में कहा गया था कि यहाँ देर है अंधेर नहीं‘, तो कोर्टइस प्रक्रिया के दोष स्पष्ट करते हुए बताती है कि अधिकतर मामलों में यहाँ दरअसल देर ही अंधेर है 
लेकिन जो बात कोर्टको पूर्ववर्ती सामाजिक रूप से चेतस फ़िल्मों से अलग अौर ख़ास बनाती है वो है इसकी सामाजिक विषमताअों के विभिन्न स्तरों अौर उनके मध्य मौजूद अंतरविरोधी जटिलताअों को धारण करने की क्षमता। किसी एक सामाजिक असमानता को विषय बनाने की प्रक्रिया में समाज में मौजूद अन्य सामाजिक विषमताअों का सरलीकरण अौर उन्हें गौणबनाकर देखने की प्रवृत्ति न सिर्फ़ सिनेमा में, हमारे समाज अौर राजनीतिक विमर्श में भी बहुतायत से मिलती है। कोर्टके केन्द्र में हमारे मुल्क़ की भीतर से खोखली हो चुकी न्याय व्यवस्था है जो अब सिर्फ़ राज्यसत्ता में बैठे लोगों के हित में काम करती है। लेकिन इसमें मौजूद प्रतिनिधि किरदारों के माध्यम से समकालीन समाज अपनी तमाम असमानताअों अौर जटिल संरचनाअों के साथ यहाँ मौजूद है। फ़िल्म में जैसे कोर्ट की कार्यवाही अागे बढ़ती है कथा में पक्ष अौर विपक्ष में ज़िरह करते दोनों किरदार − सरकारी वकील की भूमिका में गीतांजली कुलकर्णी अौर बचाव पक्ष के वकील की भूमिका में विवेक गोम्बर, प्रमुख किरदार बनकर उभरते हैं। अागे फ़िल्म अदालत से निकलकर इन दोनों किरदारों की निजी ज़िन्दगियों में बारी-बारी से प्रवेश करती है। काम्बले को इस बेतुके अारोप से बचाने की लड़ाई लड़ रहे वकील विनय को हम मानव अधिकारों के लिए लड़नेवाले एक अादर्शवादी अौर ईमानदार वकील के रूप में जानते हैं जो स्वयं धनी पारिवारिक पृष्ठभूमि से होने के बावजूद एक समतावादी समाज के लिए लड़ी जा रही सामूहिक लड़ाई में शामिल है। विनय शहर के उस बौद्धिक सभ्रान्त का हिस्सा है जो समाज में सामाजिक अौर अार्थिक बराबरी के लिए लड़ने को प्रतिबद्ध है लेकिन ज़मीनी धरातल पर निरंतर अकेला पड़ता जा रहा है। इसके बरक़्स सरकारी वकील नूतन वृहत भारतीय मध्यवर्ग का हिस्सा है। फ़िल्म अदालत से बाहर उनकी रोज़मर्रा की दिनचर्या के शान्त निरीक्षण के माध्यम से दिखाती है कि किस तरह एक कामकाजी महिला का संघर्ष सिर्फ़ उसके कार्यस्थल तक सीमित न होकर चौबीस घंटे जारी रहता है। कोर्टअन्य राजनैतिक फ़िल्मों की तरह सही को सही अौर गलत को गलत दिखाने के लिए न तो घटनाअों का सरलीकरण करती है, न किरदारों को स्याह सफ़ेद के दायरों में बांटती है अौर न ही उनका कैरीकेचर बनाती है, अौर यही इसे अन्य सामाजिक रूप से सोद्देश्य फ़िल्मों के दायरे में एक पायदान ऊपर ले जाता है। 
फ़िल्म के एक प्रसंग में जहाँ मृत सफ़ाई मज़दूर की पत्नी अदालत में गवाही देने के लिए अाई हैं, बचाव पक्ष के वकील विनय उन्हें अपनी कार में वापस घर छोड़ने जाते हैं। तार्किक रूप से देखें तो यह दोनों पात्र असमान सामाजिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई में एक ही अोर खड़े हैं। वकील विनय की अागे बढ़कर मदद करने की तमन्ना भी स्पष्ट है। लेकिन इस सदिच्छा के बावजूद सचेत कैमरा पूरे दृश्य में दोनों किरदारों के मध्य मौजूद असुविधाजनक अपरिचय को बखूबी पकड़ता है। इस अपरिचय की वजहों को समझना ज़रूरी है। यहाँ वकील विनय का किरदार उस पूरे वाम बौद्धिक सभ्रान्त का प्रतिनिधि चरित्र हो जाता है जिसने समानता के सिद्धान्तों पर सदा यकीन किया अौर वर्गीय बराबरी के नारे भी लगाए, लेकिन अपनी दैनिक दिनचर्या में वह देश के बहुसंख्यक शोषित-दलित वर्ग से पूरी तरह कट गया। सदिच्छा के बावजूद उसने जाति के सवाल को वर्ग के सामने अौर सामाजिक सम्मान के सवाल को वर्गीय बराबरी की स्थापना के स्वप्न के सामने सदा दोयम दर्जे पर रखा। अाज के दौर में जब देश का बहुसंख्यक पिछड़ा वर्ग प्रगतिशील खेमे से निकलकर रूढ़िवादी ताकतों के प्रभाव में जाता दिखाई दे रहा है, प्रगतिशील खेमे के लिए यह अात्मालोचना बहुत ज़रूरी है कि कहीं इसकी एक वजह समय के साथ उसके सिद्धान्तों अौर रोज़मर्रा के व्यवहार में अायी फांक तो नहीं है? अगर अाप मध्यवर्गीय पात्र सरकारी वकील नूतन अौर बचाव पक्ष के वकील विनय, दोनों की कोर्ट से बाहर दिनचर्या को एक-दूसरे के बरक़्स रखें तो साफ़ दिखाई देगा कि कार से चलनेवाले, रोज़मर्रा की खरीददारी के लिए भी सुपरमार्केट पर निर्भर अौर ख़ाली वक्त बिताने के लिए एलीट क्लब का चयन करनेवाले उच्चवर्गीय पात्र विनय की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में उसका निम्नवर्ग से सम्पर्क न्यूनतम है जबकि लोकल ट्रेन से यात्रा करनेवाली, अदालत के काम के बाद घर जाकर पूरे परिवार के लिए खाना बनानेवाली अौर मनोरंजन के लिए स्थानीय नाट्यमंडली पर निर्भर मध्यवर्गीय चरित्र नूतन वृहत समाज से सीधे जुड़ी हैं। कोर्टइन महीन पर्यवेक्षणों के माध्यम से स्पष्ट करती चलती है कि सामाजिक असमानता अौर अन्यायपूर्ण व्यवस्था का ठीकरा कुछ खल पात्रों के सिर नहीं फोड़ा जा सकता (जैसा फार्मूलाबद्ध हिन्दी सिनेमा करता है) अौर इस कोशिश में यह सफ़लतापूर्वक हमें स्वयं प्रक्रिया में निहित अन्याय को पहचानने का दुर्लभ मौका देती है।
  
तम्हाणे हमारे दौर के सबसे मितव्ययी सिनेमाई भाषा के फ़िल्मकार हैं। वह अपनी फ़िल्म में संवादों से कम, मौन अौर ठहराव द्वारा कहीं ज़्यादा बातें कहते हैं। यहाँ कैमरा अपनी बदहवास गति से नहीं, अपनी बंधनकारी स्थिरता से उपजी बेचैनी के माध्यम से सर्वाधिक प्रासंगिक चीज़ें कहता है। यह बेचैनी देर तक मन के भीतर बनी रहती है अौर तकनीक के माध्यम से कथ्य के प्रतीकार्थों को खोलने का बेहतरीन उदाहरण बनती है। सिनेमैटोग्राफर मृणाल देसाई अौर निर्देशक तम्हाणे पटकथा की निरपेक्ष अाधारभूमि को कैमरा निर्देशन पर लागू करते हैं अौर फ़िल्म कोर्ट से बाहर अामतौर पर, अौर कोर्ट के भीतर के दृश्यों में ख़ासतौर पर स्थिर अचल कैमरा एंगल का प्रयोग करती है। अौर यहाँ भी अदालत की ज़्यादातर कार्यवाही पीछे कुछ दूरी पर, स्थिर धरातल पर खड़े होकर फ़िल्माई गई है। यह कथ्य में पक्षधरता बरक़्स तकनीक में वस्तुनिष्ठता बनाए रखने का प्रयास है। पक्ष-विपक्ष में बहस करते किरदारों से कैमरे की अाँख की बराबरी की दूरी देखनेवाले को एक निरपेक्ष किस्म का परिपेक्ष्य देती है, जो सिर्फ़ संवेदना जगाकर रुकती नहीं बल्कि अागे किसी ब्रेख़्तियन थियेटर की तरह दर्शक को घटनाक्रम पर सोचने अौर उसका विश्लेषण करने की अोर धकेलती है। अचल कैमरा एंगल इससे पहले भी समांतर सिनेमा के दौर में अाए मणि कौल अौर कुमार शाहनी जैसे स्थापित निर्देशकों का अौर बाद में पुणे के फ़िल्म संस्थान से पढ़कर निकले अमित दत्ता जैसे युवा वृत्तचित्र निर्देशकों का प्रिय शगल रहा है। लेकिन कोर्टमें यह अचल कैमरा एंगल इसलिए भी अाकर्षित करते हैं क्योंकि यह मुख्य किरदार को अन्यायपूर्ण तरीके से घेरकर खड़ी भारतीय न्या

 
      

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6 comments

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 16-4-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा – 1948 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

  2. बहुत उम्दा! देखने के लिए जिज्ञासा जगाती समीक्षा

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