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दिनकर की किताब ‘लोकदेव नेहरु’ के 50 साल

‘लोकदेव नेहरु’ के प्रकाशन का यह 50 वां साल है. मुझे आश्चर्य होता है कि इस किताब की तरफ नेहरु की मृत्यु की अर्धशताब्दी के साल कांग्रेस पार्टी का ध्यान भी नहीं गया. जबकि यह दिनकर जी की सबसे अच्छी पुस्तकों में ही. दुर्भाग्य है कि जो दिनकर के आलोचक रहे उन्होंने इस किताब के शीर्षक से ही यह मान लिया लिया होगा कि चूँकि दिनकर जी नेहरु के करीबी थे इसलिए इस किताब में उन्होंने नेहरु जी के महिमामंडन का प्रयास किया होगा. जबकि कांग्रेस पार्टी के नेताओं, बौद्धिकों ने इस किताब को इसलिए महत्व नहीं दिया क्योंकि यह किताब हिंदी में लिखी गई है. खुद नेहरु का मॉडल यही था कि शिक्षा अंग्रेजी ढंग की होनी चाहिए, ज्ञान अंग्रेजी में होता है, विकास का मतलब योरोपीय ढंग से आगे बढ़ना होता है. संयोग से इस किताब में रामधारी सिंह दिनकर ने नेहरु के व्यक्तित्व की इस फांस की तरफ बार-बार इशारा किया है कि वे हिंदी को अधिक महत्व नहीं देते थे, हिंदी लेखकों को भी. लेकिन उनकी जनतांत्रिकता यह थी कि वे भले स्वयं महत्व न देते रहे हों लेकिन वे जनता में उनके प्रभाव को महत्व देते थे. इसीलिए नेहरु के शासन काल में सबसे अधिक हिंदी लेखक राज्यसभा में रहे- मैथिलीशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा नवीन, स्वयं दिनकर.

‘लोकदेव’ नेहरु का महत्व क्या है? क्यों यह किताब नेहरु पर लिखी एक अलग तरह की किताब है? असल में यह पुस्तक कोई नेहरु की जीवनी नहीं है, न ही उनकी उनकी महानता की कोई गाथा है बल्कि नेहरु को जिस तरह से एक सहज इंसान के रूप में उन्होंने जाना था, जिस तरह से जनता के बीच उन्होंने उनको देखा था, उसको सहज भाव से दिनकर जी ने इस पुस्तक में लिखा है. आवश्यकतानुसार आलोचना भी की है. उनकी आध्यात्मिकता, धार्मिकता के प्रसंगों को भी छेड़ा है. लगे हाथ यह भी बता दूँ कि नेहरु के किसी करीबी द्वारा लिखी गई यह अकेली किताब है जिसमें नेहरु के पूजा-पाठ के बारे में लिखा गया है.

कहते हैं कि किसी ने श्रीमती इंदिरा गाँधी को यही किता पढवा दी थी जिसकी वजह से अचानक उनको 1969 में कांग्रेस ने दर ब दर कर दिया था और उनको दिल्ली छोड़कर पटना जाना पड़ा था. जहाँ कुछ वर्षों बाद उनका देहांत हो गया था.

मेरे पास इस पुस्तक का जो संस्करण है उसमें भूमिका के नीचे तारीख लिखी हुई है 24 मई 1965. यानी उस दिन उन्होंने इस पुस्तक का लेखन समाप्त कर दिया था. ऐसे दौर में जब जनतांत्रिकता संकट में लगने लगी है ‘लोकदेव नेहरु’ पढने की जरूरत है जो निस्संदेह देश के सबसे जनतांत्रिक प्रधानमंत्री के जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को उजागर करती है.

दिनकर को इस रूप में भी याद किया जा सकता है? 
 
      

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2 comments

  1. विशेष प्यार की सन्धि हुई व्यापार।
    प्यार में फ़क्त देना ही देना होता है जबकि व्यापार में लेना-देना लगा रहता है।

  2. विशेष प्यार की सन्धि हुई व्यापार।
    प्यार में फ़क्त देना ही देना होता है जबकि व्यापार में लेना-देना लगा रहता है।

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