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“स्वतंत्रता” शब्द गुलामी से उपजता है!

आज सुबह एक अच्छी और सार्थक बातचीत पढ़ी. गीताश्री हमारे समय की एक महत्वपूर्ण कथाकार हैं, पत्रकार हैं. उनकी यह बातचीत ‘अर्य सन्देश’ नामक पत्रिका में छपी है. बिहार झारखण्ड मूल की स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित पत्रिका के इस अंक का सुघड़ संपादन किया है राकेश बिहारी ने. बातचीत की है युवा लेखक सौरभ शेखर ने- मॉडरेटर 
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हिंदी कहानी के पाठकों के लिए गीता श्री एक परिचित नाम है. उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए लगातार यह अनुभव होता है कि यदि वे हिंदी की बजाये अंग्रेजी में लिख रही होतीं तो आज उनकी प्रसिद्धि चरम पर होती. उनके यहाँ वर्णन की जो बेबाकी और बेपरवाही है, उसे स्वीकार करने के लिए शायद हमारा हिंदी मानसअभी तैयार नहीं हुआ है. बहरहाल उनकी कहानियाँ स्त्री-अभिव्यक्ति की युगों पुरानी वर्जनाओं को ललकारने और भाषा की रूढ़ अवधारणाओं से टकराने के साहस के लिए याद रखी जाएँगी. उनकी कहानियाँ इस अर्थ में भी उल्लेखनीय हैं कि उन्होंने स्त्री अस्मिता के ऊपर चस्पां किये गए शील और सदाचरण के जिल्दों को रद्दी की टोकरी के हवाले कर स्त्री को एक पूर्ण मनुष्य के रूप में चित्रित किया है. गीता श्री  इन्हीं कारणों से आलोचकों के निशाने पर भी रही हैं. इस साक्षात्कार में उन्होंने इन सभी सवालों का जवाब जम कर और पूरी आक्रामकता से दिया है.सौरभ शेखर
१.) आप साहित्य में पत्रकारिता से हो कर आई हैं, बल्कि अभी भी पत्रकारिता सेजुड़ी हैं. पत्रकारिता और साहित्य दोनों अपने समय के यथार्थ को दर्ज करते हैं, लेकिन पत्रकारिता का रुख यथार्थ के प्रति जहाँ निरपेक्ष होता है वहीँ साहित्य यथार्थ का संवेदनात्मक चित्रण करता है. इस लिहाज से आप स्वयं को एक पत्रकार पहले मानती हैं या साहित्यकार?
मैं मूलत पत्रकार ही हूं. ये मेरा पैशन और पेशा दोनों है। ये वही जौनर है, जिसके लिए मैं पैदा हुई थी। इसी ने मुझे इस लायक बनाया कि मैं अपना कदम साहित्य की तरफ बढा सकी। पत्रकारिता में नहीं होती को साहित्य की दुनिया में नहीं आ पाती। मैं दोनों दुनियाओं में आवाजाही करती हूं। हालांकि हम हिंदी पट्टी के लोग साहित्य पढते हुए ही बड़े होते हैं। साहित्य के बीज बचपन में ही पड़ जाते हैं। पत्रकारिता से साहित्य तक आने में मुझे बड़ी मदद मिली। पत्रकारिता ने ही बारीकी और सूक्ष्मता से चीजों को देखना सिखाया है। पत्रकारीय दृष्टि का बहुत लाभ मिला है मुझे। इसीलिए कई पत्रकार बड़े अच्छे साहित्यकार साबित हुए हैं। कविता कहानी, कहीं भी देख लें। लंबी परंपरा रही है जो नई पीढी तक चली आई है। मैं अपने बारे में फिलहाल ये कह सकती हूं कि दोनों को समान रुप से साध नहीं पाई हूं। पता नहीं, साध भी पाऊंगी या नहीं। दोनों दुनियाओं में कई बुनियादी फर्क है। दोनों एक दूसरे के कंट्रास्ट हैं। आप कहते है कि पत्रकारिता का रुख यथार्थ के प्रति निरपेक्ष होता है। मैं नहीं मानती ऐसा। निरपेक्ष कुछ भी नही होता। हम किसी न किसी सापेक्ष में ही खड़े होते हैं। यह सही है कि साहित्य संवेदना पैदा करता है लेकिन पत्रकारिता भी बिना संवेदना के नहीं हो सकती। खासकर डेवलपमेंटल जर्नलिज्म, जो मैंने सालो तक किया है।
२.) समकालीन हिंदी कहानी में आपकी कुछ कहानियों ने आपकी छवि एक बोल्डलेखिका की बनाई है. ज़ाहिर है, इसके कारण आपको कुछ पूर्वाग्रहों  का भी सामना करना पड़ता होगा. आप इस टैग को ले कर कितनी सहज या असहज हैं?
ये बोल्ड लेखन क्या होता है ?कोई मुझे समझाए. इतनी अंग्रेजी तो सबको आती है कि बोल्ड मतलब क्या ? अपने समय का सच कहना बोल्ड होना है तो हां,मैं बोल्ड हूं। इस टैग को लगाने वाले लोग पहले अपने दिमाग के जाले साफ कर लें फिर बात करें। वे बोल्ड टैग को कैसे देखते हैं ? जो लोग भी अपने समय का क्रूर सच लिख रहे हैं, क्या वे सब बोल्ड नहीं हैं ? क्या आप उन्हें भी अश्लील कहेंगे?
मुझे तो हंसी आती है ऐसी सोच पर। जो बोल्ड होगा, यानी साहसी होगा..वो अश्लील कैसे होगा। बोल्डनेस तो अश्लीलता का विरोध है। जहां तक मैं समझ पा रही हूं, आप अश्लीलता की तरफ इशारा कर रहे हैं। हिंदी में सीधे सीधे कहने का साहस नहीं है इसलिए अंग्रेजी की शरण में जाना पड़ता है। मैं इस टौपिक पर वहस करने को तैयार हूं कि किस आधार पर आप मेरी कहानियों को बोल्डकहानियां कहते हैं। उसमें ऐसा क्या नया और अनोखा दिखता है जो मेरे पूर्ववर्ती कहानीकारो ने नहीं लिखा है। मैं कहानी की दुनिया में आउटसाइडर हूं और उसी का दंश झेल रही हूं। किसी को हजम नहीं हो रहा है कि सालो तक पत्रकारिता करने वाली एक स्त्री अचानक कहानीकार कैसे बन गई। साहित्य के तथाकथित विश्व विधालय अचानक मेरे खिलाफ सक्रिय हो गए। किसी को क्या बताऊं कि मैंने पत्रकारिता में रह कर साहित्य के लिए क्या क्या किया। मैंने मेहनत की है, अपने को तैयार किया है, पढ लिख कर, समझ कर आई हूं। मैंने अपनी दुनिया का विस्तार किया है। पत्रकारिता चूंकि बहुत खुली दुनिया है। वहां वैसा परदा नहीं है जैसा साहित्य में है। मैंने आपके अनुसार बहुत बोल्डस्टोरीज की हैं। अपने समय और समाज को किसी भी काल्पनिक टेबल पर बैठकर नहीं, फील्ड में घूम कर, करीब से देखा समझा है। मेरे शोध का लंबा इतिहास है। साहित्य में लोग एक पीएचडी करके अपने  पता नहीं कितना बड़ा विद्वान समझने लगते है। यहां छह शोध, पीचएचडी टाइप करके भी शोर नहीं मचा सकी। साहित्य के लिए नई हो सकती हूं..पर अपने समय और समाज को समझने में किसी से कम नहीं हूं। हां, मुझे भ्रम जरुर हो गया था कि साहित्य की दुनिया बहुत उदार होती है और यहां कुछ नई बात की जा सकती है। नई स्त्री के अवतार को जिसे मीडिया ने चिन्हित किया है, उसे साहित्य में मैं इन्ट्रोडयूस करा सकती हूं। मेरा भ्रम बुरी तरह टूट गया। यहां कूपमंडूको की जमात में मेरी नीयत को संदिग्ध ठहरा दिया गया। आप कहानी की आत्मा को नहीं पकड़ सकते। आप में दम नहीं है या आप में सच को स्वीकारने का साहस नहीं है। मुझे एक महिला लेखक ने फोन करके कहा कि तुम्हे गुरिल्ला प्यार जैसी कहानी नहीं लिखना चाहिए था। मैंने पूछा-क्यों, क्या गलत है उसमें ? क्या समाज में ऐसा नहीं हो रहा है?उसने स्वीकारा..हो तो रहा है लेकिन क्या हमें सारा सच उगल देना चाहिए, सारे परदे हटा देना चाहिए। कुछ तो ढंके रहने दो।
मुझ पर इसी किस्म का दवाब बनाया जा रहा है।
३)आपकी कहानियाँ मूल रूप से स्त्री-मुक्ति के संघर्ष और वर्चस्ववादी पितृसत्ता के ख़िलाफ़ एक प्रतिरोध का मुखर स्वर हैं.वे एक प्रकार से समाज में स्त्री के दोयम दर्जे की स्थिति और उनकी तरफ से रूढ़ियों और वर्जनाओं को ललकारे जाने को बड़े फोंट्स में हाईलाईट करती हैं.समाज में जेंडर के तेजी से बदलते डायनामिक्स के बरक्स आज स्त्री अस्मिता का प्रश्न क्या मुख्यधारा का प्रश्न बन चुका है या यह अभी भी एक सीमित दायरे तक सिमटा हुआ है?
स्त्री की अस्मिता का प्रश्न सिर्फ स्त्री को बेचैन कर रहा है. पुरुष सत्ता को अलग तरह की बेचैनी होती है। दोनों की बेचैनियों का अंतर ही स्त्री अस्मिता की राह मे रोड़े अटकाता है। स्त्री की समस्याएं, स्त्री के सुख दुख, उसकी जरुरतें, कभी केंद्र में नहीं रहीं। हाशिए पर स्त्री रही तो उसकी अस्मिता के सवाल कहां से मुख्यधारा तक पहुचेंगे। आप राजनीति को देख लें। राजनीति में भागीदारी और मताधिकार के प्रयोग के वाबजूद आज स्त्री और उसकी पहचान कहां तक पहुंची। हमें ठहर कर, निर्ममता से इसका आकलन करना चाहिए। कितना भी हम पीठ थपथपा लें, वहां भी स्त्री केंद्र में नहीं है। क्या वजह है कि आजादी के इतने सालो बाद भी, इतनी सरकारे रहीं, कभी स्त्रियों को कैबिनेट में रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री, गुह मंत्री या विदेश मंत्री जैसा दर्जा नहीं दिया गया। उन्हें चुनौतीपूर्ण मंत्रालय नहीं दिए गए। क्यों। है किसी के पास इसका जवाब। यहां भी उन्हें महिला विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य, सूचना-प्रसारण जैसे कोमल समझे जाने वाले मंत्रालय थमा कर औपचारिकताएं पूरी कर ली जाती हैं।
 जहां स्त्री आज भी ठगे जाने के लिए तैयार की जा रही है, वहां मुख्यधारा की बात कौन करे। थोड़ा है, थोड़े में ही खुश है, पूरी जमात।
जहां तक मेरी कहानियों की बात है, मैने पत्रकारिता में भी इसी तरह के लेख लिखे और साहित्य में भी वैसी कहानियां लिखीं जिसमें स्त्री-वर्ग, एक वंचित समूह की कराहें सुनाई दे, उनकी बेचारगी और ललकार सुनाई दे। मैं खुद को इस वंचित वर्ग का प्रतिनिध मानती हूं।
४) आपकी कहानियाँ यौन स्वतंत्रता को स्त्री-मुक्ति के एक ज़रूरी आयाम के रूप में प्रस्तुत करती हैं.आपकी इस स्थापना से सहमत होते हुए भी मैं जानना चाहूँगा कि यौन स्वंत्रता एक ऐसा विषय है जिसे कतई सामान्यीकृत या सरलीकृत नहीं किया जा सकता. इस से जुड़े  शारीरिक और मानसिक प्रभावों की अनदेखी करते हुए इसे सिर्फ़ एक औजार के रूप में इस्तेमाल करने के अपने खतरे हैं. क्या आपको नहीं लगता की उन खतरों के बारे में भी कहानियों में बात की जानी चाहिए?
सबसे पहले तो यह कि कहानी में स्त्री को पात्र बनाना ही खतरा मोल लेना है. स्त्री का अपना स्वतन्त्र चरित्र भी है, यह बात किसी के गले से नहीं उतरती. चलिए, एक आज़ाद स्त्री की बात को छोडकर पारंपरिक स्त्री को कथा-पात्र बनाकर बात की जाए तो क्या उस पर प्रश्न नहीं उठेंगे कि उसे क्यों उसी वातावरण में रखा गया जिसमें वह सदियों से घुट रही है ? अब यदि उसे परम्परा से बाहर निकालना है तो निश्चित रूप से वह विद्रोही होगी लेकिन यह किसने कहा कि यौन स्वतंत्रता का मतलब सेक्स के पीछे पागल होना है ? यह किसने कहा कि यौन स्वतंत्रता का मतलब स्त्री के लिए पात्र-कुपात्र में फर्क न कर पाने को कोई महत्त्व नहीं देना है ? यह किसने कहा कि स्वतंत्रता का मतलब स्त्री के लिए बेलगाम और निम्फो हो जाना है ? यौन स्वतंत्रता का अर्थ अपनी इच्छा से अपने समय पर और अपनी पसंद के पुरुष के साथ दैहिक संपर्क से है, इस रिश्ते में किसी भी समाज और किसी भी स्तर की स्त्री जुड़ सकती है . ऐसा नहीं है कि मनपसंद शारीरिक सम्बन्ध कोई बड़ा अजूबा शब्द है. ऐसे रिश्ते बनते आये हैं और समाज इन पर नाक-भौंह सिकोड़ता और कत्ल तक करता रहा है. लेकिन ऐसे रिश्तों में एक बार का कत्ल होना बेमन के रिश्तों में रोज कत्ल होने से तो बेहतर है. बाकी रहा स्त्री की इज्जत और उसके तमाम खतरों का मामला तो, वह तो तबसे है जबसे दुनिया बनी है और तबतक रहेगा जबतक सामाजिक सोच नहीं बदलता.
५.)शोषण के चरम से  उत्पन्न होने वाला प्रतिरोध स्वभावतः प्रतिक्रियावादी होता है. लेकिन जैसा आपने एक रात ज़िन्दगीजैसी कुछ कहानियों में इशारा भी किया है कि समाधान कई बार विडम्बनापूर्ण हो सकते हैं. और स्त्री के मामले में तो ज्यादातर नुक्सान उसी को उठाना पड़ता है. यौन संसर्ग को ही लें तो गर्भ उसी को ठहरता है,गर्भपात का दंश वही झेलती है,पैदा होने वाला बच्चा उसी पर निर्भर होता है,उसकी शारीरिक बनावट भी पुरुष की तुलना में ज्यादा कोमल होती है.. कहने का आशय यह कि वह चाह कर भी पुरुष की तरह पल्ला नहीं झाड़ सकती.तो बगैर पर्याप्त सोच विचार के यौन स्वतंत्रता किसी सेल्फ गोलजैसा मामला तो नहीं है?
यौन स्वतंत्रता की बात आप बार बार कर रहे हैं। स्वतंत्रताशब्द गुलामी से उपजता है। इसका मतलब आप मानते हैं कि स्त्री को यौन-स्वतंत्रता नहीं मिली है आज तक, जो पुरुष सत्ता के पास सदियों से है. ये तो उसी तर्ज पर बात हुई न कि कृष्ण करे तो लीला, हम करे तो पाप। यहां मैं वरिष्ठ कहानीकार-संपादक अखिलेश जी का जवाब अपनी तरफ से देना चाहूंगी। उनसे पूछा गया कि आप अपनी कहानियों में जबरदस्ती यौन प्रसंग डाल देते हैं। उनका जवाब था-यह दक्षिणपंथी, आर्यसमाजी और ब्रहमचर्यवादी आरोप है। दुनिया में जितने भी स्त्री-पुरुष हैं, शायद सभी के जीवन में सेक्स कभी न कबी घटना या विचार के रुप में उपस्थित रहता है। यह शायद जिंदगी की स्वभाविक अभिव्यक्ति का नतीजा है। ऐसे आरोप लगाने वालो के दिल दिमाग की थाह लेनी चाहिए।
मुझे यौन स्वतंत्रता शब्द से बहुत समस्या है। गुलामों की भाषा में बात करना बंद करिए आप लोग। ये किसने तय किय़ा या सोचा कि यौनिकता के बारे में बात करने से पहले स्त्री ने सोचा या समझा नहीं। कितनी स्त्रियों से आप लोगो का संवाद होता है, नहीं मालूम लेकिन पत्रकारिता ने इतने दुर्लभ अवसर जरुर दिलाए कि हरेक वर्ग की स्त्रियों के दिलों को छू सकी, समझ सकी। कोई पुरुष दस जन्म में ऐसा अवसर नहीं पाएगा कि कोई स्त्री उसके सामने अपने मन को खोले। सतह से लौट आते है लोग। न पुरुष सत्ता में दम है न औकात। अपने ही दलदल में धंसे लोग क्या थाह लेंगे स्त्री के मन की गहराईयों की। जिस गर्भ की बात आप कर रहे हैं, अब नई स्त्री उसका लोड नहीं लेती। समाज में देखिए, नया चलन शुरु हो गया है। लड़कियों ने कोख से मना कर दिया। वे बच्चा पैदा नहीं करना चाहती। जब तक आप आप स्त्री को देह मानते रहेंगे, नुकसान की चिंता होती रहेगी। अनचाहे गर्भ का दंश झेलने के जमाने गए। कोख के नाम पर नैतिकता का आवरण बहुत चढा दिया। इस पर ठीक से आप लोग सोचिए कि हम क्या कह रहे हैं।
६)हर रचनाकार किसी आदर्श से प्रेरित होता है. वह हर पल अपनी रचनाओं के माध्यम से एक स्वप्न को जी रहा होता है.स्मृतियाँ,जीवनानुभव और कल्पनाएँ मिल कर उस स्वप्न का खाका बनाते हैं.एक कहानीकार के तौर पर आप अपने स्वप्न के बारे में हमें बताएं.
सौरभ शेखर 

.सपने तो सपने हैं आखिर…किसने इन्हें साकार किया है….ये गाने की लाइन याद आ रही है। पहले मुकम्म्ल कहानीकार बन जाऊं। बहुत संघर्षमय जिंदगी हो गई है यहां। इतना तो मुझे अपने मर्दसत्तात्मक मीडिया में भी नहीं झेलना पड़ा था जितना यहां झेलना पड़ रहा है। जिसके सपने पर पहरे लगे हो वो क्या सपने देखे। उठती है हर निगाह जहां तीर की तरह…। कैसे कहूं कि मैं प्रेमचंद बनना चाहती हूं, ओरहान पामुक या मार्केज बनना चाहती हूं। जिन लेखको से सबसे ज्यादा प्रभावित हूं, वो सब सिंगल पीस हैं, रहेंगे। सोचती जरुर हूं कि एक दिन पाठको की महबूब बन जाऊं। कहानियों के जरिए स्त्री मुक्ति आंदोलन को हवा देती चलूं और लोग मेरी मंशा को संदिग्ध निगाह से न देंखें। लोग यकीन करें कि मैं अराजक स्त्रियों के पक्ष में नहीं खड़ी हूं, एक स्त्री को अराजक बना देने वाले कारको के विरुध्द खड़ी हूं। समाज को अहसास करा रही हूं कि निगाहे चुराने से बात नहीं बनेगी। अदृश्य कार्नर को देखिए। खलील जिब्रान की बात याद करें कि जीवन सहज दिखाई देने वाली ऊपरी चीजो का नाम नहीं, बल्कि उनके पीछे छिपी हुई सच्चाई का नाम है।
७)आपकी कहानियों की भाषा की आलोचना हुई  है. मैं ऐसा समझता हूँ कि आपकी भाषाभी प्रतिरोध का ही एक रूपक और विस्तार है. मानो स्त्री द्वारा इस्तेमाल की जा सकने वाली भाषा की पुरुषवादी अवधारणाओं और मिथकों को आप खंडित करने पर आमादा हों. अपनी भाषा के चयन के बारे में क्या कहेंगी आप?
एक बात बताती हूं, शायद कुछ क्लीयर हो सके। मैं जब पहली बार दिल्ली आई तो एक तेजतरार्र महिला पत्रकार से मिली। छूटते ही उन्होंने किसी को धारा प्रवाह मर्दवादी भाषा में गाली देना शुरु किया और मेरे होश उड़ गए। मैं कस्बे से आई थी। वहां लड़की का गाली देना तो दूर, कान में पड़ने देने पर भी पाबंदी थी। मुझे पहला सांस्कृतिक धक्का लगा। बहुत अभ्यास करके भी मेरे मुंह से वो गालियां नहीं निकल सकीं। लेकिन उस दुनिया में रहकर जाना कि प्रतिरोध जताने के लिए गालियों से तात्कालिक, बढिया और सरल उपाय कोई नहीं। ये हम दोनों गालियां बकती थी, पर गालियों में भी अंतर रहा। हमारे अपने अपने माहौल का असर था जो हमारी बोलचाल में, भाषा में दिखाई देता रहा। इसी तरह कहानी में आने वाले पात्रों को देखिए, वे किस माहौल से आते हैं, उनका संस्कार क्या है या उनकी परिस्थितियां कैसी हैं। उनका गुस्सा कैसा है और उनके दुख कितने महान हैं। अब आप उम्मीद करें कि कीचड़ में गिरे इनसान के मुंह से फूल झरे तो ये नाइंसाफी है। औरतों की छाती में जो दुख कलपता है तो वो व्यक्त करते समय भाषा का ध्यान नहीं रख पाती। क्या करें। हमलावर भाषा का अपना तेवर होता है। मेरी कहानियों की भाषा सीधी वार करती है। सीधा हमला तो मारक होता ही है। छिप कर वार करने की कला अभी सीखी नहीं है। सीख रही हूं। मैं कलावादी भी नहीं हूं कि कला के आवरण में सारे पाप-पुण्य छिपा जाऊं। मुझे लगता है, ये सब सीखने की जरुरत है। मैं जिस प्रयोगशाला में बनी और पकी हूं, वहां के पाठ में कोई कमी रह गई होगी। मुझे भाषा पर मुलम्मा चढाना नहीं आया इसीलिए जो बोलचाल की भाषा थी, उसका इस्तेमाल किया। मेरी कहानियों की भाषा को आप उस निगाह से क्यों नहीं देखना चाहते जिस निगाह से आप समानांतर सिनेमा को देखते हैं। वहां की भाषा कैसी है। जिंदगी से निकली हुई लगती है या चाक पर गढी हुई। जिंदगी को समझने के लिए उसकी भाषा में उतरना जरुरी लगा मुझे। शुद्दतावादियों को चुभ रहा है तो मैं आगे से ध्यान रखूंगी कि भाषा में कृत्रिम कलावाद का निर्वाह कर सकूं।
८) दो लफ़्ज़ों की एक कहानीके डेविड को छोड़ दें तो आपकी कहानियों में संवेदनशील,भावुक और स्नेहिल पुरुष पात्र लगभग न के बराबर हैं. स्त्रियों के प्रति पुरुष समाज चाहे जितना निर्मम रहा हो, आपको नहीं लगता कि ये तस्वीर एकांगी
 
      

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