बिहार में संपन्न हुए अखिल भारतीय कहा समारोह पर यह टिप्पणी पटना के युवा साहित्य प्रेमी, समीक्षक सुशील कुमार भारद्वाज ने लिखी है. ईमानदारी से अपने अनुभवों को बयान किया है- मॉडरेटर
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बिहार में साहित्य के प्रति लोगों में गजब का जूनून देखने को मिलता है| इसका ताजा उदाहरण है भूकंप के झटकों के बीच पटना के तारामंडल में 25-27 अप्रैल 2015 को निर्बाध रूप से संपन्न हुआ अखिल भारतीय हिंदी कथा समारोह| यूँ तो साहित्य के नज़र से छह महीने में पटना में संपन्न हुआ यह तीसरा आयोजन था| पहले लघुकथा सम्मलेन पटना के यूथ हॉस्टल में लघुकथा मंच के तरफ से आयोजित किया गया था| जबकि पटना कॉलेज में कविता पाठ का आयोजन साहित्य अकादमी द्वारा किया गया|
लेकिन जब से साहित्य और कला के लिए पुरस्कारों की घोषणा हुई है तब से एक अजीब तरीके का आरोप –प्रत्यारोप का दौर बिहार में शुरू हो गया है| आरोपों का यह दौर खत्म होता उससे पहले ही कथा समारोह ने नयी आग पकड़ ली है| खुशी उन लोगों को मिली जिनको इसमें शामिल होने का मौका मिला| और जिनको शामिल होने का मौका नहीं मिला वे तरह तरह की बात कर रहें हैं| हालाँकि पारदर्शिता की बात करना कोई गलत नहीं है|
कुछ लोग दबी जुबान कहने लगे हैं – सैंया भये कोतवाल अब डर काहे का| कभी फणीश्वरनाथ रेणु के इर्द – गिर्द चक्कर काटने वाले आज बिहार में साहित्य को नई दिशा दे रहे हैं| रेणु के नाम पर राज करने वाले अब उनके बेटों तक से ठीक से बात करने का समय नहीं देते हैं| सरकार ने फंड दे दिया है जो करना है करते रहो| चाहो तो दोस्तों को खुश करने के लिए पुरस्कार दे दों चाहे जी करें तो अपनी बीबी, बेटी और पति को मंच पर बुला लो| कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहें हैं कि इसके आयोजन का उद्देश्य ही आयोजको का अपनी पत्नी और बेटी को आगे बढ़ाना था| एक तरफ कनुप्रिया को दूबधान के लिए बुलाने को अपनी गलती मान रहें हैं| तो एक तरफ आयोजक मंडल के एक सदस्य द्वारा अपनी पत्नी को पुरस्कार दिलाने की अंदरूनी कोशिश जारी है|
खैर भूकंप के झटकों के बीच यदि कुछ लोग आये थे तो उसके कुछ वजह थे| मेरे जैसे काफी लोग रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया और गोविन्द मिश्र जैसे कथाकारों को करीब से देखने और सुनने गए थे| कुछ लोग अपने प्रिय कथाकार को जीवंत कथा वाचन करते देखने के लोभ को नियंत्रित नहीं कर पा रहे थे| जबकि भीड़ के कुछ हिस्से वैसे लोगों के थे जो ऐतिहासिक पल को अपने परिजनों के साथ खास बनाना चाहते थे|
खैर हाल के अंदर एक नज़र देखें तो काफी कुछ देखने को मिलता है| बेहतरीन कथाओं में मशगूल लोग बाहरी दुनिया से काटकर सिर्फ वातावरण में खोये थे| लेकिन लोगों का जायका तब बदल गया जब मुंबई से आये सत्यदेव त्रिपाठी अपना समीक्षात्मक भाषण दे रहे थे तो आयोजको के तरफ से उन्हें समय की याद दिलाई गई| त्रिपाठी जी बोल पड़े – “यदि इतना खर्च करके हमें इतने दूर से बुलायें हैं तो थोडा बोलने का मौका दीजिए|” अब आयोजक वाकई में समय को लेकर सचेत थे या रवीन्द्र कालिया के “गोरैया” पर उनके टिप्पणी –“कथाकार गोरैया पर हावी हो गया है” से कह नहीं सकता क्योंकि कई समीक्षक अपने बिंदु से काफी दूर चले गए तब भी किसी ने नहीं रोका| और समय की पाबन्दी की बात तो बेमानी है|
उस समय त्रिपाठी जी जरुर मन मसोस कर रह गए होंगें जब दूसरे लोगों को खूब बोलने का मौका दिया गया| हद तो तब होने लगी जब इंदु मौआर का कहानी पाठ “अपना देश” चल रहा था| लोग ऊब इस कदर गए थे कि बार बार बाहर जाने की जुगत में थे| कहानी अच्छी थी- बुरी थी ये तो बाद की बात है कहानी पाठ करने भी आना चाहिए – न कॉमा न पूर्ण विराम और न बलाघात| शायद साथ में आये परिजन भी थक गए थे तभी तो वे बार बार इधर उधर देख रहे थे|लेकिन कोई टोकने वाला नहीं था जबकि पद्माशा झा को शुरू में ही समय का ध्यान करा दिया था| लेकिन पद्माशा झा जब प्रो. राम वचन राय के सुझाव पर रोमांटिक अंदाज़ में कथा पाठ करने लगी तो तीसरे सत्र का समय हो जाने के बाबजूद दूसरा सत्र समाप्त नही हुआ|
अखिलेश जी कहने लगे भाई मैं समीक्षक नहीं हूँ| तो पीछे से आवाज आयी –“ये लो जी, तो फिर समीक्षक बन कर आने के पीछे की मज़बूरी क्या थी? सही मायने में जयश्री रॉय, अवधेश प्रीत, मिथिलेश्वर आदि की कहानियों ने कुछ हद तक प्रभावित किया| कुछ औसत दर्जे के थे तो कुछ पुरानी ही लकीर को पिटने में लगे थे | संवाद के मामले में बलराम जी का कोई सानी नहीं था| कोई कह रहे थे – “रचना समाज में समरसता बढ़ाने वाली हो”| भाई जेहन में सवाल उठता है कि “फिर कहानी लिखने से बेहतर उपदेशक क्यों न बन जाये?” क्या यह रचनाधर्म के साथ बेमानी नहीं होगी? साहित्य तो समाज का आईना होता है|
खैर अच्छाई और बुराई साथ साथ चलेंगें ही| लेकिन आयोजन सफल रहा| अंत तक लोग जमे रहे| भूकंप के समय भले भगदड़ की स्थिति हो गयी परन्तु समारोह में कुछ ऐसा जादुई करिश्मा था जिसने अंत तक सभी को बाँधे रखा| और शायद इसका हिस्सा बन हर इंसान खुश था जो सबसे अच्छी बात थी|
किसी ने चुटकी लेते हुए कहा कि भूकंप के झटकों के बाद के इस आयोजन को पहला भूकम्पोत्तर आयोजन के रूप में याद किया जायेगा|