दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगरों में कला संस्कृति का कारोबार बढ़ता जा रहा है लेकिन कलाकारों-संस्कृतिकर्मियों की अड्डेबाजी की जगहें कम होती जा रही हैं. मुंबई में ऐसा ही एक ठिकाना था समोवार कैफे, जिसके बंद होने पर बड़ा ही मार्मिक लेख लिखा है लेखक ओमा शर्मा ने. अब कितने लेखक कलाकार रह गए हैं जो ऐसी जगहों को इतने दिल से याद करते हैं- मॉडरेटर.
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मुम्बई की मशहूर जहांगीर आर्ट गैलरी के अन्दर बने समोवार कैफे का गत पहली अप्रैल से बन्द हो जाना एक बड़ा सांस्कृतिक आघात है। कारोबारों के रोज शुरू–बन्द होने के युग में एक रेस्त्रां का बन्द हो जाना हमारी चिन्ताओं के दायरे से परे ही होना चाहिए था मगर समोवार कैफे, जो पिछले पचास बरसों से निरन्तर चल रहा था, कोई सामान्य कैफे नहीं था: वह हमारे आधुनिक कला परिदृश्य और इतिहास का बेहद जीवन्त और जनतांत्रिक गवाह था। अलबत्ता मुद्दा एक रेस्त्रां/कैफे के बन्द हो जाने से ज्यादा हमारे जीवन से उस जरूरी मानवीय स्पेस और फुर्सत के संकुचन का है जिसे गपशप करना कह दिया जाता है… आपसी संवाद और सम्प्रेषण को नाना प्रकार से बेहतर (यानी तीव्रतर) करने की हर तकनीकी तरक्की के बीचों–बीच जो विलुप्त प्राय: होती जा रही है।
यह पूछा जा सकता है कि मुम्बई जैसे महानगर के किसी खास रेस्त्रां के सन्दर्भ में ये सवाल किया ही क्यों जा रहा है? आखिर महानगर के बड़े होटलों की लॅाबियों और क्लबों में कितना तो जमघट रहता है, कितनी सारी तो गपशप होती दिखती है? या फिर गपशप वृत्ति, जो एक अर्थ में फितरतन फिजूल क्रिया है, को क्यों इतनी तवज्जों दी जाए? यहाँ यह रेखांकित करना असंगत नहीं होगा कि सितारा होटलों में की जाने वाली मेल–मुलाकातें ज्यादातर कारोबारी मंतव्यों, डील्स और नैटवर्किंग, को रूपायित करती होती हैं। वे कोट–टाई से लैस कॅारपोरेटी बाशिन्दों को सूट करती हैं क्योंकि एक प्याली चाय के लिए डेढ़ सौ–दो सौ रूपए का दाम (चपत) उन्हें इसलिए भी नहीं अखरता क्योंकि अधिकांशत: वह कम्पनी के कार्यालीन खर्चों के मद में जा समाता है। ये स्थल कला–संस्कृति के नागरिकों की सहजता और पात्रता से परे हो जाते हैं। जहाँ तक क्लबों की बात है तो वहाँ तो प्रवेश ही सदस्यों का हो सकता है और सदस्यता पाने के लिए कई लाख रूपए चाहिए होते हैं। रही बात हमारे समकाल में गपशप की जरूरत की तो उस पर चर्चा थोड़ी देर में। फिलहाल समोवार।
दक्षिणी मुम्बई का ‘फोर्ट/ काला घोडा़’ क्षेत्र तमाम देशी–विदेशी सैलानियों के आकर्षण का केन्द्र है। वीटी स्टेशन, जीपीओ, रिजर्व बैंक, पुराना कस्टम हाऊस, हार्निमन सर्कल, एशियाटिक लाइब्रेरी, हाई कोर्ट, रमाबाई टावर और पुलिस मुख्यालय समेत एक किलोमीटर की त्रिज्या के भीतर यहाँ विन्टेज यानी वास्तविक बम्बई का लगभग सब कुछ आ जाता है। कोई ताज्जुब नहीं कि सवा सौ साल पहले भारत आए मार्क ट्वेन के यात्रा संस्मरणों में इसका जिक्र है जो उन्होंने आज जर्जर दिखती वाट्सन होटल की इमारत के भीतर बैठकर लिखे थे। बम्बई के भव्य अतीत में दर्ज इस इलाके की एक-एक इमारत पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है। साथ ही यह इलाका मुंबई की वित्तीय धड़कन भी है क्योंकि सभी देशी-परदेशी बैंकों और वित्तीय संस्थानों के मुख्यालयों के अलावा यहीं टाटा का ‘बॉम्बे हाऊस’ और बॉम्बे स्टॅाक एक्सचेंज भी है जहाँ से पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था और उसके अधीर नियामक अपने दत्तक पुत्रों समेत ऊपर-नीचे होते रहते हैं। मुंबई को अभिन्न पहचान देते, गेटवे ऑफ इंडिया और ताजमहल होटल के निकट होने के कारण यह मुंबई का ऐसा सान्द्र स्वरूप हो जाता है जिसके बगैर मुंबई की कल्पना नामुमकिन है। इस जनपद के वैभव को जहाँगीर आर्ट गैलरी अपनी तरह से चार-चाँद लगा देती है।
इसी के बरक्स कहना होगा कि ‘जहाँगीर’ के अन्दर बना समोवार कैफे उसी ‘जहांगीराना’ गरिमा और शालीनता से एक खास कलागत जरूरत पूरी करता था। ‘जहाँगीर’ की स्थापना सन 1952 में हुई थी जिसमें कलाप्रेमी वैज्ञानिक होमी भाभा की अहम भूमिका थी। ‘जहाँगीर’ के प्रमुख हॉल के तब तीन हिस्से नहीं किए गए थी क्योंकि होने वाली चित्र–प्रदर्शनियों की संख्या ज्यादा नहीं होती थी। इसी कारण तलमाले के लम्बे, गलीनुमा हिस्से को किराए पर उठा दिया गया। ऊषा खन्ना नाम की उस महिला (जो आज सत्तासी वर्ष की है) को लगा कि बम्बई में जहीनी गपशप करने के ठौर–ठकाने बड़े नापैद हैं तो क्यों न इस कैफे को ऐसी शक्ल दी जाए जो कला–संस्कृति के हर बाशिन्दे की पहुँच और आकर्षण को उठा सके। बम्बई अलबत्ता हमेशा से खुले मिज़ाज का प्रयोगशील शहर रहा है। महानगरीय संस्कृति सिर्फ अपार आबादी या बेतरतीब भौगोलिक विस्तार को समेटती संज्ञा का नाम नहीं है वह खान–पान, रहन–सहन, पहनावे–ओढ़ावे और मानसिकता में हर मुमकिन के सहज स्वीकार्य की ऐसी सैद्धांतिकी है जिसमें सही–गलत और नैतिक–अनैतिक का कोई पैमाना अड़चन नहीं पेश करता है। महानगरीय संस्कृति जीवन की जटिलताओं का जखीरा होती है, तमाम तरह की अवांछनीयताओं से अटी रहती है लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि अराजकता का आभास देती यह संस्कृति सभ्यतागत क्रमिक विकास का अपरिहार्य पायदान है। जैसे किसी व्यक्ति के जूते, घर का स्नानगार और अजनबी के साथ का सलूक अयाचित ही उसकी हैसियत, फितरत और चरित्र की चुगली कर जाते हैं, वैसे ही हमारे रेस्त्रां, कैफे हमारे महानगरीय विकास की। यूरोप, खासकर पैरिस–वियना की कैफे संस्कृति वहाँ के सामाजिक इतिहास की धरोहर सरीखी होने के कारण शहर के पर्यटन नक्शे तक में समादृत है। वियना के ‘कैफे सैन्ट्रल’ या‘कैफे बिथोवन’ तो वहाँ के लेखक कलाकारों के घरों की आत्मीयता सहेजते रहे हैं। वहाँ खाने–पीने या वक्त गुजारने पर कोई पहरा कार्यरत नहीं होता। मेहमान जितनी देर चाहे वहाँ बिराज सकते हैं। वहाँ के मालिकों को ही नहीं, सेवादारों को फक्र होता था कि उनके यहां रिल्के, रसल, रोलां या मतीस जैसों की आमदोरफ्त होती है।
गयी सदी के सातवें दशक में ऊषा खन्ना ने जब ‘समोवार’ शुरू किया था तो गालिबन ऐसे ही अनुभवों की छाया पार्श्व में कार्यरत रही हो लेकिन उन्होंने कल्पना भी नहीं होगी कि यह जगह फिल्म, थिएटर, पत्रकारिता और अन्यान्य कलाओं के छोटे–बड़े सबको, फुर्सत के लम्हों को कला और जीवन से जुड़े मसलों में भिगोने के लिए इस कदर रिझाएगी कि वे अपनी हैसियत, शोहरत और यहां तक कि मर्यादा को ताक पर रखकर कीमा–समोसा, मिर्ची–पकोड़े, बीयर या पुदीना चाय की एवज ऐसे तल्ख मुबाहिसे सृजित करने जुट पड़ेंगे कि थोड़ी देर पहले दीर्घा के भीतर चक्कर लगाकर देखे किसी नामालूम या नामचीन कलाकार की बनाई आधुनिक, अमूर्त, यथार्थवादी, प्रयोगशील, अभिव्यंजनात्मक या सरासर सपाट चित्रकारी की बारीकियों और वाहियातपने का प्रभाव तक दफा हो जाए। सन2003 के बाद से जब मैं वहां यदा–कदा आने लगा तब तक हालाँकि ‘समोवार’ का पूर्व का वह जलवा नहीं रह गया था मगर उसकी महक महफूज़ थी। अलबत्ता कला और सलीके का एक गरिमामय वातावरण तो फिर भी महसूस किया जा सकता था। यहां की बेहद साधारण बेंत की कुर्सियां, अपनी पूरक मेजों से ऐसे और आपस में सटकर लगी होतीं कि प्रवेश–निकास के लिए बड़ा एहतियात बरतना पड़ता। मजेदार बात ये थी कि इतने करीब बैठे बहसखोरों को फिर भी किसी कनसुनई का अंदेशा नहीं सालता। हर मेज के शीशे के नीचे या दीवार पर किसी हुसेन, रजा या दिलीप चित्रे की घसीट का वहीं बनाया पुर्जा जड़ा दिखता जो उस गहमा–गहमी के दरम्यान भी आपको सृजन और सौन्दर्य के किसी मार्मिक अन्त:प्रदेश की सैर कराने की टेर छेड़ देता। जगह के लिहाज से प्रेम की हमेशा अतिशय मांग उड़ेलते इस महानगर के इस निरापद गलियारे में कभी नव–युगल भी पींगें लड़ाने आ धमकते मगर उस पिघलते आवेग और अतीन्द्रियता की खुमारी में बौद्धिकता और बहसबाजों की थपेडें किसे सुहातीं… सो वे जल्द वहां से कूच कर जाते… बशर्ते मूसलाधार बारिश की पनाह उन्हें मजबूर न करती हो क्योंकि पा्रदर्शी दीवार से रिसकर आए नजारे के साथ तब ‘समोवार’ के गर्म पकोड़ों और रूमानी माहौल का स्वाद आसमान छू जाता। चित्रकार मित्र प्रभु जोशी की एक प्रदर्शनी के समय उन्होंने जब यह ‘डिश’ ऑर्डर की और एक दीगर मिर्ची पकोड़े को प्रीतीश नन्दी ने लपककर उदरस्त कर डाला तो हमने बगांली स्वभाव की गर्ममिजाजी का रहस्य हस्तगत करते हुए ममता बनर्जी समेत उसकी कई पीढ़ियों को माफी दे डाली। वहीं बैठे कवि विजय कुमार ने बीते दिनों की शान में खुद का देखा एक वाकया सांझा किया तो हमें ‘बच्चन’ की ‘रहे न अब वो पीने वाले, अब न रही वो मधुशाला’, लाइनें कचोट गयीं।
वह आठवां दशक था जब फिल्म, थिएटर, वैचारिकी और संवाद का हर पहलू मस्तियाँ भर रहा था। थिएटर निदेशक हरिआत्मा (किसी को याद है?) और सत्यदेव दूबे के बीच रंगमंच की किसी बात पर ऐसी गर्मा–गर्मी हुई कि दोनों मार–पीट पर उतर आए। दोनों ने अपने पुट्ठों के नीचे से बेंत की कुर्सियां एक–दूसरे का सिर–फोड़ने को तान लीं। हालाँकि यह समोवार की बिन्दास वृत्ति के मुताबिक नहीं था मगर फिर भी बात बिगड़ती देख किसी ने उन्हें सम्भाला और मामले को ठन्डा किया। तो क्या बात खत्म? जी नहीं, दोनों फिर उन्हीं कुर्सियों पर पुट्ठारत होकर उन्हीं जरूरी छूटे मुद्दों— और पुदीना चाय के पॉट की नई खेप के साथ— फिर बहस गए…गो कुछ हुआ ही न हो!
कला की दुनिया और उससे जुड़े किस्सों में अतिशयोक्तियां न हों यह नामुमकिन है मगर जो चीज उन्हें खास और दिलकश बनाती है वह है उनका मूलत: उदारवादी और गैर–निश्चयात्मक कलेवर। अपने सृजन में कोई लेखक / कवि/ चित्रकार, अनुभव और कल्पना की जो भी कीमियागरी ईजाद कर ले, वस्तुत: वह उस यथार्थ और सत्य के किसी पक्ष की अपने जानी आजमाइश कर रहा होता है। अपनी सोच और आचरण में वह कितना भी अडिग और निष्ठावान हो, वह किसी अन्य से श्रेष्ठ होने का दावेदार नही हो सकता है। ‘समोवार’ जैसे गपशप और तर्क–कुतर्क करने के ठिकाने हमें सृजन के बुनियादी तौर पर उस एकांगी और उमस भर प्रदेश से निकालकर अपने से परे पसरने या कुछ देर उससे मोहलत मुहैया कराने का जरिया प्रदान करते हैं ताकि लेखक–कलाकार अपने चयनित प्रदेश में नए नजरिए से न भी सही, नयी ऊर्जा से वापस लौट सकें। सृजनात्मक जीवन में गपशप की अहमियत वैसी ही और उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी किसी कमरे में खिड़की या घर के भीतर बने बाथरूम की। रोम के आदि कवि ओविड ने कहा है कि हमारी फुर्सत हमारी असलियत की गुत्थी होती है। जंगलों के साथ हमारे महानगरीय जीवन से फुर्सत और गपशप के ठिकानों का क्रमश: सिकुड़ता दायरा हमारे सृजन और स्वास्थ्य, दोनों के लिए बुरी खबर है चाहे इसके जो भी कारण हों।
‘समोवार’ एक रूसी शब्द है जिसका तात्पर्य चाय या गर्म पानी रखने के बर्तन से है। मुम्बई के ‘समोवार’ ने आधी सदी तक कला की दुनिया के नागरिकों को अपने नामानुसार फुर्सत को जीने का स्पेस और सुकून मुहैया कराया। आठवें दशक के बाद जब हर प्रतिभाशाली नौकरशाह, फुर्सत–अघाई गृहणी और अधकचरे बौद्धिक को अपने अन्तस्थ आलोड़न के प्रकटीकरण का रास्ता नजर आ गया तो बाजार में केनवास कम पड़ गए। रंग–संयोजन, संकल्पना, अर्थछटा और हर विधागत अनुशासन से स्वतन्त्रता प्राप्त इन नव–चित्रकारों को प्रतिभा–प्रदर्शन के लिए जगह भी कम पड़ने लगी। बाजार की इस मांग की आड़ में ‘जहांगीर’ के मालिकों की नजर में ‘समोवार’ चुभने लगा जो न खुद कारोबार कर रहा था और बॉम्बे भाड़ा कानून के चलते न बहुत भाड़ा देता था। एक लम्बी कानूनी लड़ाई हुई जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने आपसी सुलह के जरिए निपटाने की ताकीद की। कोई पूछ सकता है कि सात सौ वर्ग फुट का एक गलियारा कितनी प्रतिभाओं को प्रोत्साहित कर सकता है जबकि उसी चारदीवारी के भीतर बड़ी–छोटी पाँच दीर्घाएं पहले से कार्यरत है? या जब‘काला घोड़ा’ के पते से जानी जाने वाली, ‘जहांगीर’ के अलावा पाँच और दीर्घाएं मौजूद हैं तो गपशप के उस ठिकाने को उजाड़ने का क्या औचित्य! या कम से कम उसे बन्द करने का तो बहाना इतना शिखंडी तो नहीं होना था!
एक अप्रैल 2015 से जब ‘समोवार’ का बंद होना तय हो गया तो ऊषा खन्ना और उसकी बेटियों ने मिलकर इस संस्था के अस्त होने को यादगार करना तय किया| अन्तिम शाम महानगर के कई बड़े कलाकारों और नामचीनों ने शिरकत की। उसकी संस्कृति, परोसी जाने वाली सामग्री, इसके सेवादार और गलियारे के बीच गुमनाम भटकती अन्तहीन बहसों पर शोकगीत सा हुआ। शहर के चन्द हलकों में यह एक बड़ी और यादगार दुर्घटना थी क्योंकि अगले रोज से आपको ‘जहांगीर’ के प्रमुख हॉल से आदतन दाएं निकलकर एक ‘मिण्ट टी’ को हाजिर–नाजिर करके गपशप के चन्द लम्हे हड़कने की मौहलत नहीं मिलने वाली थी। आखिरी बार दौर–ए–बीयर और दौर–ए–पकौड़े हुए। अन्त में अयोजकों ने बेंत की उस हर मामूली कुर्सी पर हुसेन, रजा, सबावाला, अमोल पालेकर, अमिताभ बच्चन, शबाना आजमी, कुमार साहनी, बेहरूम कॉन्ट्रेक्टर, निसिम इजेकिल, दिलीप चित्रे जैसे पूर्व मेहमानों की यादगारी पट्टी पहना दी। यकीनन कुर्सियां कम पड़ गयी थीं। उस शाम मैं मुम्बई से बाहर था वर्ना ऐसे मौकों को जज्ब करने के लिए किसी निमंत्रण का मोहताज नहीं। लेकिन उसके बाद जब ‘जहांगीर’ जाना हुआ तब प्रमुख दीर्घा में जाना स्थगित कर उस दु:स्वप्न के झूठ होने की निरर्थक कामना के साथ सीधा उस गलियारे की तरफ बढ़ा जो कभी अदब से फुर्सत जीने और हँसी-ठिठोली करने की जन्नत हुआ करता था| और आइन्दा जो हो भी नहीं सकेगा।
पता नहीं क्यों इधर दु:स्वप्न झूठे नहीं हो रहे हैं।
संपर्क-omasharma40@gmail.com
जहाँगीर आर्ट गैलेरी से जुड़ाव समोवर के बिना अधूरा लगता है. ओमा भाइ ने जैसे दुखती रगों को छेड़ दिया. और मैं समझता था ग़मज़दा अकेला मैं ही हूँ !
सचमुच बड़ा ही मार्मिक लेख लिखा है भाई ओमा शर्मा ने. समोवार का प्रयो्ग कश्मीर में बहुतायत होता है
Pakauda or pudina chay ki lazatt liye sarthak or mohak aalekh…..sadhuvad aapko .