इस साल मेरे समकालीनों, वरिष्ठों के कई कथा-संकलन आये लेकिन जो संग्रह मेरे दिल के सबसे करीब है वह प्रियदर्शन का ‘बारिश, धुआँ और दोस्त‘. प्रियदर्शन की कहानियों में समकालीन जीवन की जद्दोजहद जितनी विविधता के साथ आती है वह किसी और लेखक में कम ही दिखाई देती है. हैरानी होती है कि उनकी कहानियों को लेकर हिंदी में चर्चा क्यों नहीं होती? मुझे लगता है यह आलोचना का संकट है. बहरहाल, मैं इस संग्रह पर बाद में अपने विचार रखूँगा, आज विनीता की यह समीक्षा- प्रभात रंजन
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‘बारिश, धुआं और दोस्त’ प्रियदर्शन की कहानियों का दूसरा संग्रह है। इससे पहले ‘उसके हिस्से का जादू्’ के जरिये वह अपनी किस्सागोई का जादू बिखेर चुके हैं। संग्रह पढऩे के बाद में विचारों का मंथन चलता रहा और उसके बारे में कुछ लिखने की इच्छा हुई। हालांकि,प्रतिक्रिया व्यक्त करने में काफी देर हो चुकी है, फिर भी…। प्रियदर्शन की कहानियों में हमारे आसपास की ज़िंदगी, उससे जुड़ी छोटी-छोटी ख़ुशियां, अनगिनत परेशानियां और कई अधूरे सपने हैं। इन सबके बीच उनकी कहानियों के पात्र इतने जीवंत हैं कि उनके साथ हम भी उनका सुख-दुख जीने लगते हैं। चाहे ‘इस शहर में मनोहर’ का मनोहर हो या ‘थप्पड़’ के रामचरन जी। अपने आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ते हुए दोनों बार-बार आहत होते हैं। हमारे आसपास मौज़ूद ऐसे ही गुमनाम लोगों की खामोशी के पीछे छिपे छिपी कहानियों को प्रियदर्शन बड़ी ख़ूबसूरती से सामने लाते हैं।
गंगा जी घर चले पढ़कर ऐसा लगता है कि हमारे आसपास भी गंगाजी की तरह कई ऐसे लोग मौजूद होते हैं, जो आम होकर भी बहुत खास होते हैं, पर हम उन्हें पहचान नहीं पाते। साहित्य सृजन के दौरान जब भी प्रियदर्शन के भीतर का पत्रकार सक्रिय होता है, तभी गंगा जी घर चले जैसी उम्दा कहानियां सामने आती हैं। टीवी पत्रकारिता से लंबे अरसे से जुड़े होने की वजह से उनके अनुभवों का विस्तृत संसार उनकी कहानियों में बहुत सहजता से नजर आता है। ब्रेकिंग न्यूज के नायक विशाल से जब उसका बॉस पूछता है कि ‘कहां मर गए थे? फोन क्यों नहीं उठा रहे थे।‘ तो विशाल का जवाब होता है, ‘मर नहीं गए थे, पर मर सकते थे।‘ यहीं कहानी खत्म हो जाती है। कहानी यह अंतिम वाक्य हमें उन स्थितियों के बारे में सोचने को मजबूर कर देता है, जिनके बीच टीवी पत्रकार काम कर रहे होते हैं।
‘उठते क्यों नहीं कासिम भाई’ में हमारे मुसलमान दोस्ता सें के उस दर्द का बड़ा ही जीवंत चित्रण किया गया है, जिसमें उन पर ख़ुद को देशभक्त साबित करने का कितना ज़बरदस्त दबाव होता है। इसी तरह थप्पड़ का नायक एक हाउसिंग सोसायटी का दरबान है और सोसायटी में हुई चोरी का इल्जाम उसके सिर पर मढ़ कर उसे न केवल नौकरी से निकाला जाता है, बल्कि पूछताछ के बहाने उसे कुछ दिनों तक पुलिस हिरासत में भी कैद करके रखा जाता है। ‘क्या रामचरन जी खुद को बचा पाएंगे या ऐसे ही बेइज्जती के थप्पड़ खाते कटेगी उम्र?’कहानी के अंत में उठाया गया यह सवाल, समाज के उस वर्ग के गाल पर करारा थप्पड़ है, जो ख़ुद को सभ्य और शिक्षित समझता है, पर बेकसूर गरीब इंसान का शोषण करने वाली सामंती मानसिकता आज भी उबर नहीं पाया है। कहानी ‘बाएँ हाथ का खेल’ मानवीय संवेदना के ऐसे पहलू को छूती है, जिसकी ओर किसी का ध्यान भी नहीं जाता। झुग्गी अतिक्रमण हटाओ अभियान के दौरान ड्यूटी पर तैनात सिपाही शिवपाल यादव का बीमार बच्चे को पंखा झलना और यह सोचना कि ‘साला कोई टीवी वाला देख न ले, बच्चा बचाएं या कानून?’यह कहानी एक ऐसे वाक्य पर खतम होती है, जिसके बाद हम बहुत कुछ सोचते रहते हैं।
किसी भी लेखक की कामयाबी की यही तो पहचान है कि उसकी लिखी हुई बातों में कुछ ऐसा हो जो पाठकों के दिलोदिमाग में हमेशा के लिए अंकित हो जाए। प्रियदर्शन को इस कला में महारत हासिल है। यदि समग्रता में देखा जाए तो इस पूरे संकलन में मुश्किलों से भरे जीवन का खुरदरापन जितना जीवंत है, कोमल भावनाओं का विश्लेषण भी उतना ही सुंदर है। ‘इस शहर में मनोहर’ और ‘थप्पड़’ जैसी कहानियों की भाषा शैली विषय वस्तु के अनुकूल खुरदरी और नुकीली है। वहीं ‘बारिश, धुआं और दोस्त’ जैसी भावना प्रधान कहानी पढ़ते हुए कई बार ऐसा लगता है, जैसे हम कोई खूबसूरत कविता पढ़ रहे हों। ‘एक सरल रेखा की यात्रा’ बड़ी ही प्यारी और मासूम सी कहानी है, जो शायद उम्र के उसी दौर में लिखी गई है, जब हमारी सोच बेहद मासूमियत भरी होती है। इसकी यही खूबी इसे संग्रह की अन्य कहानियों बिलकुल अलग और खास बना देती है। चाहे ‘सुधा का फोन’ हो या ‘शेफाली चली गई’ दोनों कहानियां दिल को छू जाती हैं। इन कहानियों में स्त्री मनोविज्ञान का बड़ा ही बारीक विश्लेषण नजर आता है। सबसे अच्छी बात यह है कि इन दोनों कहानियों में स्त्रियों के प्रति लेखकीय संवेदनशीलता साफ तौर पर नज़र आती है। ‘सुधा का फोन’ की नायिका बैंक में अफसर है। अपने पति और बच्चों के साथ ख़ुशहाल जिंदगी जी रही है, फिर भी उसके मन में अपना स्वतंत्र अस्तित्व तलाशने की तड़प बरकरार है। ‘पहली बार ऐसा दोस्त बनाया था, जो सिर्फ मेरा था, पहली बार उस दोस्त को वह नहीं कहा, जो विश्वास चाहते थे, शादी के 20वर्षों बाद मैं उस पकड़ से आज़ाद हुई, मेरी यह आज़ादी शायद उन्हें खल रही है।‘ सुधा के बहाने लेखक ने कई ऐसी सुधाओं का दर्द उजागर कर दिया है, जो हमारे समाज के हर तीसरे मकान में अपने परिवार के साथ ‘खुश’ होते हुए भी घुट-घुटकर जी रही हैं।
जहां तक किताब की खामियों का सवाल है तो मैं आम पाठक हूं, कोई समीक्षक नहीं, शायद इसलिए मुझे कोई खामी नजर नहीं आई । हां, कहानियों के चयन के मामले में थोड़ी और सख्ती बरती जा सकती थी। किसी लेखक को अपने बच्चों की तरह सभी रचनाएं समान रूप से प्रिय होती हैं, पर पाठक के सामने उन्हें पेश करते समय थोड़ा व्यावहारिक होना पड़ता है। मिसाल के मौर पर ‘इस शहर में मनोहर’ और ‘थप्पड़’ निरूसंदेह दोनों ही उम्दा कहानियां हैं, दोनों के नायक दरबान और उनकी एक जैसी परेशानियां…अगर संकलन में दोनों में से कोई एक कहानी होती तो पाठकों को ज्यादा नयापन महसूस होता। ‘ब्रेकिंग न्यूज’ और ‘उठते क्यों नहीं कासिम भाई’ के साथ भी यही समस्या है। दरअसल पाठक जब पैसे खर्च करके किताब खरीदता है, तो अपना पूरा वैसा वसूल करने के लिए किताब में ‘वेराइटी’ चाहता है। क्षमा करें, किताब को भी अब लोग प्रोड्क्ट समझने लगे हैं। फिर भी इतना तो तय है कि ‘बारिश, धुआं और दोस्त’ खरीदने पर पाठकों का पूरा पैसा वसूल हो जाएगा। यह एक ऐसा संग्रह है, जो आज के दौर की कहानियों से ‘कहीं कुछ ज्य़ादा’ तलाशने वाले पाठकों को निराश नहीं करेगा। आज की ज़िंदगी से जुड़ी जीवंत कथावस्तु और सधे हुए शिल्प के सुंदर तालमेल के साथ चलने वाली ये कहानियां बड़ी सहजता से आपको भी अपनी यात्रा का साझीदार बना लेती हैं।
पुस्तक राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित है
पुस्तक राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित है
यह समीक्षा किताब पढ़ने के लिए और उत्सुकता बढ़ा रही है।
एक अच्छी किताब की संतुलित और सटीक समीक्षा