शरतचन्द्र पहली बार मुजफ्फरपुर 1902 में गये थे. तब लेखक के रूप में उनकी प्रसिद्धि नहीं हुई थी. हालाँकि उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था. विष्णु प्रभाकर ने ‘आवारा मसीहा’ में इस सम्बन्ध में विस्तार से लिखा है कि वे वहां किस तरह से महादेव साहू, बंगाल लेखिका अनुरूपा देवी के संपर्क में आये.
यह भी कहा जाता है कि शरतचंद्र का उपन्यास ‘श्रीकांत’ मुजफ्फरपुर में उस स्त्री से उनके मिलन की घटना पर आधारित है जिसका नाम उपन्यास में राजलक्ष्मी उर्फ़ प्यारी है. उसे एक तवायफ के रूप में दिखाया गया है. उपन्यास में एक प्रसंग आता है जिसमें श्रीकांत एक जमींदार के साथ तवायफ की महफ़िल में भाग लेता है. उसमें बड़े विस्तार से यह दिखाया गया है कि एक तवायफ या मफिल गायिका का वैभव कितना होता था, उसके आसपास कैसा प्रभामंडल होता था. कैसे उसके साथ अमला चलता था. वह चतुर्भुज स्थान की गायिका थी.
हालाँकि उपन्यास में उसे पटना का बताया गया है लेकिन लेखक ने उसे उपन्यास का रूप देने के लिए शायद ऐसा किया जो क्योंकि विष्णु प्रभाकर ने यह लिखा है कि किस तरह शरत के जीवन की घटनाएँ उनके भागलपुर से मुजफ्फरपुर पलायन की घटनाओं से मेल खाती हैं.
हालाँकि यह उपन्यास शरत ने बहुत बाद में लिखा. जब तक वे एक लेखक के रूप में विख्यात हो चुके थे. जबकि ‘देवदास’ के लेखन का काल 1901-1902 बताया जाता है. उसमें जिस चन्द्रमुखी का चरित्र है उसमें और ‘श्रीकांत’ की प्यारी के चरित्र में बड़ी समानता दिखाई देती है. अगर आप दोनों उपन्यासों को मिलाकर पढ़ें तो यह साफ़ हो जायेगा कि शरत की पारो भले भागलपुर की रही हो उसकी चन्द्रमुखी जरूर मुजफ्फरपुर की प्यारी थी.
मुझे आश्चर्य इस बात का होता है कि प्यारी को खोजने का कोई प्रयास नहीं किया गया. शरत बाद में भी मुजफ्फरपुर आते रहे, साहू परिवार से उनका मेलजोल बना रहा. तो क्या वे प्यारी से ही मिलने आते थे? 20 वीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में दुलारी बाई नाम की एक महफ़िल गायिका थी जिसका जिक्र आता है. दुलारी बड़े गिने चुने रईसों के यहाँ महफ़िल में ही गाती थी और मुंहमांगी सलामी लेती थी. बाद में एक अंगरेज जज से उसका सम्बन्ध हुआ और ऐसा हुआ कि कहते हैं कि बाद में वह उनके साथ ही इंग्लैण्ड चली गई.
बाद के दौर में चतुर्भुज स्थान की कई बाईजी लन्दन में जाकर बसी. लेकिन दुलारी लन्दन जाकर बसने वाली पहली बाई थी. वहां उनका कम से कम एक लड़का हुआ. कहते हैं कि मोहम्मद रफी के एक बेटे ने इंग्लैण्ड के ससेक्स में एक बंगला खरीदा था जो दुलारी देवी के लड़के से ही खरीदा था.
दुलारी चतुर्भुज स्थान के कोठे से उठकर इंग्लैण्ड में कोठी वाली बन गई थी. वहां उसने गाना छोड़ दिया था और 1930 के दशक में वहां उसकी गुमनाम मौत हुई. उसी दुलारी की, जिसे शरतचंद्र ने अपने उपन्यासों श्रीकांत और देवदास में अमर बना दिया.
अब सवाल उठता है कि क्या दुलारी ही प्यारी थी? प्यारी का जिस रूप में वर्णन किया गया है, जिस तरह से उसका ऐश्वर्य दिखाया गया है उससे लगता है कि वह बहुत प्रसिद्ध गायिका थी.
उस दौर में दुलारी ही सबसे प्रसिद्ध गायिका थी.
.is tarh ki kahani to hai,mai wahan 1-2 ke muh se suni hun…achha likhen..
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