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‘हम, तुम और वो ट्रक’ अनुवाद की उपलब्धि की तरह है

चीनी लेखक मो यान को 2012 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला तो उनके उपन्यासों की मांग चीन के बाहर बढ़ गई. नोबेल मिलने से पहले ही भारतीय प्रकाशक सीगल बुक्स ने उनकी किताबें प्रकाशित कर रखी थी. सीगल बुक्स से प्रकाशित ‘चेंज’ नामक उपन्यास का हिंदी अनुवाद यात्रा बुक्स से आया है ‘हम, तुम और वो ट्रक’ नाम से. अनुवाद किया है जाने माने विद्वान पुष्पेश पन्त में.

वैसे जितना बड़ा यह उपन्यास है हिंदी में उदयप्रकाश उससे बड़ी कहानियां लिखते हैं. कायदे से इसे उपन्यास कहना चाहिए, स्मृति कथा या लम्बी कहानी यह अलग चर्चा का विषय है. लेकिन मो यान ने जिस तरह से एक ट्रक और अपने मित्रों हे जीवू और लू वेनली के माध्यम से चीनी समाज की एक ऐसी कथा कही है जो उसके लोहे के दीवारों के पीछे के समाज की एक अलग ही छवि प्रस्तुत करती है.

कथावाचक ने अपने स्कूल के दिनों से ही कथा की शुरुआत की है और चीन के पारम्परिक समाज, वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के अंतर्विरोधों को इशारों-इशारों में यह खोलता चला जाता है. किस तरह पार्टी के जुड़ाव वहां कि व्यवस्था में किसी को बेहतर स्थिति में ला सकता है, किसी को शिक्षा के बेहतर मौके दे सकता है, किसी को लालन-पालन के बेहतर मौके दे सकता है, जो परिवार पार्टी की सदस्यता वाले नहीं हैं उनके लिए वहां की व्यवस्था उतनी उदार नहीं है.

‘हम तुम और वो ट्रक’ पढ़ते हुए यह बात स्पष्ट होती जाती है कि जोड़-तोड़, जुगाड़, सोर्स-सिफारिश चीन के समाज में भी गहरे व्याप्त है. इस मामले में वह हमारे देश से अलग नहीं लगता है. उपन्यास में एक यादगार चरित्र हे जीवू का है जो बचपन में कथावाचक से 10 युआन लेकर बेहतर भविष्य की तलाश में निकला गया था, उसका चरित्र यह बताता है कि चीन में अपनी बुद्धि, चालाकी से व्यवस्था को अपना बनाया जा सकता है.

लेखक की बचपन की सहपाठिन लू वेनली है, जिससे अंत में लेखक की मुलाकात तब होती है जब वह लेखक के रूप में सफलता के शीर्ष पर होता है. यह पूरी कहानी लू वेनली की याद में लिखी हुई लगती है जो उसके साथ लेखक की मुलाकात के साथ ख़त्म होती है, जिसमें किसी तरह की भावुकता नहीं है.

यह उपन्यास छोटा जरूर है मगर इसकी व्यंग्यात्मक भाषा में वहां की सामाजिक, राजनीतिक सन्दर्भ इस तरह से कूट कूट कर भरे गए हैं कि इसका पाठ उतना सरल नहीं रह जात है. इसका अनुवाद पुष्पेश पन्त ने जिस भाषा में, जिस खिलंदड़ेपन के साथ किया वह कई स्थानों पर मनोहर श्याम जोशी की याद दिला देती है. अनुवाद में नामों को छोड़ दें तो भाषा के स्तर पर यह उपन्यास एकदम हिंदी उपन्यासों की तरह लगता है. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह उपन्यास अनुवाद का भी एक मानक उदहारण है. रचनात्मक अनुवाद, जो उपन्यास के शीर्षक में भी दिखाई देता है. चीन के समाज की एक बंद रहने वाली खिड़की खोलने वाला यह उपन्यास अवश्य पठनीय श्रेणी में आता है. 
 
      

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