बहुत दिनों बाद दूधनाथ सिंह जी का कहानी संग्रह आया है. दूधनाथ जी ने हर विधा में लिखा और खूब लिखा. फिलहाल उनके संग्रह ‘जलमुर्गियों का शिकार’ से एक छोटी सी रोचक कहानी- मॉडरेटर
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चौरासी सिद्धों में सर्वोपरि थे सरहपाद।
मठ के महन्त। विचारक। दार्शनिक। सिद्ध। ब्राह्मण।
मठ में टहलते हुए रोज़ एक कुँवारी, कमसिन दासी पर नज़र पड़ती थी, जो हमेशा झाड़ू लगाती दिखती थी। सरहपाद उसे न देखते हुए भी प्रतिदिन देखते। जब वह आगे बढ़ जाते, उन्हें लगता, वह दासी उनकी पीठ को ताक रही है। उन्हें अपनी पीठ में चुभे हुए दो नैन दिखते। प्रतिकूल दिशा में देखते हुए भी उन्हें लगता कि उसे देख रहे हैं। लगातार उसे देख रहे हैं। टहलते हुए वे मठ के बाहर दूर-दूर तक निकल जाते। अचानक उन्हें लगता कि सिद्धों की टोली उनके पीछे है। सभी को उनकी चिन्ता होने लगी। सरहपाद वापस लौटते। उनकी आँखें उसे ढूँढतीं—न ढूँढ़ते हुए भी ढूँढ़तीं। फिर वे अपने बिस्तर में, अपनी नींद में, अपनी अनिद्रा में, अपने स्नान में, ध्यान में, अध्ययन में, हद में, बेहद में, अनहद में, ब्रह्मांड में—हर जगह उसे ढूँढ़ने लगे। रात भर वे सुबह होने की प्रतीक्षा करते, कि वे बाहर निकलेंगे और रात को $खूब ढेर-सारी पत्तियाँ गिरी होंगी और वह लड़की बुहार रही होगी। वे ‘बुहारने’ खरखर आवाज़ कानों में घोलने की सोचते। उन्हें लगता है कि एक कालातीत, विश्वजनीन पतझर का मौसम लगातार चल रहा है। पत्तियाँ हैं, जो वर्षा की तरह झर रही है और वह लड़की है जो बुहारे जा रही है, बुहारे जा रही है। उन्हें लगता, सारी दुनिया में सि$र्फ झाड़ू लगाने का कार्यक्रम चल रहा है। उनकी नींद में भी खरखर चल रहा है। वह अनिद्राग्रस्त हैं। उनकी प्रशान्ति नष्ट हो गई है। उनकी साधना खंडित हो गई है।
तब एक दिन…रात के पिछले पहर में महर्षि सरहपाद अपने आसन पर बैठे-बैठे रोने लगे।
अगली सुबह वे निकले।
हलका अँधेरा था। विक्रमशिला के स्तूप के पीछे सूर्योदय का आभास था। उधर आकाश में हलकी लाली बिखर रही थी। मुँह-अँधेरे ही वे उस ओर बढ़ते गए, जिधर चौदह वर्षीय वह दलित बालिका झाड़ू लगा रही थी। सरहपाद उसके निकट जाकर खड़े हो गए। ‘ठहरो!’ उन्होंने झाड़ू को रोकने का इशारा किया। लड़की डर गई। लगा उसकी रोज़ी गई। उसे महागुरु काम से निकाल देंगे। उसके काम में खोट है। वह बुहारती जाती है और उसके पीछे पत्तियाँ झरती जाती हैं। महागुरु रोज़ सवेरे, झलफले में उसे देखते हुए जाते हैं।
‘क्या अपराध हुआ महाराज?’ लड़की ने झाड़ू के साथ ही अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा।
‘क्या तुम मठ से बाहर मेरे साथ चलोगी?’ सरहपाद ने पूछा।
‘कहाँ महाराज़?’
‘यह तो मैं भी नहीं जानता। लेकिन यहाँ से बाहर, मेरे साथ, मेरे संग, मेरे जीवन के साथ।’ लड़की चुप।
‘मैं यह मठ छोड़ दूँगा। मैं यह साधना छोड़ दूँगा। मैं अपनी पगड़ी उतारता हूँ धरती पर। मैं पतन की ओर निकलना चाहता हूँ। मैं तुम्हारी देह, तुम्हारी आत्मा, तुम्हारी त्वचा, तुम्हारा मन, तुम्हारा समूचा अस्तित्व—सब तुमसे माँगता हूँ। मैं तथागत के प्रतिकूल, स्त्री-देह, स्त्री-संसार, स्त्री के होंठों की ओर प्रत्यागमन करना चाहता हूँ। क्या तुम मेरा साथ दोगी?’ अचानक सरहपाद ने झाड़ू समेत उस चौदह वर्षीय बालिका के हाथ पकड़ लिये।
लड़की ने झाड़ू नीचे रखा।
‘उसे उठा लो, उसी की ज़रूरत है।’ महागुरु सरहपाद ने कहा।
लड़की ने झाड़ू उठाया और दूसरे हाथ से सरहपाद का हाथ पकड़ विक्रमशिला के बाह्य-द्वार की ओर चल पड़ी।
सरहपाद ने पलटकर पीछे देखा।
वहाँ तिरासी सिद्ध हकबकाए हुए खड़े थे
‘आप लोग सिद्ध हैं, साधक हैं—आप सबको प्रणाम।’ सरहपाद ने रास्ते की धूल में लेटकर साष्टांग दंडवत् किया।
‘यह क्या हो रहा है!’ डोडिम्भपा ने हड़बड़ाकर पूछा।
‘मुझे मेरा सत्त्व मिल गया। आप लोग सँभालिए अपना मठ, अपनी साधना, अपनी कीर्ति, अपना संगठन, अपना इतिहास, अपना काल-खंड। मैं अब जाता हूँ।’
और महर्षि सरहपाद उस लड़की का हाथ थामे मठ के मुख्य द्वार से बाहर चले गए।
(2013)
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किताब का नाम – जलमूर्गियों का शिकार
कथाकार का नाम – दूधनाथ सिंह
प्रकाशक का नाम – राजकमल प्रकाशन
सजिल्द संस्करण
पृष्ठ संख्या – 128
कीमत – 250 रुपय
जीवन का सच इसी तरह साधना के क्रम में मिलता है | जो जीवन में है वह कहीं नहीं है | हम सबको अपनी आत्मा को बुहारना आना चाहिए |
Excellent short story.
Very touching story of one Sidh Sadhak and monk..