उदय प्रकाश द्वारा साहित्य अकादेमी पुरस्कार वापस करने की घोषणा पर अनेक तरह की प्रतिक्रियाएं आई. अधिकतर विद्वानों ने उनके इस निर्णय का स्वागत किया, जबकि कुछ विद्वानों ने इसे उनकी भूरि-भूरि निंदा करने के एक और अवसर के रूप में लिया. आज जाने-माने लेखक अरुण महेश्वरी के विचार जानते हैं- मॉडरेटर
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लेखकों और विवेकवान बुद्धिजीवियों पर लगातार जानलेवा हमलों के प्रतिवाद में उदयप्रकाश ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया। इसका हिंदी के व्यापक लेखक समुदाय को जहां गर्व है तो वहीं कुछ बुरी तरह आहत। उनकी प्रतिक्रियाओं से लगता है जैसे किसी सुंदर औरत को देखकर अचानक ही कोई चीखने लगे – देखो वह कितनी बेशर्म है, अपने कपड़ों के पीछे पूरी नंगी है!
इस बारे में हमारा इशारा खास तौर हंसी और कोप के स्थायी भाव में रहने वाले क्रमश: सुधीश पचौरी और विष्णु खरे की टिप्पणियों की ओर है।
हम जानते हैं कि इनकी प्रतिक्रियाओं के पीछे शायद ही कोई निजी संदर्भ होगा। लेकिन यह इनकी एक खास तात्विक समस्या है। तथाकथित विचारधारा विहीनता के युग की तात्विक समस्या। विचारधाराओं की अनेक अतियों से उत्पन्न आदर्शहीनता की समस्या। वे हर चीज पर हंसना चाहते हैं, हर आदर्श को दुत्कारना चाहते हैं। क्योंकि यह मान कर चलते हैं कि आदर्शों के प्रति अति–निष्ठा ही सर्वाधिकारवाद की, सारी अनैतिकताओं की जननी है।
लेकिन भूल जाते हैं इसके विलोम को। यदि अति–आदर्श–निष्ठा अनैतिकता की धात्री है तो अति–अनैतिकता–भोग किस आदर्श की धात्री है ? क्या वह पाप पर टिके आदर्श की, यथास्थितिवादी अनैतिकता की जननी
मार्क्स विचारधारात्मक बंधनों से प्रेरित लोगों के बारे में कहते थे – ‘वे नहीं जानते, लेकिन कर रहे है।’ लेकिन इन विचारधाराहीनों के बारे में हम कहेंगे – ‘वे जानते हैं, वे क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं।’ रघुवीर सहाय ने इन्हें देख कर ही शायद कहा था – ‘‘लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कह कर आप हंसे/सबके सब है भ्रष्टाचारी, कह कर आप हंसे/ कितने आप सुरक्षित हैं जब मैं सोचने लगा/सहसा मुझे अकेला पाकर, फिर से आप हंसे।’’