
रांची में रहने वाले जोशीले पत्रकार संजय कृष्ण की सम्पादित पुस्तक आई है ‘गोपालराम गहमरी के संस्मरण’, जिसका प्रकाशन दिल्ली के विकल्प प्रकाशन द्वारा किया गया है. उस पुस्तक पर बाद में विस्तार से लिखूंगा. लेकिन हिंदी दिवस के मौके पर उस पुस्तक में संकलित उनके इस लेख की याद आई जो भाषा की अशुद्धियों और भाषा प्रयोग की अराजकता को लेकर है. 70-75 साल पहले लिखा गया यह लेख आज भी कितना प्रासंगिक लगता है- मॉडरेटर
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इन दिनों जब हमारी माननीय मातृभाषा हिन्दी सब तरह से राष्ट्रभाषा के सिंहासन पर विराजने के लिए अग्रसर होकर उस मर्यादा पर अधिष्ठित हो रही है, हिन्दी लेखकों में बेमाथे की दंवरी देखकर दुःख होता है। आजकल के नव शिक्षित युवक लेखकों में एक बड़ा रोग देखने में यह आता है कि वे अंगरेजी के नियम और कानून से हिन्दी को जकड़ देना चाहते हैं। इस प्रयास में वे अपने समान ही हिन्दी के अनभिज्ञ सहयोगियों से समर्थन से लाभ उठाकर सफल परिश्रम भी होते जा रहे हैं। दूसरी ओर हिन्दी अनमेल वाक्य रचना, अशुद्ध प्रयोग और भद्दे मुहावरों की भरमार होती जा रही है।
हिन्दी में अब अशुद्धियों की नांव दिनों-दिन बोझिल होती जा रही है। ऐसे अवसर पर हिन्दी के मर्मज्ञ सुलेखकों की चुप्पी और आफत ढा रही है। यह बड़े दुःख की बात है कि हिन्दी के वर्तमान महारथी नए हिन्दी लेखकों के अनर्थ चुपचाप देख रहे हैं। समझ में नहीं आता कि इस अवसर पर माननीय सर्वश्री अम्बिका प्रसाद बाजपेयी, सकल नरायण शर्मा तीर्थत्रय, कामता प्रसाद गुरु, जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’, माखनलाल चतुर्वेदी, ज्वालादत्त शर्मा,राय नरायण मिश्र, रामनरेश त्रिपाठी, झाबरमल शर्मा,मूलचन्द्र अग्रवाल, डाॅक्टर श्यामसुन्दर दास, रामकृष्ण दास आदि महोदय हिन्दी में यह मनमानों पर जाने क्यों और कैसे देख रहे हैं।
इस अवसर पर यह दोहा याद आ रहा हैः-
सरस कविन के मम्म कौ, वेधत द्वै मो कौन।
असमझवार सराहिबौ, समझवार को मौन।
यहाँ किसी का नाम नहीं लेकर या किसी की अशुद्धियों का उदाहरण देकर किसी के वाक्य युद्ध करना अभीष्ट नहीं है। हिन्दी की चिन्दी करने वाले भाइयों के कार्य से मर्माहत होकर अपने आदरणीय उपर्युक्त महारथियों से मेरी विनती है कि आप लोग अपना मौन भंगकर इस ओर ध्यान देने का अनुग्रह करें।
हिन्दी संसार में अब सर्वमान्य सर्वश्री अम्बिकादत्त व्यास, दुर्गा प्रसाद शर्मा, राय देवी प्रसाद पूर्ण, बालमुकुन्द गुप्त, रामचन्द्र शुक्ल,महावीर प्रसाद द्विवेद्वी, पद्मसिंह शर्मा, जगन्नाथ प्रसाद, सखाराम चतुर्वेदी, शिवनाथ शर्मा,मेहता लज्जाराम, गणेश देवत्कर, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, अमृत लाल चकवर्ती आदि तो हैं नहीं,जिनके समय में लेखकों को हिन्दी की चिन्दी करने का भी अवसर नहीं मिलता था। जरा-जरा सी भूल पर मर्मज्ञ आलोचकों को समयानुसार कनेठियां और चाबुक की फटकार मिलती थी। ‘अनस्थिरता और शेष’ शब्द पर कैसी तीखी मर्मभेदिनी आलोचनाओं का समाचार पत्रों में सर्वोपयोगी वाक्युद्ध चला था।
इस अवसर पर मेरे मित्रा माननीय रामचन्द्र वर्मा की ‘अच्छी हिन्दी’मुझे मिली, जिसको पढ़ते ही दिल की कली खिल उठी। वर्मा ने भी इस पुस्तक में बहुत सी बातें लिख दी हैं, जिसको मैं समय पर लिखना चाहता था, किन्तु लिख नहीं सका।
‘अच्छी हिन्दी’में वर्मा जी ने नवयुवक हिन्दी लेखकों के लिए ही नहीं सबके लिए अच्छी रहनुमायी की है। आशा है, इससे सब हिन्दी लेखकों का उपकार होगा। मैं आदरणीय वर्मा जी से यह कहने के लिए क्षमा चाहता हूँ कि आपने ऐसी भी भूलों का विवरण दिया है जो अब गमतुल क्षाम फसीहती आम हो गई, जैसे खिदमतगार आदि कुछ भूलें न जाने आपने क्यों छोड़ भी दी है, जिनका उल्लेख इस पुस्तक में अवश्य होना चाहिए था। जल्दी में या भूलों की अधिकता से ऐसा हुआ होगा।
आज कल लिखा जाता है ‘अमृत धारा आपकी मित्र है’। ‘अमुक स्त्री उसकी मालिक है’, भाषा राष्ट्र की प्राण है’, मिहनत करनी पड़ती है।
वर्मा जी की यह बात मुझे बहुत पसन्द आई आपने उदाहरण बहुत दिए हैं लेकिन उनके लेखकों का नाम कहीं नहीं दिया है। इससे कटुता और वाद विवाद पढ़ने के सिवाय और कुछ लाभ नहीं होता।
मेरी राय है कि इस तरह लिखा पढ़ी से यह उद्यम होगा कि सब माननीय महारथी एक राय होकर एक स्थान पर एकत्र हो इन त्रुटियों से हिन्दी को निर्मल कर देने का सुगम उपाय निर्धारित करके भाषा का इन संकटों से उद्धार करें। इस तरह शीघ्र और सुगमता से हिन्दी की चिन्दी से रक्षा हो जाएगी और अधिक विलम्ब अथवा अनेक कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। इसके लिए समुचित स्थान नागरी प्रचारिणी सभा है, जहाँ अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का जन्म हुआ था। उसके जन्मदाता माननीय महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय हैं।
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आलेख में बहुत कुछ तो नहीउस समय के हिन्दी की एकरुपता पर चिंता व्यक्त की गई है।इसका ऐतिहासिक महत्व तो है ही।आलेख के प्रथम वाक्य का दंवरी शब्द शुद्ध भोजपुरी का है।आज की समस्या यह है कि हम अपनी सहायक बोलियों के शब्दों से हिन्दी को समृद्ध नहीं कर पा रहे है।यह गहमरी जी से सीखना होगा।