‘पिंजरा तोड़‘ दिल्ली के विभिन्न विश्वविद्यालयों की छात्राओं द्वारा स्वतंत्र रूप से चलाया जा रहा अभियान है। यह महिला छात्रावासों व पीजी में लागू भेदभावपूर्ण व असम्मानजनक नियमों के अंत की मांग करता है जिससे छात्राएं भी विश्वविद्यालयों ओर पूरे शहर के संसाधनों का बराबर लाभ उठा सकें। यह महिला सुरक्षा की ऐसी परिभाषा विकसित करने की कोशिश कर रहा है जहां महिलाओं को अपनी सुरक्षा स्वयं करने व अपने निर्णय खुद लेने का प्रोत्साहन व साधन मिले ना कि उन्हें ‘कमजोर‘ ओर ‘अबला‘ दर्शा कर पिंजरों में कैद जीवन जीने को मजबूर किया जाए। साथ ही यह सभी विश्वविद्यालयों में पर्याप्त और सस्ते महिला छात्रावासों व सक्रिय यौन उत्पीड़न आंतरिक शिकायत समितियों की मांग उठा रहा है। एक पत्र इस अभियान की ओर से माँ एक नाम- मॉडरेटर
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प्यारी माँ,
कई बार इनमें से कई ख्याल मेरे मन में आ चुके हैं| कभी आंसुओं के साथ, कभी गुस्से से भर| पर इन्हें खुल के शब्दों में ढालने की कोशिश आज शायद पहली बार कर रही हूँ| प्यार, लगाव, खेल और टकरार से गुज़रते हुए कई कदम तुम्हारे साथ चले हैं। उसी रास्ते पर चल कर, पढ़-लिख कर मैं जीवन में नई चुनौतियों की दहलीज़ पर खड़ी हूँ, जहाँ से आज तुम्हें आवाज़ देने की ज़रुरत महसूस हुई है|
जीवन के हर मोड़ पर तुम मुझे कहती रही, ‘कुछ बन कर दिखाओ!‘, ‘कुछ कर कर दिखाओ!‘| केवल यही नहीं, जीवन भर मैंने तुम्हे अनेक यत्न-प्रयत्न करते देखा, ताकि मैं कुछ बन सकूँ, कुछ कर सकूं| चाहे घर में कभी उलटी-सीधी बातों को अनसुना करते हुए, कभी सबसे झगड़ कर, कभी घर से निकल, नौकरी कर हमारे खाने और मेरी फीस का इन्तेजाम करते हुए, या कभी औरों के सामने ना झुक कर, मेरे लिए एक मज़बूत औरत की मिसाल कायम कर, मेरे जीवन को आसन बनाने के लिए, अपने और मेरे कितने संघर्ष तुमने लड़े हैं| वहीँ, तुम्हारे साथ चलते हुए मैंने जीवन के कई पहले पाठ पढ़े हैं| बाबा की तुमसे बात करते समय ऊँची आवाज़ में मैंने अपने सबसे बुरे सपनों की गूंज सुनी है| तुम्हारी नौकरी, या तुम्हारी पढ़ाई छूट जाने की कहानी को मैंने मुंह जुबानी याद की है| घर-परिवार के अन्दर तुम्हारे साथ जो हिंसा हुई उससे मैंने हर क्षण, हर जगह सतर्क रहना सीखा है| दिन भर घर में तुम्हारी महनत को अनदेखा होते देख, मन ही मन सौ बार दोहराया है की कभी किसी की गुलामी नहीं करुँगी, कभी चुप-चाप गलत बात नहीं सहूंगी| तुम्हारे जीवन और संघर्षों ने नए इतिहास रचे हैं, जिसकी ज़मीन पर खड़े होकर आज मैं तारे छूने के सपने देख रही हूँ| क्या तुम भी मेरी उम्र में ऐसा किया करती थी??
पर आज मुझे वह कहते हैं की यह मेरा लड़कपन है की मैं तारे छूना चाहती हूँ| शायद हस कर तुम भी यही सोच रही होगी, पर क्या सच में तुम भी यही सोचती हो? मैं अब बच्ची नहीं| मैं वैसी ही औरत हूँ जैसी तुम हो| शायद दुनिया कुछ कम देखी है, पर मैं सारी दुनिया देखना चाहती हूँ| पर वो मुझे दुनिया नहीं, दुनिया में मेरी जगह दिखाते हैं, और कहते हैं ‘वहीँ, अपनी जगह पर रहो!‘| खिड़की के बाहर मैं दुनिया को गुज़रते देखती हूँ| लाइब्रेरी से आते जाते लोग, कभी कोई नाटक, कभी किसी प्रतियोगिता से वापस आते लोग, नौकरी करने वाले लोग, पढ़ने वाले लोग, देर तक खेल के मैदान में प्रैक्टिस करने वाले लोग.. दरसल, ज़्यादातर लोग नहीं, लड़के| वह कहते हैं की ‘तो क्या हुआ? वो लड़के हैं, तुम लड़की हो!‘, ‘इतनी रात गए बाहर कुछ हो गया तो, कौन ज़िम्मेदारी लेगा?’, ‘बाहर की दुनिया खतरे से खाली नहीं है‘| ऐसा कहते वक्त वो चाहते हैं कि मैं भूल जाऊं वो सारी चीज़ें जो मैंने अब तक स्कूल-कॉलेज में सीखी हैं, और वो पाठ भी जो मैंने तुम्हारे साथ पढ़े है| मैं कॉलेज तो आ गयी हूँ, पर अब भी यहाँ दुसरे दर्जे की छात्र ही हूँ, चाहे वो खेल का मैदान हो या लाइब्रेरी, मेरे हर कदम पर वो मुझे ‘ध्यान से चलने और घर जल्दी लौटने‘ का मशवरा देते हैं| मेरा दिन जल्दी ढलता है, कहते हैं मेरी बाजुओं में कम ताकत है, मेरी समझदारी कभी पूरी नहीं हो सकती, मैं भले-बुरे में फर्क नहीं कर सकती, मैं अपने फैसले खुद नहीं ले सकती, मैं अपने रास्ते खुद नहीं तय कर सकती| जब मैं उनसे रिक्वेस्ट करती हूँ तो कहते हैं की ‘मेरे बाहर होने पर तुम्हें मेरी चिंता होगी‘| पर तुम सबसे भला समझती हो चार दीवारियों के अन्दर होने वाली हिंसा को, तो फिर क्या मेरी बेबसी देख तुम्हे चिंता नहीं होती? जब मैं उनसे बहस करती हूँ तो वो कहते हैं की मेरे माँ बाप को बता देंगे, और तुम्हारे दुःख और तुम्हारी डांट का सोच मैं चुप हो जाती हूँ| पर तुम तो मेरे लिए प्रेरणा थी, तो आज उनकी जुबां पर मेरे लिए धमकी कैसे बन गयी हो?
तब माँ, जहाँ एक तरफ मुझे तुम्हारे संघर्षों से हौसला मिलता है वहीँ दूसरी तरफ तुम्हारी चुप्पियों से मेरे पांव बंध जाते हैं| और मेरे सारे प्यार के बावजूद मुझे तुमसे शिकायत भी होती है| ‘कुछ बन कर दिखाओ!‘ की तुम्हारी सारी बातें उनकी बातों के बोझ के नीचे दबने लगती हैं| क्या लड़के और लड़कियों में सच में ज़मीन आसमान का फर्क होता है, जिसमें ज़मीन हमारे हिस्से और आसमान उनके हिस्से में लिखा है? मैंने खुदसे और तुमसे वादा किया था की यह कभी नहीं मानूंगी, पर आज वह मुझसे यह मनवाने पर उतर गए हैं| कहो मैं उनकी बात कैसे मान लूं? उनकी यह बात मानने का मतलब है की मैं यह भी मान लूं की कल पढ़ लिख कर भी मैं शादी के बाद अपनी नौकरी छोड़ दूंगी, यह भी की मैं कितनी भी मेहनत कर लूँ मैं अपने उम्र के आदमियों के मुकाबले एक कदम पीछे ही चलूंगी, उनसे कुछ पैसे कम ही कमाउंगी, की कल अगर खुदा-न-खास्ता जिससे मेरी शादी हुई उसने मुझे कहा की यह मेरा नहीं उसका घर है तो मैं चुप चाप निकल जाउंगी, की मैं मान लुंगी की मेरी माँ ने मेरे और खुद के लिए जो भी संघर्ष लड़े वह व्यर्थ थे, कि अगर कभी मेरी कोई बेटी मुझसे पूछेगी की ‘माँ, क्या सच में आदमी और औरत में ज़मीन आसमान का फर्क है‘ तो मैं उसे कोई जवाब नहीं दे पाऊँगी|
माँ, मैंने तुम्हें पिंजड़ों में फड़फड़ाते देखा है, और आज मैं खुद को भी वैसे ही पिंजड़ों में कैद पाती हूँ। शायद मेरा पिंजड़ा तुम्हारे पिंजड़े से थोड़ा बड़ा है, पर सपने तो तुमने पिंजड़ों के नहीं, खुले आकाश के देखे थे ना? मैं भी खुले आकाश के सपने देखती हूँ| और मैं इन सपनों को साकार करुँगी, और उम्मीद है कि हम साथ उड़ेंगे, सभी पिंजड़ों के पार! माँ, तुम भी मेरे साथ उड़ोगी ना?
तुमसे साहस, उर्जा और सीख पाती,
ढेर सारे प्यार के साथ,
तुम्हारी बेटी
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