
भरत तिवारी ‘फैजाबादी’ आजकल अच्छी ग़ज़लें कहने लगे हैं. समय की विडंबनाएँ जैसे उनके शेरों में उतर रही हैं. चालू बहरों से हटकर कुछ संजीदा, कुछ तंजिया शायरी से लुत्फ़अन्दोज़ होइए- मॉडरेटर
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1.
वो जो हैं खुद ही बड़बोले उनकी तो बातें रहने दो
दम्भ उन्हें है ताज़ा – ताज़ा उनकी मुलाकातें रहने दो
अपनों को दुश्मन जो माना अपनी किस्मत आप डुबाना
जब हो पुरानी दीवारें तो शुबहा की रातें रहने दो
वक़्त और सत्ता रेतों जैसी बंद नहीं मुट्ठी में होती
भीगो नहीं ,सर चढ़ जाती हैं ये अब बरसातें रहने दो
बेचने वाले रुक भी जाओ बेचो नहीं तुम नाम – ए – मुहब्बत
दिल को छूने वाली उसकी मिशरी सी घातें रहने दो
तुम छाये हो मेरे दिल पर इतना ही काफी है `भरत `जी
छोटे – छोटे खेल-खिलौने जैसी सौगातें रहने दो
ग़ज़ल – 2 ……………
हमेशा चाँद को गरहन लगाना काम है उनका
दुकानें रौशनी की फिर सजाना काम हैं उनका
शहर की आग गाँवों में लगाना काम है उनका
हमारे खेतों को बंजर बनाना काम है उनका
सर – ए – महफ़िल कहेंगे दाल – रोटी के भी लाले हैं
मगर चुपचाप मुर्गे को उड़ाना काम है उनका
गुसलखाने की दीवारें तिजोरी से नहीं कमतर
वहाँ भी ईंटें सोने की लगाना काम है उनका
मुहल्ले वालो जागो अब , मुहल्ले वालो चेतो चेतो अब
लगा कर आग पहले फिर बुझाना काम है उनका
रहीम ओ राम उनके वास्ते सत्ता की कुंजी है
धरम की नाम पर सबको लड़ाना काम है उनका
हमें अपना बना कर फायदा वे खुद उठाते हैं
कि जैसे सबको ही उल्लू बनाना काम है उनका
बना कर कागज़ों पर खेत कहते हैं करो खेती
नदी की धार पर कब्ज़ा जमाना काम है उनका
`भरत` दिखता नहीं अपने सिवा उनको जहां में कुछ
हमारे हक़ की रोटी लूट खाना काम है उनका
ग़ज़ल – 3 ……………
हो गया खूंखार अब तो हर नगर
फ़ितरतों में घुल गया ऐसा ज़हर
देखते हैं सब तमाशा बस यहाँ
गिद्ध जैसी आस टपकाती नज़र
दूध पीते बच्चे की अस्मत लुटे
कौन सी दुनिया में करते हम बसर
बेबसी है और बेचैनी भी है
मुल्क ये कैसा हुआ ओ बेख़बर
देखते हैं हाथ पर रख हाथ सब
यूँ नहीं आयी न आएगी सहर
लूट है ऐसी मची चारों तरफ
कीमतें सर पर रुपैया पाँव पर
किस बयां को सच कहें ऐ साहिबो
कब बदल जाए इरादा क्या ख़बर
कौन सच का साथ देता है ` भरत `
चाहत – ए – दौलत बड़ी , बाक़ी सिफ़र
ग़ज़ल – 4 ……………
ये सही आपात है
बेधड़क प्रतिघात है
बिक गया लो मीडिया
दिन को कहता रात है
जो भी थे वादे किये
भूली – बिसरी बात है
खेत होते खेत हैं
अब नहीं देहात है
खोलिए सब खोलिए
साब , तहक़ीक़ात है
जान हो जिसकी बड़ी
वो जवाहरात है
बोलिए जो वो कहे
दल का दल तैनात है
कट रही इंसानियत
जैसे सागपात है
बेटियों की मौत तो
एक ही अनुपात है
जेब खाली हो गई
सर के ऊपर लात है
रोज़गारी, चुप रहो
अब तो बस निर्यात है
है सफ़ेदी खूं सनी
ज्ञात भी अज्ञात है
अब सियासत दोस्तो
कौरवी बिसात है
आँख मूँदो गर `भरत`
ऐश तब इफरात है
ग़ज़ल – 5 ……………
मजहब को पासा ख़ूब बनाते हो भाई
ये खेल जहां में ख़ूब दिखाते हो भाई
मौसम में आग भरी है अब तो ज़हरीली
फसलों में दहशत ख़ूब उगाते हो भाई
अपने घुटनों पर ख़ुद को चलाते हो लेकिन
और हमको सम्भलना ख़ूब सिखाते हो भाई
ये दुनिया नश्वर है और नश्वर ही होगी
सीधे – सादों को ख़ूब पढ़ाते हो भाई
ला कर दरिया के पास डुबोते हो उसको
भटके को रास्ता ख़ूब दिखाते हो भाई
ग़ज़ल – 6 ……………
इन हुक्मरानों पर नहीं अब तो भरोसा , क्या करें
इन को ख़बर ख़ुद भी नहीं कब ये तमाशा क्या करें
शर्म – ओ – हया से दूर तक जिसका नहीं कुछ वास्ता
वो आबरू – ए – मुल्क का जब हो दरोगा , क्या करें
इक नौकरों का शाह है , इक बादशाह बेताज है
दोनों का मक़सद लूटना , अब बाप – दादा क्या करें
काला बना पैसा कई तो भेजते स्विस बैंक को
रोया करें हम प्याज को खाली खज़ाना क्या करें
हर इक तमाशा दोस्तो सब टोपियों का मानिए
सब के इरादे एक से, कोई बिचारा , क्या करें
ग़ज़ल – 7 ……………
धड़कता दिल उतारू है बग़ावत पर दिवाने का
सुनो उसका नहीं इक हर्फ़ भी कोई बहाने का
हदों के पार होती जा रही है हर परे
bahut bahut shukriya aapka
Kuchh hatkar zaroor pdhne ko mila…kuchh Sher bahut achchhe hain…kuchh kaam chalau. Yah hota hi hai . Bhaarat Bhai ko Shubhkaamna…Aabhar Jankipul.
– Kamal Jeet Choudhary
आभार
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टेकनेट सर्फ | TechNet Surf
चालू बहरों से हटकर कुछ संजीदा"
सरजी ये चालू बहर क्या होता है.. मैने सिर्फ आठ न. वाली गजल की तक्ती की है और उसका बहर है1222-1222-1222-1222 तो क्या भी चालू बहर है। मैं शाइर से और गजल प्रेमियों से भी जानना चाहूगाँ कि ये "चालू बहर" क्या है
सुंदर लेखन !