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अंतर्मन की ‘अंतरा’

हाल में ही एक काव्य-पुस्तक हाथ आई- ‘अंतरा’. कवि का नाम पढ़कर ध्यान ठहर गया- विश्वनाथ. श्री विश्वनाथ जी का कुछ साल पहले ही देहांत हुआ. राजपाल एंड सन्ज प्रकाशन के प्रकाशक के रूप में उनका नाम बरसों से जानता था. लेकिन यह कवितायेँ उनका एक अलग ही रूप लेकर आती हैं. जीवन-अनुभवों से उपजी गहरी दार्शनिकता लेकिन बहुत कम शब्दों में. सच में उनकी कविता के इस पहलू ने बहुत प्रभावित किया- मॉडरेटर 
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1. 

सैकड़ों परिचित हैं मेरे
फिर भी मैं अपरिचित हूँ
मेरा नाम-धाम जानते हैं
मेरा काम जानते हैं
पर मुझे नहीं जानते
मैं भी उन्हें पहचानता हूँ
मिलना-जुलना है
पर, मैं भी शायद उन्हें नहीं जानता
हम सब एक-दूसरे से परिचित हैं
फिर भी, अपरिचित
2.
वह भाग रहा है
वह जीवन से भाग रहा है
वह स्वयं से भाग रहा है
कहाँ तक भाग पायेगा
कब तक भाग पायेगा
उसका पीछा भी तो वह स्वयं कर रहा है
भागकर जायेगा कहाँ
स्वयं ही शिकारी है
स्वयं ही शिकार
3.
तुम्हें मुझसे प्यार है
ऐसा क्यों कहा था तुमने
प्यार तो एक खुशबू है
अंतर्मन में बसी हुई
प्यार एक अहसास है
जो हर क्षण हमारे आसपास है
प्यार कहीं नहीं जाता
बिना कहे
बहुत कुछ कह जाता है
4.
तन की नग्नता
को तो
ढांप लिया कपड़ों से
मन की नग्नता को ढांपागे
कैसे
मूर्ख को तो समझा भी लोगे
जैसे-तैसे
पर इस कुटिल बुद्धिमान
मन को समझा पाओगे
कैसे
5.
विज्ञ जन कहते हैं
समुद्र की लहरें गिनना निरर्थक है
ठीक ही कहते हैं
फिर भी लोग
लहरें गिनते हैं
आकाश के तारे गिनते हैं
समुद्र की गहराई नापने का प्रयत्न करते हैं
निरर्थक में भी कहीं न कहीं अर्थ निहित है
6.
घने-गहरे
जंगल में घिर गया हूँ
चारों ओर निस्तब्धता
गहरा सन्नाटा
मेरे मन में
बैठ गया है
7.
मेरे पीछे
मेरा साया चला आ रहा था
छोटा-सा साया
कुछ कदम बाद
मुड़कर देखा
मेरा साया
मुझसे कहीं बड़ा हो चुका था

 
      

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3 comments

  1. Jeevan darshn vyakt karti saral aur sahaj kavitain!!
    Aabhaar agraj Prabhaat ji .
    – Kamal Jeet Choudhary

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