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मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी ‘रक्स की घाटी और शबे फितना’

समकालीन हिंदी-लेखिकाओं में मनीषा कुलश्रेष्ठ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. अलग-अलग परिवेश को लेकर, स्त्री-मन के रहस्यों को लेकर उन्होंने कई यादगार कहानियां लिखी हैं. उमें स्त्री-लेखन का पारंपरिक ‘क्लीशे’ भी कभी-कभी दिख जाता है तो कई बार वह उस चौखटे को तोड़कर बाहर भी निकल आती हैं. जो लोग यह समझते हैं कि स्त्री-लेखन देह और गेह तक ही सिमटा हुआ है उनको मनीषा जी की यह नई कहानी पढनी चाहिए जिसमें स्वात घाटी के मौसम हैं और वहां के परिवेश का तनाव. निश्चय ही वे अपने लेखन से हिंदी में स्त्री-लेखन के एक ध्रुवांत की तरह हैं. कल हमने दूसरे ध्रुवांत की लेखिका की कहानी पढ़ी थी. ये सब हिंदी स्त्री-लेखन के अमिट रंग हैं- मॉडरेटर ===================================================================

वे तीनों रात भर हल्के हरे पत्तों के बीच अपने सफेद चेहरे और गुलाबी से बैंगनी पड़े होंठ छिपाए रहीं, बैंगनों और शलगमों के इस खेत में वे तीनों अविचल खेत का ही हिस्सा लग रही थीं, उनके गहरे सलेटी लबादे उनके जिस्म पर मटमैली, बारूदी चाँदनी की तरह लिपटे थे, सबसे छोटी ग़ज़ाला के चेहरे पर बन्धा स्कार्फ खुल कर उड़ा जा रहा था, उसे अपने दिल की धड़कनें तक अज़ाब महसूस हो रही थीं, मानो कि सीने में फूटते कोई छोटे – छोटे विस्फोट, अनवरत!

खेत की पानी भरी नालियाँ तक सहम गईं थीं. बहना बन्द कर चुकी थीं या कि सहम कर चुपचाप बह रही थीं. मौसम तक के लिए चौकन्नेपन का यह अभ्यास नया था, चचा और चचाज़ाद भाई और पिता के नए रवैय्ये…और राजनैतिक समीकरण…मौसमी थे कि स्थायी?  इनमें से कोई समझ नहीं पा रहा था.

“खुदा जाने. अब्बू को क्या हुआ. नक़ाब के हिमायती…वो कब से हुए? ” गीले लबादे को निचोड़ते हुए एक गुलाबी से बैंगनी पड़ा होंठ खुला.

“कभी तो चुप रहा करो, मुश्किल वक्त है, ग़ुज़ार जाओ.”

दो सहमे गदराए बैंगनी होंठ हरी लताओं में हिलते हुए फुसफुसाए. आकाश में पीले सितारों के कुछ झुण्ड अजीब तरीक़े के आकार में बन बिगड़ रहे थे.

“देख हिरण..” कमसिन ग़जाला ने बहनों को बहलाने की नाक़मयाब – सी कोशिश की .

”और अब देखो ज़रा ?” लुबना ने गहरी आँखों से आकाश में देखा.

“बिच्छू..!” ग़जाला सिहर गई.

“जाने दे, इन सितारों का क्या है ये तो खेल – खेल में खंजर बन जाते हैं कभी सलीब…डर मत, घर चल, सुबह होने को है देख, वो भोर का तारा, इसे ही अंजुम कहते हैं.” गुलवाशा ने कहा.

“चलें?”

”चले गए होंगे वो लोग?”

”डर मत…सब ठीक कर लिया होगा अब्बू ने.”

एक भारी और उदास मर्दाना आवाज़ और कुछ पतली खिली कमसिन आवाज़ों का कोरस बादलों से खाली रात में पहाड़ से टकरा कर एक तिलिस्म बुन रहा था. नीचे घास पर सफेद नन्हे फूल और आकाश में तारे  खिल रहे थे.

“ ऎसे मुश्किल वक़्त में महफिल? किस की शामत आई है?

“ लुबना, तू हमेशा ग़लत ही सोचेगी, लगता यह कोई मजहबी मजलिस है.” गुलावाशा ने आश्वस्त किया और मन ही मन महफिल की सलामती की दुआ की.

उस हरे – जामुनी खेत के साथ बकरियों का एक बाड़ा था, जिसके तीन तरफ कच्चे मकानों की दीवारें और सामने की ओर आड़ी-तिरछी लकड़ियों और काँटेदार झाड़ियों का ऊँचा-नीचा जंगल था। जंगल के रास्ते से बाहर आकर वे शहर के सबसे अँधियारे कोने पर खड़ी थीं. गली दर गली वे दोनों ‘संगीत गली’ के मुहाने पर पहुँची,  वहाँ सन्नाटा ओढ़े, संजीदा खड़ी उनकी सँकरे गलियारों वाली हवेली थी,  हवेली की नीचे की मंज़िल पर कोई नहीं था, महज कुछ नौकर और बूढ़ी मामा देर रात के उन अनचाहे मेहमानों की रसोई निपटा करके ज़रा सोए ही थे.  दूसरी मंजिल पर भी अब्बू के कमरे में चाय की प्यालियाँ तकरीबन दस – बारह प्यालियाँ रखी थीं. तीसरी मंजिल पर मरहूम दादी अम्मां के कमरे में अब्बू – अम्मी नमाज़ से उठ कर बैठे ही थे, जब वे तीनों वहाँ पहुँची तो, अब्बू बड़बड़ा रहे थे.

“बीबी, ज़िन्दगी का हर उजाला छिनता जा रहा है, मगर मुझे फिर भी अँधेरे से प्यार नहीं हो पाता, न जाने क्यूं?”

” अँधेरे से किसे प्यार हो सकता है जी, ऎसी अजीब बातें क्यों? “

” हो जाता है, देखो न ज़्यादातर चले गए, रक़्स की ये घाटी छोड़ कर अपने गीत और फन छोड़ कर. हमारे खुद अपने सगे ये हवेली छोड़ गए. जो बचे उन्होंने अपने इस पेशे को खुद ही छोड़ दिया. ये बर्बादी इतनी आहिस्ता से होती है कि हमें इसकी आदत पड़ जाती है. इस घाटी की असल रूह तो यहीं भटकती है, शलगम के खेतों में. ……..अहा…देखा, ये देखो आ गईं मेरी रूह की तीन परियाँ..” अब्बू ने तीनों को अपने चौड़े सीने में भर लिया, तीन फाख़्ताओं की तरह.”अब्बू के बदलते सुर को तीनों पहचान गईं, और उस बेसाख़्ता प्यार पर उदासीन रहीं. अपने लबादे उतार कर खूंटियों पर टाँगने लगीं, लुबना ने अपनी साटिन की सफेद सलवार पर से घास के हरेपन को झाड़ते हुए पूछा,
“ वो लोग चले गए अब्बू?”

“……….”

“अबके बार क्या फरमान छोड़ा?’’

 “वही कि….बता तो चुके हैं. बार बार क्या बताना, इस बार तो वो बस भूखे थे, ढंग का खाना खाना चाहते थे.”

“फिर भी, कुछ तो कहा ही होगा.”

” हाँ कहा तो है,  कि वे इस शर्त पर हमारी हवेली नहीं जला रहे कि हमारा परिवार और हमारे लोग जो कभी बेहूदा फिल्मी गाना – बजाना नहीं करते, न हमारी लड़कियाँ नए चलन के कपडे पहन कर नाचती हैं, मगर जो हमारी हवेली और गली का पारम्परिक नाचना-गाना और बजाना है, अब वह भी बंद कर दें. ग़ज़ाला का स्कूल भी बन्द हो रहा है, टीचरों को भगा दिया जाएगा. ” हरे शाक की टोकरी सँभालती अम्मी बोलीं.

“स्कूल भी? टीचर भी!!! “

तभी बूढ़ी मामा फिर्दौस का पोता सुहैल भीतर आया हाँफता हुआ…और वह जो बोल रहा था उसका मतलब जो भी हो, सबके कानों तक बस यही पहुँचा.

टूटे रबाब, सारंगियाँ, ज़मीन पर लिथड़ते साफ़े..झुके मर्दाना सिर  हेयरपिंस, जूड़ा पिन और टूटे बाल…टूटे गजरे….नुचे और नीले पड़े जनाना जिस्म. अभी जहाँ शादी का जश्न था, संगीत गली की नर्तकियाँ समूह में अपने गोरे रंग और दहकते अनार गालों के साथ, दो लम्बी चोटियाँ आगे डाले, सुर्ख लबादे और स्कार्फ मे सर बाँधे, चाँदी के झाले लटकाए नाच रही थीं..कि अभी जैसे किसी नरभक्षियों के समूह ने तबाही मचा दी हो.

“ ओह! जिसका डर था, वही हुआ लुबना.”

” हाँ….मुझे डर नहीं इस होनी का यकीन था.”

“ क्या नई बात? जब फरमान है तो क्यों चोरी से नाचना – गाना? शहला की चौक में औंधी पड़ी लाश सब भूल क्यों गईं? और उस घर के मर्द? मुझे तो नाच गाना शुरु से ही पसन्द नहीं.” माँ के साथ जहेज़ में आई , मामा फिर्दोस अब्बू के लिहाज़ में दुप्पट्टे की आड़ करके बोली

”फिर्दोस नन्ना, न आपको न आपकी प्यारी ‘बिटिया’ हमारी मम्मी को  नाच – गाना आता भी तो नहीं…” ग़जाला चहकी.

”आने को इसमें कौनसा…ख़ास…है? यह भी कोई कशीदाकारी कि नक्काशी का काम है?” मामा फिर्दोस बुरी तरह कुढ़ गई.

“सही कहती है फिर्दोस, यह नाच – गाना जब जान की अज़ाब बन गया है तो बन्द क्यों न हो ही जाए पूरी तरहा…यूँ भी हमारा तो हमारे मज़हबी कानून में यकीन रहा है” मैदान के इलाके से ब्याह कर लाई गईं, ‘अम्मी’ ने भी उन्हीं लोगों की तरह फरमान सुना दिया.

“बीबी, तुमने साबित कर दिया न….कि ये बर्बादी इतनी आहिस्ता से होती है कि हमें इसकी आदत पड़ जाती है. तुम जब हमारे साथ आईं थीं तो हैरां थीं कि हम वादी के लोग बाकि ज़मीन के लोगों से ज़्यादा खुले दिमाग़ और ज़िन्दादिल हैं, हमारी औरतें, घुटन में नहीं रहतीं, न नक़ाब पहनती हैं. तुम ही थीं जो फिदा हुई थीं, हमारे गीतों पर और कहा करती थीं कि इन गीतों में दर्दमन्दी है, मगर इन पर नाचती हुई औरतें, मस्ती में नाचती हैं कि ये गीत जश्न के गीत हों. आज तुम इस कला को मज़हबी जंजीर में बाँधने लगीं…  है ना अजीब बात! “ अब्बू की इस जहन कुरेद देने वाली बात पर अम्मी आह भर कर चुप हो गईं.

”चलो! नीचे चलें.” वह बेइरादा उठ खड़े हुए। अम्मी और अब्बू दोनों सीढ़ियाँ उतरने लगे। पीछे पीछे वे तीनों. उतरते-उतरते पहले मोड़ पे अब्बू ठिठके और अँधेरे जीने से बाहर उस रोशनदान में देखने लगे जिसमें से नजर आने वाला रोशनदान और उससे परे फैले हुए दरख्त एक विचित्र दुनिया-सी लगते थे।

अब्बू की दहशतजदा आँखें जीने के अँधेरे में कुछ और ज्यादा दहशतजदा लग रही थीं। माँ डर गईं जब पिता ने हार कर कहा “ तुम ठीक ही समझती हो इस सियासत को बीबी, अब रक्स – घाटी की इस संगीत गली में बची हुई औरतों को समझाना तुम्हारा काम…देखो दुबारा संगीत गली से प्रायवेट शादी ब्याहों में कोई न जाए तो बेहतर. बस कुछ दिन की बात…फिर वही दिन लौटेंगे.”

” तुम तो ख्वाब की सी बातें कर रहे हो,”  अब्बू के पीछे आती अम्मी ने हताश हो कर कहा।

वक्त की मनहूस चाल के चलते वैसे ही इस हवेली के रंगीन काँच की खिड़कियों वाले हॉल, जालों से भर गए थे. चचा की सारंगी और उनके नवजवान बेटों के नाज़ुक गलों की अनुपस्थिति से हवेली मनहूस हो गई. शाम से ही रेवन कव्वों का शोर इसे मनहूस बना देता था. फिर रात के ढलते सन्नाटे में गोलियाँ चलने की फट – फट आवाज़ आती थी. मरते हुए गले उस ऊपर आसमान में बैठे किसी काल्पनिक खुदा और जन्नत का नाम लेते और न जाने किस भाषा में गोली मारने वाले कोई लोग शोर उठाते उसी क्रूर मालिक के नाम का. एक दिन फिर ऎसा हुआ, ग़जाला ने खुद सुना…बस उस रात के बाद अब्बू लौटे ही नहीं…

ग़जाला ने उन दिनों स्कूल की कॉपी में जो लिखा, वही बस बच रहा…..

1.

ये आवाज़ें पेट में बवंडर उठाती हैं और दिमाग में ख़ला जम कर बैठ जाती…जिस्म मर जाता है. पूरे वज़ूद में हवेली का– सा सन्नाटा पसर जाता. तब इस हवेली के भरे पूरे जवान दिन याद आते. बचपन के दिन जब नींद ही अब्बू और उनके भाईयों के रबाब और दिलरुबा की जुगलबन्दी से खुला करती थी…जब दूधिया मकई के खेतों और जलते पलाशों का मौसम हमारे लिए हुआ करता था….हम बच्चे स्कूल जाते और स्कूल से लगे धान के खेतों में उड़ते  ड्रेगन फ्लाई की पूँछ में धागा बाँध कर हैलीकॉप्टर बनाते थे, अब धुँआ उगलते हैलीकॉप्टर रॉकेट लाँचर के साथ वादी के स्कूलों को तबाह करने आते हैं.

बीते हफ्ते ‘मसहबा’ को उन लोगों ने मार के कब्रिस्तान में फेंक दिया, वह अपनी स्कूल ड्रेस पहने थी. ….बेवकूफ थी क्या? स्कूल तो कबके बन्द हुए थे, स्कूल टीचर कब की मैदान की तरफ चली गई, इमारत उधड़ी पड़ी है. मेरा टीचर बनने का ख्वाब भी…….

अब्बू तो कहते थे कि सरकार सिनेमाघर बचाये न बचाए हमारे स्कूल बचाएगी, अब्बू मर गए, अब किस से ज़िरह करूँ?

2.

मेरी दोनों बड़ी बहनें बहुत अलग थीं, गुलवाशा जैतूनी और लुबना खुबानी की रंगत की थीं, उनकी तीखी नाक और बड़ी आँखें उन्हें बेइन्तहाँ खूबसूरत बनाती थी, मैं ही घर भर में अलग थी, सादा और पढ़ाकू जिसका ताना अब्बू अकसर अम्मी को अकसर दिया करते…

गुलवाशा की… यह जैतूनी रंगत ही उसका ख़ासमखास लिबास थी, और जिस्म की लचक उसका बेशकीमती गहना…अंग अंग में कम्पन भरा था, संजीदगी ऎसी कि मैदानी इलाकों की ख़ानदानी औरतें पानी भरें. माथे पर मोती जड़ी लैस का दुपट्टा बाँध, लम्बा घेरदार रंगीन धागों से कढ़ा लाल कुर्ता और शरारा पहन वह घूमती, मर्द तो मर्द औरतों की आह निकल जाती, लय और ताल का ऎसा जादुई मेल कि बस…उस पर आँखों और मुस्कान का विलास …दाँत हल्का सा खुलते कि सोने जड़ी कील चमक जाती. भोली आँखों की दुधारी कटार ….बिना मेकअप की गज़ब रूहानी सुन्दरता. लोगों के कलेजे हुमक जाते, जब अब्बू रबाब बजाते और वह हल्का सा उछ्ल कर हाथ आसमान की तरफ उठाती और फूल बरसाती अदा में ज़मीन तक लाती झुक जाती. उठते हुए कनखियों से दिया गया वो आमंत्रण…. मर्द अपने सीने मलते रह जाते…..जानते थे यह अँखड़ियों का विलास नाच तक सीमित है…हाथ भी थामने की इज़ाज़त नहीं.

उसका नाम गुलवाशा यूँ ही नहीं था, फूलों के मौसम में हुई थी वह, इसी उल्लास भरी वादी में

गुलवाशा को अपनी उम्र तक नहीं पता था, कोई पूछता तो वह कहती “शायद सतरा – या अठरा’ मगर ज़िन्दगी को उसने जड़ों से फुनगियों तक खूब पहचान लिया था. मरने से पहले वह बताती थी, “ तुम तो बच्ची थीं गोद की, सच पूछो तो हुलसता है मन जब हवेली में अपने अब्बू और उनके भाईयों, अम्मी और चचियों और ढेर सारे भाई – बहनों के साथ बिताए बचपन की याद का पिटारा खोलती हूँ तो, मन कहता है, ज़रा सहेज कर. यादें पुरानी, काली – सफेद फोटुओं की तरह होती हैं नाज़ुक- भुरभुरी, धुँधली! हाय! वो दावतें और संगीत की महफिलें, मोहब्ब्त और दर्द के गीतों की तड़प, खिले – खिले चेहरे, जंगली फूलों  के इत्र और लोबानों की महक.

अब्बू जब जवान हुआ करते थे, बहुत रंगीन टोपी पहनते थे, और लम्बा फालसई कढ़ा हुआ लाबादा पहनते और कान में सोने की मुरकियाँ. क्या तो रबाब बजाते और क्या दिलरुबा…सुर उनके दास.

माँ से पूछना कभी, अब्बा के लिए घर – बाहर की कितनी औरतों से लड़ीं थीं वो, उनकी उमर बढ़ती जाती मगर अब्बू की दीवानियाँ कम न होतीं. हर उम्र की…वो चीखतीं “ऎसा क्या है तुममें?”
अब्बू मुस्काते तो वह मन मसोस कर चुप रह जाती. घर भर की औरतें, उनका स्वभाव जान उन्हें चिढ़ातीं. कोई चची कहती, “ आप को उम्र कभी आएगी कि मिस्त्र से कोई लेप लेते आए हो गए साल.”
कोई पड़ोसन छूकर बात कर लेती, “उमराव, कल हमारी महफिल में आकर दिलरुबा बजा जाईए, किसी रसूख़दार की बेटी की मँगनी है.”
“सच्ची गुलवाशा?”
“ अह! मत पूछ कि उजड़ ही गया उस दिन चाचा – चाचियों, बुआओं से भरा घर, और एक दिन जब हम सब सोकर उठे तो दोनों चाचा अपने परिवार समेत ज़रूरत भर का सामान ट्रक में लाद चुके थे. भाई बहन..सर झुकाए अपनी निशानियाँ हमारी मुट्ठियों में थमा रहे थे, बहती आँखों को छिपाते हुए. सब जानते थे, लौटना मुश्किल है मैदानों से.

3.

एक घड़ी वह भी तो आनी थी हम तीन बहनों के जीते – जी. अब्बू को एक बार मजबूरन एक बहुत करीबी के घर महफिल रखनी पड़ गई, सादगी भरे नाच और रबाब की कुछ बंदिशों और अब्बू के गीतों के साथ वह महफिल तो निपट गई, मगर उस महफिल में कुछ बातों पर गौर किया गया, हालात से निपटने और ईंट का जवाब न सही भाटे से मगर विरोध से देने का फैसला हुआ.

तीन रोज़ बाद ही, एक रात हवेली के नीचे बड़े गेट के बाहर कुछ नारे गूँजे और कुछ  विरोध की भी आवाजें उठीं, उधर से कुछ बेसुरी धार्मिक व्याख्याओं से भरी पंक्तियाँ गूँजी. आकाश का मुँह किये कुछ बन्दूकें गरजीं. तब हम बहनें नीचे भागीं

अब्बू को कुछ लोग एक ट्रॉली में बिठाए लिए जा रहे थे –  इस बेदर्द और विश्वास से खाली वाक्य के साथ – “कुछ दिन बाद लौट आएगा..” अम्मी अपने सीने को हाथ से मार – मार कर ज़ख्मी किए ले रही थी और अब्बू सिर झुकाए बैठे थे, उन्होंने हम तीनों को आँखों में ऎसी तमाम दुआएँ भर कर देखा कि …मुझे एक पल को धड़का हुआ कि क्या ये अलविदा है?

अब्बू के रहते अम्मी खानदान – रिश्तेदारी में भले नाची, मगर नाच को पेशा नहीं किया, जब साल बीत चला और अब्बू नहीं लौटे तो, गुलवाशा और लुबना प्रायवेट वेडिंग पार्टियों में नाचने लगी. अब्बू के एक दोस्त ने भाई की तरह माँ को सहारा दिया…वो सारंगी बजाते थे, उनके भाई वॉयलिन. गुलवाशा ने उनका साथ कर लिया.

मुझे याद है एक बार एक आदमी, अपने अंग्रेज़ दोस्तों को लाया था एक शादी में… ’जेनीफर लोपेज़’….गुलवाशा को देख के चहका था. जब वो नाची तो अंग्रेज़ के होशगुम, उसका साथी घायल. उस अंग्रेज़ की बीवी पूछ बैठी “ आप क्या करते हो जो इतने लचीले और पतले हो? क्या डायटिंग करते हो?” जब डायटिंग का मतलब अम्मी को समझ आया तो वो खूब हँसी, उनदिनों खाने को तो पूरा होता नहीं था पूरे कुनबे को, तो वो हँसती नहीं तो क्या करती? वादी में खाना सोने के मोल बिक रहा था. इंतहां जो न कराए….एक रात अब्बू के दोस्त और उनके भाई हम चार औरतों को सोता छोड़ निकल गए. तब गुलवाशा उम्मीद से थी….

4.

और अब कोई उम्मीद नहीं बाकी…..

एक दिन यूँ हुआ ‘एफ एम’ पर तीन चोरी से नाच देखने वालों और दो साज़िन्दों को सरेशाम चौक में कोड़े मारने का ऎलान हुआ और शहर के सब वाशिन्दों को तमाशा देखने बुलाया गया.

उस तारीख को आधी रात बरबाद और टूटी हवेली का “ख़ारा कुआँ” गूँज गया और एक जामुनी किरण पानी में से निकली और अँधेरे में लहर बनाती सारी हवेली में फैल गयी, जैसे किसी ने रात में आतिशबाज़ी चलायी हो। चमकते हुए पानी पे एक अक्स औंधा तैर रहा था।

‘गुलवाशा!

शोरे शुदबाजखुबाबे अदम चश्म कुशुदेम,

दी देम के बाकीस्त शबे फितना गुनुदेम।

(दुनिया के शोर ने मुझे जन्नत के ख़्वाब से जगा दिया और मैं इस दुनिया में आ गया लेकिन यहां का हँगामा देखकर मैंने फिर आँखें बन्द कर लीं और मौत की पनाह ली।)

अब भी लुबना कहती है – “मेरा दिल कहता है कि बेहतर समय आएगा और मैं उम्मीद करती हूँ कि तब तक मैं तो जीवित रहूँगी.”

काश, लुबना का कहा सच हो, मुझे याद है वो पुराने दिन जब हमारे गाँव बहुत से रिश्तेदार आते थे गर्मियों में, वादी के मौसम का लुत्फ लेते और लौट जाते. संगीत गली की नर्तकियों का नाच देखते और मगन होते…गुनगुनाते लौटते..
आज एक सपना देखा, एक बहुत बड़ी पतंग, बैंगनी और पीली, ऊँची उड़ती उड़ती कट गई. उसकी डोर धूप में झिलमिला रही थी, वह गिरी मुँडेर से आँगन में, आँगन से ……. मैंने हाथ बढ़ाया मगर हाथ में से निकलती चली गयी। लुबना !

उस रात उसने नाच का रियाज़ नहीं किया, और उस रात मैं ने सब्र किया.. उसी रात अम्मी की धाय जिसे अम्मी और बाकि हम सब भी ‘मामा फिर्दोस’ कहते आए थे. अचानक दिल के दौरे से चल बसी थी.

ग़ज़ाला की स्कूल की कॉपी एक दिन अम्मी ने चूल्हे में बाल दी, अब बच रहे कुछ अक्स, जहन में बनते बिगड़ते.

अक्तूबर की एक ठण्डी. एक अँधेरी, रुआँसू गली. कभी यहाँ हमेशा बत्तियाँ जगमगाती रहती थीं और हर घर से संगीत सुनाई देता था, लेकिन पिछले दिनों कुछ दिनों से यह अंधेरे में है और बिलकुल ठप्प पड़ी है। इस पतली गली में बने एक संकरे से घर का जँग लगा लोहे का दरवाज़ा कोई लगातार खटखटा रहा है.

“ कौन है?”

 ” मैं हूँ …हमारे यहाँ शादी है.”

” ऎसे मुश्किल वक्त में शादी! कौन दीवाना हुआ है. “ अम्मी की अधेड़ आवाज़ खरखराई.

” अरे नजूमियों के हिसाब से शादी के लिए यही वक्त सही है…”

” तो बोर्ड देखो न….”

”कौन सा?”

”दरवाजे के बगल में…” अन्दर की आवाज़ कराहने लगी.

 गेट के बाँई तरफ लगे एक बोर्ड पर लगा है.  आगंतुक हकबकाया – सा बोर्ड पढ़ता है.– “आज से नाचना-गाना बंद. 30 सितम्बर….”

ऎसा क्यों? अचानक…अभी तो गुलवाशा नाची थी. हमारे मोहल्ले की शादी में.” गरदन और हाथ एक साथ हिलाता है…

“गुलवाशा? उसे गुजरे तो महीना हुआ.” एक पड़ोसी आगंतुक के पास आता है और बताता है .

“ अच्छा! फिर महीना दो महीना ही हुआ होगा, उस बात को भी…जब गुलवाशा आई थी मोहल्ले में….कोई और घर नहीं हैं जहाँ कोई और हो….जो हमारे शादी में रौनक कर दे, हमारी भतीजी का होने वाला दूल्हा लन्दन का है और उसने ही डिमांड रखी है कि वो रक्स घाटी की महफिल देखना चाहेगा,…”

पड़ोसी बताता है, इस गली में अंदर रहने वाली लड़कियों को कुछ विद्रोहियों का पत्र मिला था, जिसमें उन्हें धमकी दी गई है कि अगर वे चाहती हैं कि उनका घर न जलाया जाए तो वे नाचना-गाना बंद कर दें. आजकल संगीत गली सुनसान है, गली के आस – पास के लोग बताते हैं सबसे ज़्यादा क़हर यहीं बरसा है, दर्जनों परिवार दूसरे शहरों में जा बसे लेकिन जिनके पास जीने का दूसरा कोई विकल्प न था, वे यहीं रह गए हैं.”

अगंतुक ने देखा गली में कई पोस्टर चिपके हैं, नर्तकियों और गायकों को संबोधित, यह वाहियात पेशा छोड़ देने की धमकी भरे शब्दों के साथ, नहीं मानने पर बम – हमलों का सामने करने की बात भी लिखी थी. मैदान, घाटी में हर कोई जानता है, इस इलाके और इस गली को. यह गली अपनी गोरी-ख़ूबसूरत नृत्यांगनाओं और बहुत ही सुरीले वादकों और गायकों के लिए बहुत प्रसिद्ध है, आस – पास के मैदानी शहरों, कस्बों में शादी या अन्य निजी पार्टियों में इनकी महफिलों की बहुत माँग रहती है.

आगंतुक काँप गया. उसने पूछा कि “हुआ क्या था आखिर ? “

“इन्हीं बरसातों के बाद ही तो में सामने वाले ही दरवाज़े से गुलवाशा और उसके शौहर को खींच कर निकाला था,  एन इबादतगाह के सामने चौक पर दोनों को कोड़ों से पीटा गया था. शौहर अगले दिन अपने भाई से साथ गुल हो गया और गुलवाशा अपनी पुरानी हवेली के ख़ारे कुएँ में कूद गई. “

स्कूल – अस्पतालों के ध्वस्त होने के बाद, चौराहों पर कई – कई मौतों और कोड़ों की मार के बाद, ‘संगीत गली’ की जगह आजकल ‘खरासियों की गली’ की अचानक बहुत पूछ हो गई. वैसे इस गली में तरह-तरह के लोग बसते थे। सामूहिक पलायन के चलते गधागाड़ियों और खच्चर गाड़ियों और मिनी ट्र्कों की यह सराय बन गई थी. शाम के समय कोई-न कोई परिवार इस गली अपना घर – गृहस्थी का सारा सामान ढुलवाता जरूर मिल जाता था.

सुहैल सामान खच्चर पर लदवाए गली में चढान में ऊपर की तरफ बढ़ा, आगे एक छोटे खुले अहाते में एक लकड़ी का मोटा लट्ठा पड़ा था, वह उस पर से कूद कर एक संकरे दरवाज़े को धकेलता हुआ संगीत गली की संकरी हवेली के पिछवाड़े नौकरों की रिहाईश वाली एक कोठरी में घुसा… अन्दर अँधेरा था, वह अँधेरे से कुछ पूछ कर प्रतीक्षा में शांत हो गया.

“ माफ करें, ऎसा होना था, और हममें से कोई कुछ न कर सका. अब कारवाँ बढ़ा लेने के सिवा चारा ही क्या?”

भीतर के कमरे में किसी  की बूढ़ी सिसकियों से घर की अँधेरे से ढकी दीवारें थरथराती रहीं. मगर दो जवान जिस्मों परछाईयाँ थीं, एक चूल्हे की तरफ झुकी उससे बतियाती और दूसरी जो अँधेरे को ओढ़ कर कोने में अवसन्न बैठी थी, उसकी तरफ से कोई संकेत ना था कि उसने कुछ सुना भी या नहीं. सुहैल को पता था कि उसने उसे सुन लिया है,उसका मन उसके लिए भी दया से भर गया.

वह आहिस्ता से सरकता हुआ कोने में बने और लगभग बुझने को तैयार चूल्हे के पास गया, चीड़ की लकड़ी का एक सूखा टुकड़ा डाल कर फूँकने लगा. अंगारे धधकने लगे और स्फुलिंग उड़ने लगे, आग जली और कमरा उजास और गरमाहट से भर गया.

“लुबना, तुम इस वाहियात शहर से बाहर मैदान में क्यों नहीं चली गईं? उन दूसरी नाचने वाली लड़कियों की तरह?तुम तो बहुत, बहुत् बेहतर थीं उनसे.” बहुत ही बेतुका सवाल था, दोनों जानती थीं.

“मगर तुमने भी तो वादा किया था…..”  वो पीली और दुबली हो गई थी, मगर अब भी उसकी आवाज़ मीठी और नखरा बचकाना था.

सुहैल ने पहली गौर किया कि दीवार से जो छाया सटी खड़ी थी. वह ग़जाला थी. उसके गंदुमी चेहरे पर चूल्हे की आग हिलती – डुलती छाया और प्रकाश का खेल खेल रही थी. वह थोड़ी चिढी हुई सी लगी, और यह चिढ़ गुस्से की थी या नफरत की इसका वह अन्दाज़ लगाता रहा.

“सुनो ग़ज़ाला, चाहो तो तुम भी निकल सकती हो, मेरे साथ ही रह सकती हो, अगर तुम मुझसे नफरत नहीं करती तो.”

ग़ज़ाला होंठ चबाती रही.

”देखो, अगर जिस भी कारण तुम मुझसे नाराज़ हो तो…..कोई बात नहीं. न सही मैं… शहर चली चलोगी तो वहाँ इतने सारे पढ़े – लिखे मर्दों में से कोई तुम्हें नाचते देख, फिदा होगा ही. और तुमसे शादी कर लेगा. तुम्हारी किस्मत बदल जाएगी,…?

“मुझे नहीं जाना तुम्हारे साथ और न ही किसी शहरी मर्द की मेहर चाहिए.” लुबना ने  राहत महसूस की. सुहैल ने भी कि आखिरकार इसने बात तो की.

“ तुम जानती हो, मुझे भी दो – दो औरतों की दरकार नहीं. जानती हो न! ” उसने कोई उत्तर नहीं दिया.

“तुम तो जानती हो लुबना, जानती हो न?”

” हाँ…”  लुबना ने मिमिया कर कहा.

“ मेरी ग़लती नहीं थी. बिना पैसा बनाए मैं अच्छा शौहर कैसे बन सकता था. इसीलिए उनसे जा मिला…अब तुम्हारे साथ हूँ फिर से. “

”हमारा ही क्या गुनाह था, तुम गुलवाशा और उसके शौहर को  फँसा कर चले गए थे.”  ग़जाला चीखी.

“ यह झूठ है, मैंने ऎसा कुछ भी नहीं किया.”

“हाँ हाँ, जो हुआ सो हुआ, पर मुझे अब कुछ गिला नहीं रहा ….” लुबना ने बात टाल कर , एक लकड़ी का टुकड़ा चूल्हे में सरका दिया, और उसे कुछ खाने को दिया, मुरब्बे में फफूँद की महक थी और रोटी जली हुई थी. डर, गरीबी और भूख ने बाहर – भीतर सब ध्वस्त कर दिया था, उसने पहला गस्सा तोड़ा और निगल लिया….

“दो साल बहुत होते हैं. हमने इंतज़ार किया बेहतर वक्त का. मगर वह नहीं आएगा, हमें एक मौका और दे रहा है ख़ुदा. चली चलो…सब जवान लोग यहाँ से जा रहे हैं.  ”

लुबना पीछे के कमरे की तरफ लपकी ….

” पागल हो? पीछे मुड़ कर मत देखो!” उसने लुबना को और ग़जाला को खबरदार किया।

”क्यों?”

”उधर एक बूढ़ी जादूगरनी रहती है, उसके पास एक आईना है। जिसे वह आईना दिखाती है , वह यहीं रुक जाता है.”सुहैल हँसा, अपने मज़ाक पर और लुबना काँप गई, उसने भीतर की दीवारों के पार एक बुढ़िया को राख के ढेर में बदलते देखा…मगर ग़जाला ने पीछे मुड़ कर देख लिया, और अम्मी के पास

रुक गई.

ग़ज़ाला ने एक ख़त में लुबना को लिखा, वह ख़त बिना पते के कहीं न पहुँच सका.

हम सब जो रह गए थे, किसी न किसी तरह चुपचाप कमाने लगे.  मैं कम्प्यूटर सीखने लगी हूँ, एक खाली बैठे पढ़े – लिखे टीचर से. हम दोनों कभी कभी मोहल्ले के बच्चों को एक एक – दो दो करके पढ़ाते हैं. अपने  मोहल्ले के बगल वाले इलाकॆ में कल रात से फायरिंग हो रही है. मैं और मेरे जैसे और लड़के – लडकियाँ दर्द से लदे हैं, पीठ दुख गई है झुके – झुके. विस्फोट से हवेली की बची – खुची दीवारें धसक गईं, छत सड़क पर आ लेटी है. वजह इस फायरिंग की गोलियों के शोर में हम अपने गीत भूल गए हैं, रबाब की धुनें और ताल भूल गए हैं. इस गाँव के मर्द जो रबाब बजा कर अपनी बहनों को नाचता देख खुश होते थे, वे गुनगुनाने पर ऎसे घूरते हैं जैसे वे कोई गुनाह कर रही हों.

अम्मा पगलाई सी छाती धुनती हैं, जब लोगों को अपने खच्चरों पर सामान लादे, बिना मुड़े मैदानी शहर की तरफ जाते देखती है. मुझसे कहती हैं, मैं बस करूँ, स्कार्फ से मुँह ढक लूँ. किसी भले, अमीर अधेड़ से शादी कर लूँ, लड़कियों को किताब पढ़ाना और खुद कंप्यूटर पढ़ना बन्द कर दूँ?”

“ क्या तुम्हें अब भी मानना चाहिए इस कानून को जो ईश्वर के नाम से हर धर्म में औरतों के लिए अलग से बनाया जाता रहा है.” मेरा कम्प्यूटर टीचर मुझसे पूछता है.

“हाँ क्यों नहीं, मेरा भी एतकाद है, इस ईश्वर में और उसके बनाए कानून में, अम्मी और गुलवाशा की तरह ही, लेकिन क्या करूँ कि पिछले कई दिनों से मेरे कान रोते बच्चों और माँओं की कराहों को सुन रहे हैं. मैं अपने घर, तबके और आने वाले वक्त में अमन की पूरी तबाही देख पा रही हूँ. “

“तुमने कभी सोचा है? स्कूल जाती लड़कियों को कोई कैसे जला सकता है? नाचना – गाना धर्म के खिलाफ कैसे हो सकता है?” वह फिर पूछता है. मैं क्या जवाब दूँ? औरतों और बच्चियों को फुसफुसा कर पढ़ाते हुए मैं थक गई हूँ…उन्हें क्या – क्या नहीं समझाती, यह मजहबी कानून और इसका सही मतलब मगर सुनने वालियों के कान बहरे हैं और आँखें उजाड़, ज़बानें उमेठ दी गई हैं….मेरी हिम्मत टूट रही है अब.

 “मुझे उम्मीद है – क्या तुम्हें है कि एक दिन ये कान देखेंगें और आँखें सुनेंगी. ज़बानों की उमेंठनें खुल जाएंगी.”  कहते हुए, कभी कभी मेरा टीचर अपनी बैसाखी खिड़की से टिका कर, मुझे थाम कर मेरा माथा चूमता है. उस रात मैं सपना देखती हूँ, न केवल हम तीनों बहनों के होंठ, न केवल संगीत गली की हर लड़की बल्कि रक्स की घाटी की हर औरत के होंठ बैंगनी से फिर गुलाबी हो गए हैं और सेब के पेड़ों के बीच, हरे कच पत्तों में झुण्ड – के झुण्ड अब्बा की कोई रोमांटिक बंदिश गुनगुना रहे हैं. टहनियाँ रबाब की तरह बज रही हैं.


मनीषा कुलश्रेष्ठ 

 
      

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