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न खिलाड़ी पैदा करना आसान है, और न स्पोर्ट्स फ़िल्में बनाना!

‘साला खडूस’ नहीं देखी है तो प्रसिद्ध लेखिका अनु सिंह चौधरी की इस रिव्यू को पढ़ लीजिये. इस विस्तृत रिव्यू को पढ़कर लगा कि फिल्म को देखा जा सकता है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर 
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आर माधवन के लिए हम इतने ही पागल हैं कि रामजी लंदनवाले और १३बी जैसी फ़िल्में भी देख लेंगे। ऐसा कौन सा माधवन फ़ैन होगा जिसको ओ सेक्सी मामा, वोन्ट यू डू द सारेगामा जैसा आइटम नंबर भी मुँहज़ुबानी याद हो? ऐसा कौन-सा माधवन फ़ैन होगा जो महीने में कम से कम एक बार रहना है तेरे दिल में और तनु वेड्स मनु के गाने लूप में ज़रूर ज़रूर ज़रूर सुनता हो? और ऐसा कौन-सा माधवन फ़ैन होगा जिसने माधवन पर लिखे गए एक चैप्टर के लिए रश्मि बंसल की पूरी की पूरी एक किताब का अनुवाद कर डाला हो? लोग रंग दे बसंती और थ्री ईडियट्स में बेशक आमिर खान के लिए चियर कर रहे थे, हमने तो पिच्चर हॉल में मैडी के नाम का झंडा उठा रखा था। हम मैडी के इतने ही बड़े फ़ैन हैं कि मैडी के फर्स्ट होने पर उतना ही जश्न मनाते हैं जितना मैडी के फ़ेल होने पर। इसलिए साला खड़ूस का बॉक्स ऑफिस रिव्यू हमारे लिए बहुत मायने नहीं रखता। और इसी बात पर हम साला खड़ूस पहले ही दिन देख आए – ताकि क्रिटिक्स के रिव्यू का हमारे भीतर के फ़ैन की मोटी चमड़ी पर कोई असर न पड़े।
साला खड़ूस में मैडी ने एक सेकेंड के लिए भी निराश नहीं किया है। कहानी लिनियर है एकदम। हिसार का एक खड़ूस अनकंट्रोलेबल मुँहफट बॉक्सर आदी तोमर असोसिएशन की पॉलिटिक्स का शिकार बनता रहता है। देश के लिए गोल्ड लाने का सपना तब धराशायी हो जाता है जब आदी का कोच ही उसके ग्लव्स को स्पाइक कर देता है। मैच के दौरान ग्लव्स से आंखें पोंछते ही आदी को कुछ दिखाई नहीं देता और वो मैच हार जाता है। उसकी ये खुन्नस बार बार उबाल लेती है। आदी को एक बार फिर पॉलिटिक्स दिल्ली के बॉक्सिंग सर्कल से बाहर निकाल कर चेन्नई फेंक देती है। चेन्नई में आदी क्या ख़ाक टैलेन्ट ट्रेन करेगा। लेकिन वो करता है, वो भी एक टैलेंट ढूंढ कर। एक मछुआरन लड़की मधी को वो अपना स्टूडेंट बनाने लेने के लिए राज़ी तो कर लेता है, लेकिन मधी के भीतर की आज़ाद लड़की का निश्छल खड़सूपन आदी के सारे खड़ूसपन पर भारी पड़ता है। लेकिन साला खड़ूस सिर्फ एक कोच और एक नए टैलेंट के बीच पनपते रिश्ते की कहानी नहीं है। ये फ़िल्म सिबलिंग राइवलरी, खेल में राजनीति, खिलाड़ियों की असली माली और सामाजिक हालत और एक युवा लड़की के जुनून की भी कहानी है। ये और बात है कि कई लेयर्स में चलनेवाली इस फ़िल्म में पूरी तरह से छाता आदी तोमर ही है।
अगर आर माधवन के लिए मेरी दीवानगी और मेरे भीतर की फ़ैन गर्ल को पूरी तरह निकाल भी दिया जाए तो इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि माधवन ने इस रोल में ऐसी जान फूंकी है कि अगली फ़िल्म तक उन्हें आदी तोमर वाले शरीर और मिज़ाज़ से ही याद किया जाएगा। फ़िल्म में माधवन की फ़िज़िकल और इमोशनल – दोनों मेहनत दिखाई देती है। गठा हुए बॉक्सर का शरीर, लंबे बाल, उबल-उबलकर बाहर आता गुस्सा – माधवन के इस वक्त बॉक्सिंग रिंग में उतार दिया जाए तो हम वाकई भूल जाएंगे कि ये आदमी सिर्फ़ और सिर्फ़ एक अभिनेता है। अपने रोल में इस कदर ढल जाने की यही ख़ासियत माधवन को सबसे जुदा बनाती है।
रीतिका सिंह और मुमताज़ सरकार – साला खड़ूस की दोनों लीडिंग लेडीज़ एक्ट्रेस कम और बॉक्सर ज़्यादा हैं। फ़िल्म के विकी पेज के मुताबिक डायरेक्टर सुधा कोन्गरा प्रसाद ने सुपर फ़ाइल लीग के एक विज्ञापन में रीतिका को देखा था, और तभी रीतिका को साइन करने का मन बना लिया था। इस लिहाज़ से दोनों लड़कियां निराश नहीं करतीं। अपनी अपनी भूमिकाओं में ज़ाकिर हुसैन और नासर भी फ़िट बैठते हैं लेकिन एक पूर्व कोच और असोसिएशन की कमिटी मेंबर के रूप में एम के रैना की फ़िल्म में ज़रूरत समझ में नहीं आती। इसी तरह फ़िल्म का म्यूज़िक भी निराश करता है। स्वानंद के बोल हमेशा की तरह हटकर हैं, लेकिन म्यूज़िक में ऐसा कुछ भी नहीं जो एक बार भी अलग से फ़िल्म का साउंडट्रैक सुनने के लिए प्रेरित करे। हालांकि मेलडी की कोई ज़ुबां नहीं होती, लेकिन मुझे लगा कि म्यूज़िक शायद साउथ के दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाया गया है।
क्योंकि फ़िल्म लिखा भी सुधा ने है, इसलिए डायरेक्शन और राइटिंग, दोनों पर बात करना लाज़िमी हो जाता है। साला खड़ूस की सबसे अच्छी बात मुझे ये लगी कि फ़िल्म में कहीं कुछ भी दबा-छुपा या ‘subtle’ नहीं है। चाहे वो पॉलिटिक्स हो, या कोचों की असली नीयत का बखान, या फिर मधी की गरीबी, या मधी और लक्ष्मी के बीच की कट्टर स्पर्धा – कहीं कुछ भी दर्शकों को समझने के लिए नहीं फ़ुटनोट के तौर पर नहीं छोड़ दिया गया। डायरेक्टर ने पूरी ज़िम्मेदारी के साथ, अपने पूरे रिसर्च के दम-खम पर, जो भी दिखाया है, सच्चाई के बहुत करीब ले जाकर दिखाया है। सुधा ने कहीं भी कुछ भी कैमोफ्लाज करने की कोशिश नहीं की, और इसलिए अपनी कुछ खामियों के बावजूद ये फ़िल्म अच्छी बन जाती है।
सवा सौ करोड़ वाली फ़िल्मों की इंडस्ट्री में हमारे यहाँ स्पोर्ट्स फ़िल्में वैसे ही बनती हैं जैसे हम सवा सौ करोड़ की आबादी के बीच से हम खिलाड़ी पैदा करते हैं। लेकिन न खिलाड़ी पैदा करना आसान है, और न स्पोर्ट्स फ़िल्में बनाना। आसान तो कुछ भी नहीं होता जनाब, लेकिन जुनून, ज़िद, हौसला और प्यार – ये वो चीज़ें होती हैं जो तमाम अड़चनों के बावजूद नामुमकिन को मुमकिन बनाती रहती हैं। किसी भी खिलाड़ी के साथ बैठने पर क़िस्सों और तजुर्बों का अथाह खज़ाना मिलता है। स्पोर्ट्समैन स्पिरिट में ज़िन्दगी जीने के कुछ गहरे राज़ छुपे होते हैं। साला खड़ूस उन्हीं राज़ की बातों का ज़ाहिर करती है हमारे लिए।

और सौ बातों की भई एक बात – अगर आप माधवन के फ़ैन हैं तो ज़ाहिर है, आपको ये फ़िल्म देखनी चाहिए। अगर आप माधवन के फ़ैन नहीं भी हैं तो भी आपको ये फ़िल्म देखनी चाहिए। गारंटी है कि आप हमारे मैडी के मुरीद हो जाएंगे।  
 
      

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