संयोग से हिंदी के पहले थिसॉरस ‘समान्तर कोश’ के प्रकाशन का यह 20 वां साल है. हमने अरविन्द कुमार जी को इसी के माध्यम से नए सिरे से जाना था. हाँ, यह जानता था कि वे मेरी प्रिय फिल्म पत्रिका ‘माधुरी’ के संपादक थे. हालाँकि वे जिस दौर में उस पत्रिका के संपादक थे उस दौर में मैंने ठीक से होश नहीं संभाला था. अलबत्ता जब पत्र-पत्रिकाएं पढना शुरू किया तो जिस पत्रिका का नियमित पाठक बना था वह ‘सर्वोत्तम’ था, रीडर्स डाइजेस्ट का हिंदी संस्करण. बाद में पता चला कि उसके संपादक अरविन्द कुमार जी थे. मुझे अब भी याद है कि सर्फ़ के साथ ‘सर्वोत्तम’ के अंक घर में पहले फ्री आये और बाद में चाचा ने हम बच्चों की उस पत्रिका में रूचि को देखते हुए उसे घर में नियमित मंगवाना शुरू कर दिया था. लेकिन बड़ा हुआ तो ‘समान्तर कोश’ के माध्यम से उनसे एक नया परिचय हुआ.
उन्होंने अपनी कृतित्व-कथा का नाम ‘शब्दवेध’ उचित ही रखा है. हिंदी में कोश निर्माण के काम को जो मुकाम उन्होंने दिया है, वह अपन आप में किसी साधक पुरुष के काम सरीखा लगता है. यह एक ऐसा काम है जिसने उनके बाक़ी सारे कामों को पीछे छोड़ दिया. असल में जिस दौर में हिंदी भाषा में सबसे ज्यादा काम बढ़ रहा है, मीडिया में तथा अन्य क्षेत्रों में हिंदी का विस्तार हो रहा है उस दौर में अगर भाषा के बर्ताव को लेकर अरविन्द जी ने कोश नहीं बनाये होते तो इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती है कि हिंदी में भाषा को लेकर कितनी अराजकता फ़ैल जाती. उन्होंने एक जेनेरेशन को भाषा के संस्कार देने का काम किया. मेरा तो यह मानना है कि पिछले 20 सालों में हिंदी में अगर सबसे उल्लेखनीय कोई काम हुआ है तो वह कोश के क्षेत्र में अरविन्द जी का योगदान है, जिसकी शुरुआत 20 साल पहले ‘समान्तर कोश’ के प्रकाशन के साथ हुई थी.
‘शब्दवेध’ किताब कहने के लिए उनके सम्पूर्ण कैरियर का लेखा-जोखा है जो कि शब्दों की दुनिया में ही बीता है. जीवन के अर्थों से ज्यादा शब्दों के अर्थों की तलाश में. इसीलिए यह किताब मूल रूप से कोशकारिता के उनके अनुभवों को साझा करने की एक विनम्र कोशिश की तरह है.
पुस्तक में एक लेख हरदेव बाहरी के ऊपर भी है, जिन्होंने भाषा को लेकर एक दौर में बड़ा काम किया था. उसके बाद हिंदी भाषा की एकरूपता, उसकी वर्तनी को लेकर सबसे अधिक काम निस्संदेह अरविन्द जी ने किया है. उस भाषा में भाषा को लेकर काम करना जिसके भाषा भाषी अपनी भाषा के प्रयोगों को लेकर जागरूक नहीं रहते. मुझे याद है कि मेरे गुरु मनोहर श्याम जोशी हमेशा कोश देखते रहते थे और हमें इस बात की सलाह भी देते थे कि भाषा के प्रयोगों के मामले में कोश को छोड़कर किसी और का भरोसा नहीं करना चाहिए. जवाब में अहम उनसे कहते थे कि हिंदी के सारे कोश बहुत पुराने हैं जबकि भाषा बहुत आगे बढ़ चुकी है. वे जीवित होते तो अरविन्द कुमार जी के कोशों का हवाल देते हुए कहते कि ये देखो तुम्हारे समय के कोश हैं.
अरविन्द जी माधुरी के संपादक थे और ‘शब्दवेध’ के अंतिम हिस्से में सिनेमा पर लिखे हुए उनके लेख है. देवदास फिल्म पर एक लेख है और गीतकार शैलेन्द्र के ऊपर भी, जो अवश्य पढने लायक टाइप है.
शब्दवेध पर विस्तार से फिर लिखूंगा. यह पहला परिचय है.
पुस्तक: शब्दवेध: शब्दों के संसार में सत्तर साल; लेखक- अरविन्द कुमार; प्रकाशक- अरविन्द लिंग्विस्टिक्स, संपर्क- 9810016568; मूल्य- 799 रुपये
"सर्वोत्तम" की एक अच्छी बात थी, वो वर्तनी की त्रुटि संबंधी टिप्पणियां भी पाठकों के पत्रों में प्रकाशित करते थे और कई बार क्षमा याचना भी की जाती थी| मुझे ऐसा एक पत्र भेजने के लिए ११ रूपए का मनीआर्डर भी मिला था|